राहुल और मायावती की स्थिति एक जैसी
Mar 7, 2012 | पाणिनि आनंदइनकी तुलना कतई हो नहीं सकती. एक नए बछड़े की तरह है तो दूसरी बूढ़े हो रहे हाथी की तरह. एक ने घर के आंगन में सत्ता की कुर्सी पर बैठकर स्कूल की ड्रेस पहनी है, दूसरी ने बरसों की मेहनत के बाद एक आंगन बनाया और वहाँ तक सत्ता की कुर्सी को खींचकर ले आई. पर उत्तर प्रदेश मे ताज़ा चुनाव परिणाम दोनों को एक जैसी स्थिति में खड़ा दिखाते हैं.
दोनों की दिक्कत और कमी एक ही है. मायावती के बारे में आप ज़रा पीछे हटकर सोचिए. एक ऐसी नेता जिसे लोगों के बीच मिनटभर भी नहीं लगता था नौकरशाहों, अफसरों को हटाने या तबादले करने में. अपराधियों और अफसरों को एक ही डंडे से हांककर चलती थीं मायावती. लोगों से संवाद था और गुहार-पीड़ा की चिट्ठियों पर कार्रवाई भी किया करती थी. ऐसी नेता से उनके वोटर को बड़ी उम्मीद थी. 2007 में जब मायावती ने सत्ता की सीढ़ी चढ़ी थी तो किसी को उनकी ऐतिहासिक जीत का अंदाज़ा नहीं था. वो जीतीं, सर्वजन हिताय का नारा दिया. सर्वजन हिताय को अपनी राजनीति का नया मंत्र बनाया. क़ानून व्यवस्था की लचर हालत से जूझते सूबे में मायावती से राहत की अपार अपेक्षाएं थीं. पर सत्ता की कुर्सी पर बैठकर मायावती जितनी मज़बूत हुईं, उतनी ही अंदर से भयभीत, आशंकित और असुरक्षाबोध से ग्रस्त भी.
मायावती को लगता रहा कि वो सुरक्षित नहीं हैं. इसीलिए किसी पर विश्वास नहीं करना. किसी से नहीं मिलना. किसी को नहीं सुनना. केवल अपनी सोच और सुरक्षा में मायावती घिरी रहीं. जिन जातियों के खिलाफ लड़ाई करते हुए उन्होंने अपनी ज़मीन तैयार की थी, उन्हीं जातियों के लोगों को उन्होंने अपने पंचमतल कार्यालय में बैठाया. मायावती को लगातार यह ग़लतफहमी रही कि वो बाकी जातियों का इस्तेमाल कर रही हैं. दरअसल, बाकी जातियां मायावती का इस्तेमाल करती रहीं. उन्हीं की कुर्सी के इर्द-गिर्द बैठकर फैसले होते रहे. काम चलता रहा. मायावती को उनका हिस्सा और पैसा मिलता रहा.
ऐसा नहीं है कि बाकी मुख्यमंत्री ऐसा नहीं करते रहे या नहीं करेंगे. पर खाने-कमाने की भूख में मायावती भूल गईं कि आम आदमी की अपेक्षाओं का किला धीरे-धीरे मंज़िल-दर-मंज़िल टूटता-बिखरता जा रहा है. पिछले बरस मायावती का रायबरेली दौरा मुझे याद है. किस तरह सड़कों से पटरीवाले उखाड़ फेंके गए थे. मायावती की अपनी बिरादरी के लोग उनकी एक झलक देखने की कोशिश में पुलिस से डंडे खा रहे थे. सचिवों, सलाहकारों की एक फौज मायावती के इर्द-गिर्द जमी हुई थी और वो जैसा दिखा रही थी, मायावती वैसा देख रही थी. दरअसल, मायावती को इस चुनाव में किसी ने हराया नहीं है. मायावती ने यह चुनाव खुद हारा है. संवादहीनता और ऐंठ ने मायावती की छवि को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाया. हाथियों, पार्कों से मायावती को नुकसान नहीं हुआ. नुकसान हुआ लोगों से कट जाने के कारण. अपेक्षाओं से भरी जनता जब अपने मुख्यमंत्री से संवाद के लिए पांच बरसों के लिए तरस जाती है तो सत्ता की कुर्सी की चूलें हिल जाती हैं.
क़ानून व्यवस्था और अपराधियों को जिस तरह से मायावती ने संभाला था, वो राज्य के लोगों के लिए एक बड़ी राहत थी. पर अपराधियों को साफ कर रही मायावती अपनी पुलिस को अपराधियों से भी बदतर बना चुकी थीं. पुलिस का मुख्य काम पैसे की उगाही रहा और वही पुलिस ने लगातार किया. लोग अपराधियों से नहीं, पुलिस से परेशान आ गए थे.
जनता से कटी मायावती के सापेक्ष खड़े दिखते हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी को चुनाव परिणामों के बाद होश आया कि उनका तो राज्य में संगठन ही नहीं है. अरे, तो इतने बरस से राज्य में क्या कर रहे थे. केवल पिकनिक मनाने से जनादेश नहीं मिलता है. यह बात राहुल को तब समझ में आई जब अखिलेश ने उन्हें अच्छी पटकनी दे दी. अब चारों खाने चित्त. राहुल गांधी की दिक्कत यह है कि वो मुर्दे को जूता पहना रहे हैं और उससे रेस जीतने की उम्मीद कर रहे हैं. उनकी स्थिति ऐसी गाय वाली है जिससे दूध नहीं निकलता पर खून ज़रूर निकलता है. यह खून उनके बदन से चिपके पिस्सू पी रहे हैं. जिन लोगों को साथ वो राज्य में काम कर रहे थे उनमें से अधिकतर राहुल को ही संगठन, राहुल को ही काम और राहुल को भी अभियान मानते हैं. आमजन के बीच न तो कांग्रेस है और न कांग्रेस का कुछ काम. तिस पर यह, कि राहुल गांधी राज्य में लोगों से वैसे ही मिल रहे थे, जैसे कि दिल्ली से बुंदेलखंड पहुंची किसी अंग्रेज़ी चैनल की कोई अभिजात्य रिपोर्टर हो. सबकुछ पहले से तय और मैनेज्ड. यहाँ जाएंगे. इसके यहाँ खाएंगे. ये खाएंगे. फिर ये कहेंगे… इस प्रबंधित यात्रा में संगठन को समझने, उसे खड़ा करने और सक्रिय करने का कोई स्कोप नहीं रह जाता है. राहुल इसी के शिकार हुए. दलित की झोपड़ी और किसान की मोटरसाइकिल वाले खेल वोट में तब्दील नहीं होते. एक सतत संवाद बहुत ज़रूरी होता है.
कांग्रेस का एक बड़ा संकट यह है कि जबतक वो राज्य स्तर पर अपना नेतृत्व नहीं खड़ा करेगी तबतक कुछ होने वाला नहीं है. कांग्रेस के कई कद्दावर नेता इसी राज्य से हुए हैं जिन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय कैबिनेट तक पद संभाले हैं और अपनी हनक, पहचान के साथ काम किया है पर राज्य में आज कांग्रेस के पास न तो सेकेंड लाइन है और न थर्ड लाइन. कार्यकर्ता के बिना पार्टी चल रही है. क्षेत्रीय नेतृत्व विहीन कांग्रेस के पास कुछ दलाल और रंगरेज हैं जो सफेद खाल को कलफ लगाकर रखते हैं और तभी पहनते हैं जब आसपास गांधी परिवार का कोई होता है. बाकी वक्त वे या तो दलाली करते हैं और या फिर आराम. पार्टी की कौन सुध लेता है. सबका एक सूत्री कार्यक्रम राहुल और सोनिया की निकटता हासिल करना है. सब के सब पटाने और सटाने की जुगत में.
मायावती और राहुल ने जितना खुद को आम लोगों से काटकर अलग रखा, समाजवादी पार्टी ने उतना ही लोगों को करीब से जाकर देखा, पकड़ा और साथ लिया. पिछले 3 साल से समाजवादी पार्टी ने जो मेहनत की और पिछले 20 महीनों में जिस सक्रियता के साथ वे लोगों से मिले, उसी का नतीजा है कि समाजवादी पार्टी राज्य के असंतुष्ट और संवादहीन हो चले वोटर को अपनी झोली में समेट सकी. ज़रा गौर से देखिए, समाजवादी पार्टी के पास राज्य को देने के लिए कुछ भी खास नहीं है. झोली में कुछ पुराने वादे हैं और पार्टी में अपराधियों, माफिया, दबंगों, व्यापारियों और धंधेबाज़ों की एक पूरी भीड़ है जो रक्तपिपासू है, भूखी है. खून की होली खेलने को तैयार है. बदले लेने के लिए तत्पर बैठी है. बंदूकों की नलियां साफ कर रही है. गुंडई सड़कों पर उतर रही है. अखिलेश ने कहा है कि अपराधियों को रोकेंगे पर ऐसा उनकी पार्टी ने कब नहीं कहा था और कब ऐसा सुनिश्चित कर पाए. जिस तरह के औद्योगिक घराने, व्यापारी और अपराधी समाजवादी पार्टी की जीत से सबसे ज़्यादा प्रफुल्लित हैं, वो राज्य का अगले कुछ समय में क्या हाल करने वाले हैं, इसका लोगों को अभी अंदाज़ा भी नहीं है.
उत्तर प्रदेश के मतदाता ने अपनी फरियाद सुनने वाले नेता को खोजते खोजते जिसे अपने बीच पाया, जिससे वो अपना दुखड़ा कह पाया, उसे ही चुन लिया. अफसोस, यह दुखड़ा सुनने के लिए न तो हाथी के कान आगे आए और इनको ढांढस बंधाने के लिए न ही कोई हाथ आगे बढ़ा. जनता से कटे हुए राहुल और मायावती सत्ता की संभावनाओं और स्थायित्व से भी कट गए.