गांधी हत्या और हत्यारों का शोक-स्वांग
Jan 30, 2014 | PRATIRODH BUREAU(तारीख 30 जनवरी. गांधीजी की शहादत का दिन. जो उनकी हत्या के लिये जिम्मेदार थे, वे ही आज अपने को सच्चा राष्ट्रवादी बताते हैं. क्यों न हम इतिहास के उस सबसे दर्दनाक पृष्ठ पर एक नजर डालें, जिसमें गांधीजी की हत्या के लिये विषैला वातावरण तैयार किया गया था. यहां अपनी किताब ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ का इससे संबंधित एक पन्ना दे रहा हूं.)
वे गांधीजी की हत्या से इन्कार करते हैं. सरकार ने भी मामले की जाँच करने के बाद सीो तौर पर आर एस एस को उसके लिए अपराधी घोषित नहीं किया.यह बात सच है कि नाथूराम गोडसे पर चले अदालते मुकदमें में यह साबित नहीं किया जा सका था कि गोडसे आरएसएस का सदस्य था. इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उस समय तक आरएसएस का अपना कोई संविधान नहीं था, और न ही उसके सदस्यों का कोई बाकायदा रेकर्ड. जाहिर है कि आरएसएस की इसी सख्त गोपनीयता के कारण शुद्ध रूप से तकनीकी स्तर पर अदालत में तब यह साबित नहीं किया जा सका था कि गांधीजी का हत्यारा नाथूराम आरएसएस का सदस्य था. लेकिन आरएसएस के साथ नाथूराम के लंबे काल से संपर्क थे, इसके बारे में अब तक ढेरों तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं. गोडसे की विचारधारा आरएसएस की विचारधारा से जरा भी भिन्न नहीं थी और वह एक समय में आरएसएस का सक्रिय प्रचारक था, इसे अब साबित करने की जरूरत नहीं है.
जिस प्रकार आरएसएस भारत की आजादी को ’’मुसलमानों के हाथों हिंदुओं की पराजय’ बताता रहा है, उसी तर्क पर नाथूराम ने अदालत में दिये गये अपने बयान में गांधीजी की हत्या को एक देशभक्तिपूर्ण काम बताया था और छाती ठोक कर कहा था कि ’’यदि देशभक्ति पाप है तो मैं जानता हूँ मैंने पाप किया है. यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ….मैंने देश की भलाई के लिए यह काम किया. मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए.’’ (गोपाल गोडसे, ’’गांधी वध क्यों’ में नाथूराम गोडसे के अदालत को दिए गए बयान से, पृ. 113)
गांधी जी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने खुद स्वीकार किया था कि उसने ’’कई वर्षो तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम किया है.’’ बाद में वह हिन्दू महासभा में आ गया था, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस सरकार के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, इस प्रश्न पर हिन्दू महासभा के नेता सावरकर से उसके मतों का मेल नहीं बैठा. सावरकर आजादी की रक्षा के लिए नई सरकार को समर्थन देने के पक्ष में थे जो गोडसे को सही नहीं लगा और उसने सावरकर का साथ छोड़ दिया. (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 62)
वास्तविकता यह है कि सावरकर जहाँ देश की आजादी को एक महत्त्वपूर्ण विजय समझते थे, वहीं आर एस एस इसे राष्ट्रीय पराजय, हिन्दुओं को मिली मात मानता था. आर एस एस का पुराना स्वयंसेवक रह चुका नाथूराम गोडसे इस मामले में फिर से पूरी तरह आर एस एस के मत का था. सावरकर तिरंगे झण्डे को राष्ट्रीय वज की मर्यादा देना उचित समझते थे, नाथूराम आर एस एस के विचारों का हामी होने के नाते इसका भी विरोधी था.
उसी के शब्दों में : ’’वीर सावरकर ने स्वयं आगे बढ़कर कहा कि चक्रवाले तिरंगे झण्डे को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया जाएँ. हमने इस बात का खुला विरोध किया.’’ (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 63)
राष्ट्रवज के प्रसंग में आर एस एस के विचारों पर हम पहले चर्चा कर आए हैं. पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की शेष राशि दिए जाने के प्रश्न पर भी आर एस एस और गोडसे के विचार एक थे. गांधी जी की हत्या के ठीक पहले के ’’आर्गनाइजर’, ’’पाँचजन्य’ के अंकों को देखने से ही साफ पता चल जाता है कि आर एस एस किस प्रकार गांधीजी के खिलाफ जहरीला वातावरण तैयार कर रहा था. नाथूराम गोडसे ने फाँसी के फंदे पर उसी प्रार्थना को दोहराया था जो आर एस एस के स्वयंसेवक रोज शाखा के कार्यक्रम मंा किया करते हैं.
खुद गोलवलकर जिन शब्दों में गांधी जी की हत्या के समय की परिस्थिति का बयान किया करते थे, वही परोक्ष रूप में यह साबित करता है कि इस हत्या को वे एक प्रकार से परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम मानते थे. गोलवलकर के जीवनीकार प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे के शब्दों में : ’’सम्पूर्ण देश में क्षोभ फैला हुआ था. महात्मा गांधी ने उस समय अपना मुकाम हेतुत: दिल्ली में रखा था. प्रतिदिन अपनी सायं प्रार्थना-सभा में वे लोगों को शान्ति, प्रेम एवं बनु-भावना का महत्त्व समझाते थे. भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अवश्य दें, ऐसा वे कहते थे. उसके लिए वे आमरण अनशन के लिए भी जिद किए हुए थे. इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से आहत और व्यथित लोग गांधी जी को बुरा-भला कहने लगे.
’’इनके इस प्रकार से बोलने से ही मुसलमान सिर पर चढ़ बैठे हैं. इनके वक्तव्यों से पाकिस्तान को बल मिलता है.’’ इस प्रकार की आलोचना सर्वत्र होने लगी. कुछ युवक आपे से बाहर हो गए. उनमें से एक ने 30 जनवरी, 1948 की शाम को, प्रार्थना-सभा में पिस्तौल चलाकर गांधी जी की हत्या कर दी.’’ (प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे, श्री गुरू जी, एक जीवन यज्ञ, पृ. 59)
सहस्त्रबुद्धे ने लिखा है कि गांधीजी की हत्या का समाचार सुनकर गुरू जी ने कहा था : ’’यह तो देश का बड़ा दुर्भाग्य हुआ.’’ सहस्त्रबुद्धे की यह बात किसी भी रूप में विश्वास योग्य नहीं लगती है, क्योंकि आर एस एस की शाखाओं और उसके अखबारों में ही उन दिनों गांधीजी के खिलाफ सबसे ज्यादा जहर उगला जा रहा था, इसका एक नमूना है ’’पाँचजन्य’’ में छपा निम्न कार्टून :
गांधीजी की हत्या के ठीक बाद ही इस तथ्य को अनेक लोगों ने नोट किया था कि आरएसएस के लोगों ने खुशी मनाते हुए आपसे में मिठाइयां बांटी थी. गांधीजी के निजी सचित प्यारेलाल की पुस्तक ’’महात्मा गांधी द लास्ट फेज’ के दूसरे खंड में गांधीजी की हत्या के पूरे षड़यंत्रका और उसमें आरएसएस वालों की भूमिका का विस्तार से जिक्र किया गया है. इसमें उन्होंने बताया है कि सरकार को हत्या के इस षड़यंत्र के पुख्ता सबूत मिल गये थे. पहला विफल प्रयास तो 20 जनवरी के दिन ही कर लिया गया था, जिसमें गोडसे भी शामिल था. सरदार पटेल ने इस पर गांधीजी से अनुरोध किया था कि आगे से उनकी प्रार्थना सभा में शामिल होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पुलिस तलाशी लेगी. लेकिन गांधीजी ने यह कह कर पुलिस के पहरे से इंकार कर दिया कि कि प्रार्थना सभा में जब वे खुद को ईश्वर की पूर्ण सुरक्षा के सुपुर्द कर देते हैं, उस समय उन्हें मनुष्य द्वारा दी गयी सुरक्षा मंजूर नहीं है. सरदार पटेल को गांधीजी की जिद को मानना पड़ा था. लेकिन प्यारेलाल ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जब सरकार को इस प्रकार के षड़यंत्रका पता चल गया था, तब फिर क्यों नहीं उस षड़यंत्रको पहले ही विफल कर देने के लिये अन्य स्तरों पर उचित कार्रवाइयां की गयी. इसी सिलसिले में वे आगे लिखते हैं कि सरकार की ’’यह विफलता इस बात का संकेत थी कि किस हद तक यह गंदगी (आरएसएस के विचारों की गंदगी -अ.मा.) प्रशासन की अनेक शाखाओं तक फैल चुकी थी, जिससे पुलिस भी नहीं बची थी. दरअसल, यह बाद में प्रकाश में आया कि आरएसएस के संगठन की शाखाए-प्रशाखाएं सरकारी विभागों तक में फैल चुकी थी, आम कर्मचारी तो क्या, यहां तक कि पुलिस अधिकारियों में से भी कइयों की उसके प्रति सहानुभूति थी और वे आरएसएस के कामों में शामिल लोगों की सक्रिय सहायता किया करते थे. …सरदार पटेल को हत्या के बाद एक नौजवान, जिसने खुद स्वीकारा था कि वह भी कभी आरएसएस का सदस्य था लेकिन बाद में उसका मोहभंग होगया था, से जो पत्र मिला उसमें बताया गया है कि कैसे कुछ स्थानों पर आरएसएस के सदस्यों को यह कहा गया था कि वे उस भाग्यशाली शुक्रवार के दिन ’’अच्छी खबर’ सुनने के लिये अपने रेडियो चालू रखे. खबर आने के बाद दिल्ली सहित कई स्थानों पर आरएसएस के लोगों ने आपस में मिठाइयां बांटी.’’
प्यारेलाल ने इस षड़यंत्र में नाथूराम गोडसे के साथ प्रत्यक्ष रूप से शामिल पुणे से निकलने वाले ’’हिंदू राष्ट्र’ अखबार के संपादक नारायण डी आप्टे, दिगंबर डी बेज, गोपाल गोडसे, करकरे, मदनलाल पहवा आदि के जो नाम दिये हैं, उन सबके बारे में साफ लिखा है कि ’’वे सभी हिंदू महासभा अथवा आरएसएस के सदस्य थे.’’
सहस्त्रबुद्धे ने गांधी जी की शान्ति, प्रेम की बातों तथा पाकिस्तान को 55 करोड देने की बात पर नौजवानों के जिस गुस्से की बात लिखी है, वह गुस्सा और कहीं नहीं आर एस एस के मंचों पर ही व्यक्त किया जाता था. गांधी जी की हत्या के ठीक बाद गोलवलकर ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल के नाम शोक सन्देश के तार भेजे थे, गांधी जी के परिवार के लोगों और राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के नाम उन्होंने कोई सन्देश नहीं भेजा. इसी से गोलवलकर की चालाकी का पता चलता है. गांधी जी की हत्या के बाद गोलवलकर ने सिर्फ उन लोगों के सामने ही घडियाली आँसू बहाना उचित समझा, जिनके हाथ में राज सत्ता थी तथा जिनसे उन्हें दमन की कार्रवाई का डर था. अगर ऐसा न होता तो जिस प्रकार गांधी जी की हत्या पर आर एस एस के लोगों ने मिठाइयाँ बाँटी, उसी प्रकार गोलवलकर ने नेहरू ओर पटेल को भी शोक सन्देश के बजाय मिठाई के डिब्बे ही भेजे होते !