(नर्मदा नदी, परियोजनाएं और बांध, बाढ़ और डूब, विस्थापन और मुआवज़े, संसाधन और विकास, राजनीति और अपराध… ऐसे कितने ही मोर्चे और पहलू हैं नर्मदा के इर्द-गिर्द, किनारों पर सिर उठाए हुए. इनका जवाब खोजने वाले भोपाल और दिल्ली में अपनी-अपनी कहानियां कहते नज़र आ रहे हैं. एक ओर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के इशारे पर नाचती सरकारें हैं तो एक ओर अस्सी से चलकर एक सौ दस, बस- जैसे नारे हैं. इन नारों के बीच लोगों की त्रासद और अभावों की अंतहीन कथा है… नर्मदा के बांधों से भी ज़्यादा फैली और गहरी. इस कथा के कई अनकहे-अनखुले और अनदेखे पहलुओं पर रौशनी डाल रही है अभिषेक श्रीवास्तव की यह विशेष श्रंखला. आज पढ़िए इसकी तीसरी कड़ी- प्रतिरोध ब्यूरो)
हमने अपने अखबारी जीव से जानना चाहा कि इस गांव की दिक्कत क्या है. उसने बताया कि यहां शुरू में सब ठीक था, लेकिन बाद में नर्मदा बांध प्राधिकरण के किसी सीईओ और बीजेपी विधायक की साठगांठ से लोग बंटते चले गए. इसके अलावा डूब से सबसे ज्यादा अगर किसी गांव को खतरा है तो वो बढ़खलिया ही है, लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना ये है कि यहां के जल सत्याग्रह की खबर कहीं नहीं छपी. जिन्होंने आंदोलन करवाया, उन्हीं ने पुलिस का डर दिखा कर तुड़वा दिया. सबसे बड़े अफसोस की बात तो ये है कि जब गांव में पानी आने लगा तब लोगों को पता चला कि यह गांव भी डूबने वाला है जबकि यह बात हरसूद के डूबने के वक्त से ही साफ थी. पहली बार उसने चैंकाने वाली बात कही, ‘‘सर, सारी लड़ाई दो मीटर की है. अब इसी में किसी को 219 रुपए का चेक मिल जाता है तो कोई दोहरा मुआवजा लेने की कोशिश करता है.’’ दोहरा मुआवजा? मतलब? उसने सपाट चेहरे से कहा, ‘‘कई लोग हैं जिन्होंने अपनी जमीन डूबने के बाद उन जगहों पर ज़मीन खरीद ली जो बाद में डूबने वाली थीं. इससे उन्हें दो जगह का मुआवज़ा मिल गया. पानी में खड़े कई लोग इनमें से हैं.’’
वहां से निकलते वक्त सोया के खेतों के बीच बियाबान में एक दुमंजि़ले मकान में लगे दो एयरकंडीशनर देख कर हमारी बची-खुची ज़बान भी बंद हो गई. खरदना से हम बहसते निकले थे. बड़खलिया ने हमें गहरी सोच में धकेल दिया. यात्रा की असली चमक हालांकि अभी 30 किलोमीटर आगे थी. नया हरसूद, जहां हमारे साथी को श्राद्ध के लिए जाना था.
स्टेट हाइवे से नया हरसूद बिल्कुल किसी औद्योगिक नगरी की तरह चमक रहा था. जैसे ट्रेन में रात में टिमटिमाती बत्तियां अचानक दीख जाती हैं. चारों ओर बिल्कुल सन्नाटा था. घुप्प अंधेरा. और दूर बत्तियों की कतार, जिनकी ओर हम तेज़ी से बढ़े जा रहे थे. हवा ठंडी थी. मौसम शांत. अचानक लगा कि जंगल के बीच किसी ने ‘विकास’ को लाकर रख दिया हो. यह नया हरसूद था. पक्की सड़कें. दोनों ओर दुकानें. पक्के मकान. पूर्वांचल के किसी भी मध्यम कहे जा सकने वाले शहर से बेहतर तरतीब में गढ़ा हुआ एक ‘पुनर्वास स्थल’. इतना व्यवस्थित तो खंडवा शहर भी नहीं था. शहर में प्रवेश करने के करीब आधा किलोमीटर बाद एक चौराहा पड़ा. नाम देख कर नज़रें ठिठक गईं- भगत सिंह चौक. सड़कों पर सन्नाटा था. दोनों ओर एकाध दुकानें खुली हुई थीं. हमारा युवा साथी किसी को फोन कर के दवा की दुकान पर बुला रहा था. अचानक उसने गाड़ी रुकवाई. दाहिने हाथ पर सड़क पार एक दवा की दुकान थी जहां से एक अधेड़ वय के सज्जन सफेद सफारी सूट में चले आ रहे थे. ‘‘ये मेरे अंकल हैं’’, उसने मिलवाया. उसने बताया कि उसे पत्रकारिता में लाने का श्रेय इन्हीं को जाता है. वो बचपन में इन्हीं की एजेंसी के अखबार बांटा करता था. श्राद्ध कार्यक्रम उनकी पत्नी का था जहां उसे जाना था. हालचाल और अगली बार मिलने के औपचारिक आश्वासन के बाद हम निकलने लगे तो अखबारी जीव ने कहा, ‘‘सर, ओंकारेश्वर जाना मत भूलिएगा. मैं वहां फोन कर देता हूं. हमारा रिपोर्टर आपको अच्छे से दर्शन करवा देगा.’’ मैंने उसे गले लगाया, उसके अंकल को हमने नमस्कार किया और आगे बढ़ गए.
दर्शन वाली बात में हम अटक गए थे, या कहें पिछली रात से ही अटके हुए थे. दरअसल,बढ़खलिया से यहां के रास्ते में उसने नया हरसूद के बारे में काफी जानकारी दी थी. मसलन,उसके पिता को यहां हर कोई जानता है. अपनी बिरादरी में सबसे ज्यादा वही पढ़ा लिखा है. हरसूद डूबने के बाद मछुआरे यहां से गायब हो गए हैं. कभी यहां हरसूद से उजड़ कर पचीस हजार लोग आए थे, लेकिन अब आबादी सिर्फ दस हजार रह गई है. उसकी सारी सूचनाएं टूटी-फूटी और असम्बद्ध थीं, लेकिन उसके भीतर हरसूद नहीं बल्कि इस नए शहर को लेकर नॉस्टेल्जिया ज्यादा था. मान लें कि उसकी उम्र 22 साल भी रही होगी, तो बचपन के 14 साल उसने पुराने हरसूद में ज़रूर गुज़ारे होंगे. फिर उसकी स्मृति में उस हरसूद से जुड़ा कुछ भी क्यों नहीं था? हमने उससे देसी मुर्गा खिलाने का आग्रह किया, तो उसने मुंह बिचका दिया. वह शुद्ध शाकाहारी निकला. उसका शाकाहार खाने तक सीमित होता तो ठीक था लेकिन बातचीत के दौरान उसकी राजनीतिक पसंद में जब यह अचानक ज़ाहिर हुआ तो हम ज़रा चौंके थे, ‘‘सर,आइ लाइक नरेंद्र मोदी’’. राहुल ने बेचैन होकर उसके पिता और भाई का नाम पूछ डाला. ‘‘सर,फादर का नाम हनीफ भाई तांगे वाला है और भाई का नाम इकराम है. वे ऑटो चलाते हैं.’’हमारी शहरी धारणाएं टूट चुकी थीं. उधर वो श्राद्ध तर्पण कर रहा था.
यही सब गुनते-बतियाते हम खंडवा की ओर निकल पड़े. काफी रात हो चुकी थी. नए हरसूद से बाहर निकलने के रास्ते में कम से चार जगह एक ही बोर्ड लगा दिखा जिन पर लिखा था-‘स्कॉच’. ड्राइवर ने बताया उस जगह का नाम छनेरा था. हरसूद उजड़ने के बाद यहां जिस तेजी से सामाजिक ताना-बाना टूटा है, नए हरसूद में उस खाली जगह को यही ‘स्कॉच’ भर रही है. हमारे पीछे छूट गए साथी ने भी बताया था कि कैसे यह समूचा शहर मुकदमों की दास्तान है. हरसूद से जब लोग नया हरसूद आए थे, उसके बाद जमीन-जायदाद से जुड़े मुकदमों की बाढ़ आ गई. आज की तारीख में करीब 25000 याचिकाएं लंबित पड़ी हैं और दो इंसानों के बीच एक हलफनामे का रिश्ता शेष रह गया है.
हम वापस हाइवे पर आ गए. ठंडी हवा में ओवरलोड दिमाग लहर मार रहा था. सोने के लिए घंटे कम थे क्योंकि अगले ही दिन ‘दर्शन’ के लिए तड़के निकलना था. खंडवा में होटल पहुंचकर हमने ड्राइवर को सवेरे साढ़े छह बजे वापस आने की हिदायत दी और पूरा रूट मैप उसे समझा दिया. वह भी खुश था कि हमारे बहाने उसे ‘दर्शन’ हो जाएंगे. (क्रमश:)
(यह सिरीज़ पांच किस्तों में है. शेष दो कड़ियां अगले कुछ दिनों में. अपनी प्रतिक्रियाएं ज़रूर भेजें)