40 करोड़ हाथों से काम छिनने का ख़तरा
May 2, 2012 | Pratirodh Bureauअंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ओर से जारी वर्ल्ड वर्क रिपोर्ट 2012 के भीतर बेरोजगारी की निराशाजनक तस्वीर छिपी है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2012 में करीब 20.2 करोड़ लोग बेरोजगार हों जाएंगे. कुल मिलाकर इस साल पिछले साल के मुकाबले 60 लाख ज्यादा नौकरियां जाएंगी.
ऐसा इसलिए होगा क्योंकि दुनिया की तकरीबन सभी अर्थव्यवस्थाएं मंदी से निकल नहीं पाई हैं. श्रम बाजार इस मंदी की कीमत चुका रहा है. बचते-बचाते अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ ने इस विपदा के लिए सरकारों को भी जिम्मेदार मान रहा है.
उसका कहना है कि ज्यादातर देश रोजगार बढ़ाने वाली नीतियों की जगह खर्च कटौती को प्राथमिकता दे रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के रेमंड टोरेस का कहना है कि खर्च में कटौती और नियामकों को बढ़ाने से स्थिति बेहतर होनी चाहिए थी,लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.
2008 से अब तक 5 करोड़ नौकरियां खत्म हुई हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 2012 में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रहेगी. यही नहीं यह नर्क आने वाले समय में भी जारी रहेगा. आईएलओ का कहना है कि 2013 में बेरोजगारी की दर 6.2 फीसदी पहुंच जाएगी. 2016 में रोजगार दफ्तरों की लाइन में 21 करोड़ और जुड़ जाएंगे.
आमदनी के लिहाज से अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भारत को इंडोनेशिया, पाकिस्तान के साथ निम्नमध्य आय वर्ग वाले देशों की सूची में रखा है. जबकि अर्जेंटिना, चिली जैसे ज्यादातर लैटिन अमेरिकी देश उच्च-मध्य आयवर्ग की श्रेणी में हैं.
संगठन की रिपोर्ट में सबसे बड़ी चिंता यूरोप को लेकर जाहिर की गई है. यूरोप गर्त में जा रहा है. 2014 तक यूरोप के सभी बैंकों को कर्ज लौटाने हैं, जो बहुत मुश्किल है. यूरोप मंदी का अगला केंद्र बन चुका है. जिसका असर दुनिया के बाकी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ना तय है.
फिलहाल वैश्विक रोजगार दर 60.3 फीसदी है. जो चार साल पुरानी मंदी से भी 0.9 फीसदी कम है. 2008 की मंदी से पहले वाले स्तर के मुकाबले आज भी पांच करोड़ नौकरियां कम हैं.
2007 के अंत में शुरू हुई मंदी ने सामाजिक तानेबाने को तोड़ दिया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि मंदी के बाद अर्थव्यवस्थाओं के ऊबरने की रफ्तार धीमी है. नतीजा यह हुया है कि लोगों की आमदनी कम हुई है. इसके साथ गरीबी और गैरबराबरी भी तेजी से बढ़ी है. रिपोर्ट श्रम बाजार से जुड़े सुधार पर सवाल खड़़ी करती है. बेहतरी का दावा करने वाली अर्थव्यवस्थाएं भी रोजगार के मोर्चे पर मुश्किलों से जूझ रही हैं. नितिगत मामलों में ज्यादातर देशों की प्राथमिकता रोजगार पैदा करने की जगह राजकोषीय घाटे को कम करने वाली है. रिपोर्ट ने आने वाले दिनों में बेरोजगारी के बदतर स्थिति के लिए यूरोप की बदलहाल अर्थव्यवस्था को जिम्मेदार माना है.
पिछले साल उभरती अर्थव्यवस्थाओं में रोजगार पैदा करने की दर 0.1 फीसदी रही, जबकि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं ने 2.2 फीसदी की दर से रोजगार पैदा किया.
जो देश मंदी से बाहर निकलने के दावे कर रहे थे वहां जो रोजगार पैदा हुआ है वह अस्थाई किस्म का है.
रिपोर्ट में कहा है गया है कि मंदी के चार साल में नौकरियों के चरित्र को बदल दिया है. अब अस्थाई नौकरियां बढ़ रही हैं. विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ऐसी नौकरियों की संख्या दो तिहाई है. भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में आधे से भी ज्यादा लोग अस्थाई किस्म की नौकरी में लगे हैं. यूरोपीय देश तो अस्थाई किस्म के रोजगार में लगे लोगों को स्थाई रोजगार के मुकाबले 40 फीसदी कम वेतन दे रहे हैं.
रोजगार बड़ा स्रोत अभी भी असंगठित क्षेत्र है. विकसित देशों की दो तिहाई अस्थाई रोजगार में से 40 फीसदी असंगठित क्षेत्र से जुड़ा है. रिपोर्ट का कहना है कि “यह सामान्य बेरोजगारी नहीं है. पिछले चार साल की मंदी में बेरोजगारी एक सांचे में ढल चुकी है. जिसे खत्म करना आसान नहीं होगा”.
बेरोजगारी का सबसे ज्यादा शिकार महिला और युवा वर्ग (15-24 वर्ष) रहा है. युवाओं की बेरोजगारी में 80 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. परिवार गरीबी झेल रहे हैं और इससे सामाजिक उथल-पुथल बढ़ा है. 2010 के मुकाबले 2011 में106 देशों में से 57 देशों का सोशल अनरेस्ट इंडेक्स बढ़ा है. इन देशों में युरोप,मध्यपुर्व, नार्थ अफ्रिका और सब सहारन अफ्रीका के देश शामिल हैं.
विकसित अर्थव्यवस्थाओं की बेरोजगारी दीर्घकालीन प्रवृत्ति दिख रही है. करीब आधे से ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में 40 फीसदी बेरोजगारी दीर्घकाली प्रवृत्ति वाली दर्ज हुई है. दीर्घकालीन प्रवृत्ति की मतलब है कि बेरोजगारी 12 महीनों से ज्यादा रही है. ऐसे देशों में डेनमार्क, आयरलैंड, स्पेन, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका जैसे देश शामिल हैं. ये देश 2007 से बेरोजगारी से जूझ रहे हैं.
रिपोर्ट के मुताबकि ज्यादातर देश अभी भी वैश्विक संकट से जूझ रहे हैं. छोटी अवधि में मिल रहे संकेत बताते हैं कि श्रम बाजार में मंदी और गहराएगी. कुछ समय में अर्जेंटिना, ब्राजील और मैक्सिको के साथ इंडोनेशिया, रुस और तुर्की जैसे देशों में रोजगार की दर में मामूली बढ़ोतरी हो सकती है. बाकी जिन देशों के आंकड़े उपलब्ध हैं वहा रोजगार की दर स्थिर या दोबारा कमजोर पड़ सकती है. भारत, चीन, यूरोप और सऊदी अरब जैसे देश शामिल हैं जहां श्रम बाजार में झटका लग सकता है.