अखिलेश जी, यह अमेरिका नहीं है

May 4, 2013 | Pratirodh Bureau

मुख्यमंत्री के नाम एक खुला पत्र


अखिलेश यादव जी
मुख्यमंत्री- उत्तर प्रदेश सरकार
अमेरिका में मंत्री आजम ख़ां के अपमान के बाद उनके साथ आपने भी हावर्ड विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार किया, यह बात हमें बहुत अच्छी लगी. वरना इसके पहले अभिनेता शाहरूख खान से लेकर राष्ट्रपति अब्दुल कलाम तक के अपमान के बावजूद हमारे अदने से मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी अमेरिका के एक बुलावे पर दौड़ते हुए वहां पहुंचते रहे हैं. यहां तक कि पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीस की पद पर रहते हुए भी नंगाझोरी की घटना के बाद भी इनमें से किसी का स्वाभिमान आहत नही हुआ. बस थोड़ी सी बालसुलभ शिकायत के बाद सब शान्त होता रहा और सब पहले की तरह अमेरिका की ओर दौड़ते रहे. इन सब लोगों का चाटुकारिता भरा व्यवहार देखने के बाद आपके द्वारा वहां आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर लौटने का फैसला हमें भा गया. इस कार्यवाही से हमें पता चला कि साम्राज्यवाद के चाटुकार होने के बाद भी आप लोगों में से भी कुछ के अन्दर स्वाभिमान बसता है. इसी कारण हम सबको आपका यह कदम अच्छा लगा.
आपके इस कदम के लिए आपको धन्यवाद देने के साथ साथ हम आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहते हैं कि हम जो आपकी जनता हैं, ऐसा अपमान अपने देश और प्रदेश के अन्दर हर रोज झेलते हैं. हर बम धमाकों के बाद आपकी खुफिया विभाग से लेकर पुलिस विभाग तक असली दोषी को भले ही ना पकड़ सकें, हममें से ढेर सारे लोगों को इसलिए इसी तरह अपमानित करती है क्योंकि हमारे नाम के आगे भी ख़ान, रहमान, अली या ऐसा ही कुछ और लगा है. वह हमारे घरों में घुस कर तलाशी के नाम पर अभद्रता करती है, हमें मार पीट कर और यातना देकर जबरन जुर्म कुबूलने का दबाव बनाती है और पूरे समाज के सामने हमें आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत कर हमारा ऐसा अपमान करती है कि हम और हमारे परिवार वाले आजीवन इससे मुक्त नही हो पाते. आप तो चुंकि दूसरे देश में थे, इसलिए आप विरोध के तौर पर वह देश छोड़ कर आ गये,परन्तु हम तो अपने ही देश में हैं, हम कहां जायें?
इस तरह का अपमान तो हम तब झेलते हैं, जब देश या प्रदेश में ऐसी कोई घटना घट जाए, इसके अलावा भी हमें हर रोज शक़ की नज़र से देखा जाता है, चाहे वो किसी भी धर्म या जाति का हो, और कई जगह हमें अपने सामान और ख़ुद की अपमानजनक तलाशी से गुजरना पड़ता है. कई बार गरीब होने के नाते ही हम आपकी सुरक्षा एजेन्सियों को संदिग्ध लगने लगते हैं. मैं आपको एक घटना बताती हूं.
“मैं, जो एक मजदूर हूँ, एक दिन मैंने दिल्ली मेट्रो का आनन्द लेते हुए काम पर जाने का मन बनाया. हाथ में खाने का डिब्बा पकड़ा और चल पड़ा. मैने सबकी तरह वहां खड़े सुरक्षाकर्मी से अपनी जांच कराई, फिर भी उसने मुझे रोक लिया और मेरा खाने का डिब्बा खुलवाकर उसकी तलाशी ली. आपकी तरह मेरा भी स्वाभिमान आहत हुआ और मैंने भी फिर कभी मेट्रो में ना जाने की कसम खाई. मैं जानता हूं कि मेरे इस निर्णय से मेरे सिवा किसी को भी कोई फ़र्क नही पड़ने वाला, पर इसके अलावा मैं कर भी क्या सकता था?”
गरीब और मजदूर जनता के रूप में हमारा अपमान तो आम बात है, इतनी आम हम सब ऐसे अपमानों को सहज भाव से लेने लगे हैं. इसके अलावा इस प्रदेश और देश के तमाम प्रतिष्ठित बु़द्धिजीवी ,इस अपमान के खिलाफ़ लिखने वाले लेखक पत्रकार और समाजकर्मियों को भी आपके प्रदेश और देश के अन्दर आये दिन ऐसा अपमान झेलना पड़ता है. हमारे आस पास कई ऐसी घटनाये होती रहती है कि पुलिस का अदना सा सिपाही भी किसी सम्मानित लेखक, पत्रकार या समाजकर्मी को थाने पर तलब कर लेता है और उनसे अनावश्यक पूछताछ करता है. कई बार तो मुकदमा ठोंक कर जेल के अन्दर कर देता है.
हम इस प्रदेश और देश की जनता इन सभी रूपों में हर रोज अपमान झेलते हैं, परन्तु क्योंकि यह सब हमारे ही देश, प्रदेश और जिले में होता है इसलिए हम इन सब के बीच रहने को मजबूर हैं. क्योंकि यह सब हमारी ही सरकारें कर रही हैं, इसलिए हमारे पास शिकायत दर्ज कराने का कोई विकल्प ही नहीं है.
मुख्यमंत्री जी, इन सब घटनाओं को देखते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि हर सत्ता अपने नीचे वालों में स्वाभिमान का होना गलत मानती है, इसलिए वह उन्हें कदम कदम पर अपमानित करती रहती है. हमें आपकी सत्ता अपमानित करती है, और आप जैसी सत्ताओं को साम्राज्यवादी सत्ताएं. फिर भी आपने आजम ख़ां को अपमानित करने की घटना के बाद जो कदम उठाया, वह सराहनीय है. वरना जार्ज फर्नांडीस जी का स्वाभिमान तो यहां तक गिर गया कि जब उनकी नंगाझोरी का राज खुला उन्होंने बेहयायी के साथ यह सफाई दी कि ’नही नही पूरे कपड़े नही उतरवाये थे.’ उस दिन भारतीय होने के नाते हमारा सिर शर्म से झुक गया था, पर आज आपके इस विरोध से हमारा सिर फिर से थोड़ा उठ गया है.
मुख्यमंत्री जी, हमें आपसे सीख लेनी चाहिए लेकिन यह भी बता दीजिए कि कभी हम विरोध करें तो कहाँ जाएं, अपनी माटी, अपना देश छोड़कर
सीमा आज़ाद