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न्याय की पीठ पर पड़ रहे हैं जाति के कोड़े

Jun 10, 2012 | आनंद सौरभ उपाध्याय

गैर ब्राह्मणों की पर्याप्त मौजूदगी के बावजूद भारतीय राज्य व्यवस्था ब्राह्मण है. नहीं तो कोई वजह नहीं है कि नंगी आंखों से भी साफ दिख रही प्यार की कहानी को बलात्कार बनाया जाए. सत्ता और व्यवस्था के साथ रुपया भी ब्राह्मण है. ये आपकी मति को भ्रष्ट कर देता है. सच और झूठ के तराजू को लड़खड़ा देता है. निरुपमा पाठक और प्रियभांशु रंजन की मोहब्बत ब्राह्मण साजिशों के चक्कर में अंजाम तक नहीं पहुंच सकी. दोनों मेरे सहपाठी रहे इसलिए दोनों की प्रेम कहानी का प्रत्यक्ष गवाह मुझे माना जा सकता है अगर ब्राह्मण कानून इसकी इजाजत देता हो. निरुपमा आज हमारे बीच नहीं है और प्रियभांशु जिस शहर को अपनी सुसराल बनाना चाहता था वहां की जेल में बंद है. हम प्रार्थना करते हैं कि जेल ब्राह्मण न हो क्योंकि निरुपमा के घर वालों से उसकी जान को खतरा है.

 
निरुपमा की हत्या (पुलिस इसे आत्महत्या बताती है) के बाद न तो निरुपमा के घर वालों ने पुलिस को बुलाया और न कोडरमा की पुलिस खुद से चलकर गई. ये प्रियभांशु रंजन की राज्य पुलिस प्रमुख से लेकर एसपी साहब तक को लगातार फोन कॉल थे जिसके बाद पुलिस निरुपमा के घर पहुंची. पुलिस को परिवार ने बताया कि करंट लगने से मौत हो गई है. बाद में फंदा लगाकर खुदकुशी की बात बताई गई. प्रियभांशु और निरुपमा के मेरे जैसे मित्रों ने फैक्स दर फैक्स भेजकर प्रशासन से पोस्टमार्टम के लिए मेडिकल बोर्ड का गठन करने की मांग की. बोर्ड ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा कि गले पर फंदे का जो निशान है वो गला दबाने से बना प्रतीत होता है. उस समय हमने निरुपमा की कुछ दुखद तस्वीरें जारी की थीं जिसमें उसके गले पर फंदे का निशान दिखता है, उसके सिर पर चोट के निशान दिखते हैं. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि निरुपमा प्रियभांशु के बच्चे की मां बनने वाली थी जिसकी जानकारी न तो निरुपमा को थी और न प्रियभांशु को.
 
पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद हत्या का मामला दर्ज किया और निरुपमा की मां को गिरफ्तार कर लिया. निरुपमा के पिता और भाई से भी पूछताछ की गई. पुलिस की टीम दिल्ली पहुंची और प्रियभांशु समेत निरुपमा से जुड़े हर संभावित साक्ष्य से पूछताछ की गई. बिजनेस स्टैंडर्ड के दफ्तर में छानबीन की गई. निरुपमा के दोस्तों से जानकारी जुटाकर पुलिस टीम लौटी. प्रियभांशु का मोबाइल जब्त कर लिया गया क्योंकि पुलिस को प्रियभांशु और निरुपमा के बीच आए-गए एसएमएस से कुछ सुराग मिलने का भरोसा था. पुलिस ने आए-गए एसएमएस की जो संख्या बताई वो प्रियभांशु के मोबाइल पर मौजूद मैसेज की संख्या से मेल नहीं खा रहीं. प्रियभांशु के मुताबिक जो मैसेज आए या गए, वो सारे मैसेज उसने पुलिस को दिखाए. मैसेज के आने-जाने का एक केंद्र प्रियभांशु था जो मोबाइल सेट पुलिस के कब्जे में है लेकिन निरुपमा के मोबाइल का पता लगाने में पुलिस की नाकामयाबी को क्या माना जाए.
 
पुलिस की दिलचस्पी नहीं है कि वो मोबाइल सामने आए क्योंकि उसकी ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग से निकली झूठी कहानियां इससे मर जाएंगी. निरुपमा के परिवार को खुद मोबाइल पुलिस के हवाले कर देना चाहिए जिससे ये स्पष्ट हो जाता कि दोनों के बीच किस तरह के मैसेज आए गए थे. प्रियभांशु के मोबाइल में दर्ज मैसेज से तो यही पता चलता है कि दोनों आखिरी मैसेज तक एक-दूसरे को लेकर प्रतिबद्ध थे. निरुपमा के भाई-पापा इतने अहम सबूत को छुपा क्यों रहे हैं जिससे प्रियभांशु के तथाकथित झूठ की पोल खुल सकती है. पुलिस को यह समझाने की जरूरत नहीं है कि ये निरुपमा का मोबाइल ही है जो बता सकता है कि उसने जो मैसेज भेजे या उसे जो मैसेज मिले, वो प्रियभांशु को मोबाइल में दिख रहे मैसेज से अलग भी हैं क्या. क्या कोई ऐसा मैसेज है जो प्रियभांशु के पास नहीं पहुंचा या पहुंचा तो प्रियभांशु ने उसे छुपा लिया. 
 
मोबाइल फोनों की बरामदगी और पड़ताल के अलावा कायदे से पुलिस को दोनों नंबरों के कॉल/मैसेज डिटेल्स उनके सर्विस प्रोवाइडरों से लेने चाहिए थे. सर्विस प्रोवाइडर के पास हरेक मोबाइल नंबर की पूरी कुंडली होती है जो बताती है कि उस नंबर पर कितने और किसके फोन या मैसेज आए-गए. कितने कॉल और मैसेज कामयाब हुए और कितने पहुंचने में नाकाम रहे. जो मैसेज आए या गए उसमें क्या लिखा गया था. पुलिस निरुपमा और प्रियभांशु दोनों के नंबरों के सेन्ट, फेल्ड, डिलीवर्ड, सक्सेसफुली सेन्ट बट अनडिलीवर्ड मैसेज का पूरा डिटेल और टेक्स्ट सामने रखती तो आखिरी समय में दोनों के रिश्तों की गहराई का पता चलता.  पुलिस के लिए ये बहुत आसान काम है लेकिन नीयत से ही तो जांच की दिशा तय होती है.
 
कई तथ्य हैं जो ट्रायल के दौरान कोर्ट में रखे जाएंगे और कोर्ट उसका अन्वेषण करने के बाद ही फैसला सुनाएगा कि पुलिस का रवैया इस मामले में सच सामने लाना का रहा है या सच छुपाने का और सच सामने लाने की कोशिश कर रहे प्रेमी को फंसाने का. निरुपमा की हत्या को सामने लाने का दुस्साहस करने के प्रतिशोध में प्रियभांशु पर पाठक परिवार ने भी कोर्ट केस किया. आरोप लगाया गया कि शादी का झांसा देकर प्रियभांशु ने निरुपमा के साथ बलात्कार किया. मुकदमा दर्ज करने वाले ये भूल गए कि निरुपमा के पिताजी ने इस शादी के खिलाफ धर्म की दुहाई देते हुए चिट्ठी लिखी थी. दोनों ने शादी की तारीख तय कर ली थी. मंदिर में शादी का इंतजाम कर लिया गया था. न्योते गए कुछ लोग दिल्ली पहुंच चुके थे. निरुपमा ने परिवार को मनाने की आखिरी कोशिश के लिए शादी को अंतिम समय में टाल दिया. निरुपमा को मां की बीमारी की आड़ में बुलाया गया और फिर वो कभी नहीं लौट पाई. बीमार मां को देखने गई निरुपमा को कोडरमा में कुछ अनहोनी की आशंका जरूर रही होगी तभी उसने जाने से पहले वापसी का टिकट ले रखा था. साधारण परिस्थिति में बीमार मां या बाप को देखने गए बेटे-बेटी तो घर पहुंचने के बाद मरीज की हालत में सुधार को देखने के बाद ही टिकट कटाने की सोचते हैं. पर उसे नहीं मालूम था कि ये उसका आखिरी सफर था. उसने कहा था कि शायद वो अपने परिवार को समझा पाने में कामयाब हो जाए और उसकी प्रेम कहानी का सुखद अंत हो लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था.
 
निरुपमा के न्याय की लड़ाई अग्रिम मोर्चे पर लड़ रहे प्रियभांशु ने अग्रिम जमानत अर्जियां खारिज होने के बाद कोडरमा में आत्मसमर्पण कर दिया है और फिलहाल न्यायिक हिरासत में सलाखों के पीछे है. निरुपमा को न्याय दिलाने की ये लड़ाई अदालती रास्तों से आगे बढ़ेगी. ट्रायल कोर्ट में पुलिस की नापाक करतूतें सामने आ ही जाएंगी क्योंकि कोर्ट पुलिस थाने की केस डायरी नहीं है. पुलिस कहती है कि निरुपमा ने खुदकुशी की और खुदकुशी के लिए पिता धर्मेन्द्र पाठक, भाई समरेन्द्र पाठक, मां सुधा पाठक के साथ-साथ प्रेमी प्रियभांशु बराबर का जिम्मेदार है.
 
28 अप्रैल, 2010 को जब प्रियभांशु और निरुपमा की बात हुई तो वो वह दिन था जब निरुपमा को दिल्ली लौटने के लिए ट्रेन पकड़नी थी. मोबाइल पर रोती-बिलखती निरुपमा ने प्रियभांशु से कहा कि उसे घर वाले आने नहीं दे रहे हैं. उसकी जानकारी के बगैर शायद उसके दफ्तर बिजनेस स्टैंडर्ड में इस्तीफा भेज दिया गया है. उस पर मां और भाई के कुछ दोस्त निगरानी रख रहे हैं. प्रियभांशु ने उससे कहा कि वो पुलिस की मदद लेता है तो ऐसा करने से निरुपमा ने उसे मना कर दिया. प्रियभांशु ने उससे घर से किसी तरह निकलकर ट्रेन पकड़ने या रांची आ जाने के लिए भी कहा. ये भी कहा कि वो उसे लेने रांची आ जाता है या फ्लाइट में टिकट बुक करा देता है. लेकिन उसने ऐसा कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी.
 
29 अप्रैल, 2010 को निरुपमा की हत्या की खबर को उसके परिवार ने छुपाने की पूरी कोशिश की. मौत के घंटों बाद भी न उन्होंने पड़ोसियों को और न पुलिस को इसकी भनक लगने दी. पुलिस को प्रियभांशु ने फोन करके उसके घर जाने का आग्रह किया जबकि नीरू के परिवार वाले चुपचाप उसके दाह संस्कार की तैयारियों में जुटे थे. झूठी शान के लिए हत्या का मामला था यह.
 
निरुपमा के लिए न्याय अभियान से जुड़े लोगों को उम्मीद थी कि सच सामने आएगा और हत्यारे पकड़े जाएंगे. उसके भाई के वो दोस्त पकड़े जाएंगे जो उस पर निगरानी रख रहे थे. इस बात की पूरी संभावना है कि इन लोगों ने ही हत्या करके शव को खुदकुशी की तरह प्लांट करने की कोशिश की हो. पर पुलिस तो ठहरी पुलिस. पुलिस के एक अधिकारी का बयान अभी भी मेरे कानों में गूंजता है कि अगर मेरी बेटी किसी और जात वाले से प्रेम करती तो उसका भी यही हश्र करता. ऐसी पुलिस से न्यायपूर्ण जांच की उम्मीद बेमानी है. पुलिस अनुसंधान में तीन डॉक्टरों के बोर्ड द्वारा शव को देखकर बनाए गए पोस्टमार्टम रिपोर्ट की बजाय एम्स के विशेषज्ञों की एक ऐसी रिपोर्ट को आधार बनाया गया जो बिना घटनास्थल का मुआयना किए तैयार की गई. वैसे एम्स की ये रिपोर्ट भी आत्महत्या की संभावना भर जताती है, पुष्टि नहीं करती. आज भी निरुपमा का बंद कमरा इन विशेषज्ञों के आने का इंतजार कर रहा है.
 
निरुपमा ने अगर खुद फांसी लगाई थी और वो भी पहली मंजिल के कमरे में तो फिर घर में उस वक्त अकेली मौजूद मां सुधा पाठक ने कैसे उसे फंदे से उतार कर सीढ़ियों के रास्ते ग्राउंड फ्लोर पर लाया. वो भी तब जब उन्होंने निरुपमा को यही कहकर बुलाया था कि बाथरूम में गिरने से कमर में गहरी चोट आई है. पुलिस को सूचना देने की बजाय शव को धोया गया और घटनास्थल की सफाई की गई. एक सरकारी बैंक के मैनेजर धर्मेंद्र पाठक ने बेटी की हत्या के बाद बयान दिया था कि अरवा और उसना चावल एक नहीं हो सकते.
 
पुलिस जिस मोटिव के साथ काम कर रही है उससे जांच पूरी तरह पटरी से उतर गई है. उसका एक ही मकसद दिखता है, लीपापोती करना और साथ में उस लड़के को सजा दिलाना जिसने ऊंची जाति में प्यार करने का गुनाह किया. न्यायिक प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है. अब तो ट्रायल से ही तय होगा कि तथ्यों और सबूतों को लेकर अभियोजन का नजरिया न्यायोचित है या निरुपमा को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ रहे लोगों का.
 
(लेखक ‘निरुपमा के लिए न्याय अभियान’ से जुड़े हुए हैं)

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