इन्हें पहचानिए, ये सारे हमाम में नंगे हैं
Jan 4, 2012 | Panini Anandबीते बरस लोकपाल के नाम पर राजनीतिक घाघों का गंदा, घृणित खेल आपने देखा. अराजनीतिक मूर्खताओं का प्रबंधित मंचन भी. ठीक वैसे ही इन दोनों के खेलों का मचंन हुआ जैसा हुआ करता था उस मदारी के जादुई खेल का, जो 10 के नोट को गड्डी में बदलने, किसी बच्चे की गर्दन काटकर कपाल पर दो-चार बूंद लाल रंग और सल्फर के धुंए के सहारे आपको बांधे रखता था, अपनी अंगूठी बेंचकर चलता बनता था. इन खेलों के चक्कर में कितने ही तमाशबीन किसी सार्थक नतीजे की आस में मुर्ख बनते थे. ठगे जाते थे. पिछले नौ महीनों के दौरान देश में यही खेल चल रहा है. ताक-धिन, ताक-धिन, ताक धिन…धा.
इन खेलों का सबसे बड़ा और धूर्त खिलाड़ी है सत्तासीन सुअर, जिसने तय कर रखा है कि गंदगी के अलावा और कुछ नहीं फैलाएगा. जो समझता है कि शातिर चालों के तारों से बिनी ओढ़नी पहनकर किसी को भी ठगा जा सकता है, किसी को भी नंगा किया जा सकता है, किसी को भी मात दी जा सकती है. 121 करोड़ को मूर्ख बनाया जा सकता है और सुखपूर्वक शासन किया जा सकता है. संविधान और संवैधानिक संस्था की मर्यादा की दुहाई देने वाले इन लोगों ने संसदीय मर्यादा का सबसे पहले गला तब घोंटा जब इन्होंने स्वनामधन्य सिविल सोसाइटी के लोगों के साथ एक संयुक्त समिति के गठन की घोषणा की. कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव थे और ये समिति उन चुनावों के सोडा का फिज़ निकालने वाला सबसे सही ओपेनर. पाँच अप्रैल को शुरू हुए तहरीर चौक टाइप आंदोलन को संभालने के लिए यह एक बढ़िया शैली थी.
इसके बाद एक निहायत भ्रष्ट और सांप्रदायिक बाबा ने अपने चोरों और चेलों की टोली से दिल्ली में फ्लैग मार्च करवाया. उस बाबा के साथ भी इस धूर्त चंडाल-चौकड़ी ने कई खेल खेले. हवाईअड्डे पर रिसीव किया. फिर एक हथियार व्यापारी के होटल ले गए. कुछ समझौते किए और पर्चे पर साइन कराए. इसके बाद उस बाबा को टीवी पर पूरी टीआरपी दिलाई. उसका तमाशा चलने दिया और शाम होते-होते तमाशे का जनाज़ा भी निकाल दिया. रात को इस जनाज़े का शव रफा-दफा करने के लिए डंडा चलाने से भी नहीं चूके.
फड़फड़ाते अन्ना फिर से मैदान में लौटे. राजघाट, तिहाड़, रामलीला मैदान, हर ओर नाटक पसरा रहा. बिना बात बापू की समाधि पर फोटो ऑप नाटक चला. बिसलेरी और सैंडविच, पॉपकॉर्न, निम्बूज़ मार्का मोबलाइजेशन. बिना गिरफ्तारी के जेल गए. जेल भी क्या गए, बिना जेल गए ही केवल परिसर से बाहर न निकलने की हठ के दम पर जेल जाने का तमगा जीत लिया. जेल भेजने वालों ने ही दिल्ली में मंच सजाकर दिया. मैदान तैयार करके दिया. सारी वैधताएं और अर्हताएं मिनटों में ग़लत से सही हो गईं. बातें फिर चलीं. एक ओ नाटक, दूसरी ओर नाटक. एक ओर भ्रमित, अराजनीतिक और इस्तेमाल होता जा रहा जन आंदोलन, दूसरी ओर एक बड़ी सुनियोजित लकड़बग्घे वाली चाल. नॉनसेंस हो चली राजनीति के सेंन्स ऑफ़ हाउस का तुरंत राहत देने वाला इनो छाप चूरन. अन्ना जीत गए. त्याग की मूर्त को राजनीति के त्यागपुरुष ने खुद हाथों से जाकर पत्र दिया. दलित और मुस्लिम लड़की के हाथ से पानी पीकर मेदांता में चेकउप कराने जा पहुंचा गांधी-इन-वेटिंग और उधर सरकार ने कहा कि शीतकालीन सत्र में हम लोकपाल ले आएंगे.
इस दौरान कई घटनाएं होती रहीं. देश में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या ढाई लाख हो गई. एफडीआई को रिटेल क्षेत्र में लाने की पूरी तैयारी हो गई. कुदानकुलम में परमाणु रिएक्टरों का विरोध कर रहे 1000 लोगों के खिलाफ राजद्रोह जैसी धाराओं के साथ मामले दर्ज कर लिए गए. सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर ठूंसे गए. मानवाधिकार कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव के घर पर छापेमारी हुई. फोरबिसगंज में अल्पसंख्यकों को पुलिस ने हद के कहीं आगे की बर्बरता के साथ मारा. भरतपुर में पुलिस और कुछ उग्र-हिंदुत्ववादियों ने मस्जिद में मौत का तांडव दिखाया. मारूति और हीरो समूह के श्रमिक संघर्ष करते रहे. एरोम बिना रोटी-खाना खाए सत्याग्रह करती रही, कश्मीर में मिलते रहे शव जिनके बारे में किसी के पास कोई जवाब ही नहीं है, मानो मोहनजोदाड़ो के काल के हैं और इस जम्हूरियत से उनका कोई ताल्लुक न था और न साबित किया जा सकता है. जैतापुर में किसान मार खाता रहा. पंजाब में समर्थन मूल्य के लिए रोता रहा. छत्तीसगढ़ में पुलिस बर्बरता का शिकार बनते रहे आदिवासी. विस्थापित किसान जाड़े के मौसम से पहले सरकार से घर और ज़मीन मिलने की आस में अबतक आसमान की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं, राजस्थान में खनन इतना तेज़ है कि आने वाले दिनों में कई बेल्लारी दिखाई देंगे. इस माफिया से लड़ने की हिम्मत तक जुटाना मौत को दावत देने के बराबर है. वार्ता के नाम पर छलपूर्वक किशनजी को मारा गया, उन दावों के बीच, जहाँ कोई मिट्टी का राजकुमार मंच से कहता है कि माओवाद से लड़ने के लिए लोकतांत्रिक तरीके अपनाने होंगे. खाद्य सुरक्षा, शिकायत निवारण, व्हिसिल ब्लोवर्स प्रोटेक्शन, न्यूक्लियर सेफटी एंड प्रोटेक्शन, कॉर्पोरेट एकाउंटेबिलिटी जैसे कुछ मुद्दे सेमिनारों में, चर्चाओं में आए पर सत्ता और मुख्यधारा की मीडिया के रडार से बहुत दूर ही रहे. न तो देश में पलायन संभल रहा है और न ही भूख से मौतों का सिलसिला रुका है. संसाधनों की लूट पर सरकार और उग्र होकर सामने आई है. कितने ही समाजसेवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में यातनाएं झेल रहे हैं. उन्हें जनसमर्थन की तत्काल आवश्यकता है. महंगाई की टीस लोगों के बीच सबसे ज़्यादा है पर इसपर बोलते-कहने वाला कोई नहीं है. पिछले दो वर्षों में जो घोटाले इस देश में हुए हैं, उनको कोई याद नहीं कर रहा. न 2-जी कहीं दिख रहा है और न कॉमनवेल्थ घोटाला. एक ऐसा दौर, जब इस देश में और दुनिया में आर्थिक संकट और बुरी सूरत में वापस आता दिख रहा है, कोई न तो वर्तमान आर्थिक नीतियों पर सवाल खड़े कर पा रहा है और न ही इसके विकल्पों को पटल पर ला पा रहा है. ऐसे तमाम मुद्दे, जो मेरी नज़र में ज़्यादा ज्वलंत और गंभीर है, किसी कोने में फेंक दिए गए हैं. केवल एक लाइन के इर्द-गिर्द हूतूतूतू का खेल जारी है. बाकी मुद्दे बहुत सुनियोजित ढंग से छिपा दिए गए हैं… सीलनभरी गंदी कार्पेटों के नीचे और रद्दी की टोकरियों में.
अफसोस, ऐसा कुछ भी किसी को भी नहीं दिखा. सबको दिखा लोकतंत्र के सिर पर केवल एक बाल- लोकपाल. किसी भी सरकार के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि असल मुद्दे सवालों की सूची से ही गायब हो जाएं. न तो छपें और न ही दिखाए जाएं. बहस के केंद्र में एक भावी क़ानून का बिंब हो. लड़ाई हिंसक होती दिखाई दे पर असल में हिंसक न हो. सब कुछ डब्ल्युडब्ल्युएफ की रेसलिंग जैसा हो जाए. दो लोग आमने सामने हैं. लंगोट कसी हुई है. झंडा फहर रहा है. खेल चालू है. लोग अपने काम भूलकर कुश्ती देख रहे हैं. कुश्ती लड़ने वाले प्राण को और प्रतिष्ठा को दांव पर लगाए हुए हैं. लोग उसे असल संघर्ष मान रहे हैं जहाँ खेल खत्म होने के बाद हाथ मिलाकर विदा लेने की परंपरा है.
इस खेल के कई मोर्चे थे. पहला मोर्चा था अन्ना का आंदोलन जो कि पहले दिन से भ्रमित रहा. रही-सही कसर उनके राजनीतिक परामर्शदाताओं, मानकों, विचारकों, हितैषियों ने पूरी कर दी. कुछ इसमें सांप्रदायिक छौंक लगाते रहे, कुछ इसमें चारण-भाटगिरी करते रहे. रामदेव से लेकर भागवत तक, सब के सब इसके साथ. बाकी तो देश का बम-बम बोलता कॉर्पोरेट मीडिया, जो किसी को भी रातोंरात मिस इंडिया बनाने का माद्दा रखता है और किसी को भी सरे-शहर गायब करने की शातिर काबिलियत रखता है. सो दिमाग खराब होना था, अति विश्वास आना था और पूर्वाग्रही होना था… ऐसा हुआ भी.
दूसरा मोर्चा सत्ता का जो पहले दिन से स्पष्ट थी कि उसे लोकपाल नहीं लाना है. लोकहित का लोकपाल तो कतई नहीं लाना है. अन्ना एक तानाशाह लोकपाल की बात करते रहे, सरकार एक गड्ड-मड्ड और मूर्खतापूर्ण लोकपाल लेकर मैदान में उतरी. उपकार यह किया कि शिकायत निवारण को इससे अलग कर दिया. न्यायपालिका में जवाबदेही वाले मुद्दे को भी इससे बाहर रखा पर सीबीआई से लेकर राज्यों में लोकायुक्त तक और भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले को घेरने से लेकर अफसरशाही को बचाने तक के सारे रास्ते इसी एक दस्तावेज में. सारा दांव यह कि लोकसभा में अपनी संख्या है. वहाँ पास करा लेंगे. राज्यसभा में गिरेगा… गिरने देंगे. इससे अपनी जनता के प्रति ईमानदारी भी स्थापित होगी और विपक्ष पर आरोप भी लग जाएगा कि उनके चलते लोकपाल पास नहीं हुआ. पर अन्ना मंडली द्वारा प्रस्तावित जिस लोकपाल के आकार, विस्तार को लेकर सबसे ज़्यादा चिंता थी, उससे कहीं बड़ा और फैला-पसरा लोकपाल सरकार ने तैयार किया. शिकायतकर्ता पर सज़ा का प्रावधान और जिसकी शिकायत हो, उसके बचाव में सरकारी वकील. लाखों लाख मंदिरों, मदरसों और गिरजों के ठेकेदार भी इसक अंतर्गत. विस्तार इतना कि अपनी नेम प्लेट के नीचे ही लोकपाल दब कर मर जाए. कुछ सदाश्रयी संगठनों के द्वारा सरकार को सुझाव भी दिए जाते रहे. पर सरकार ने लोकपाल के मसले में उनको भी ठगने में कोई कसर नहीं छोड़ी. ऐसे संगठनों का भी संकट यह है कि उनको भी सत्ता के साथ बैठकर सुधार की सीढ़ी बनाने के अलावा और कोई लड़ाई का रास्ता फिलहाल नहीं दिख रहा है. और सच्चाई यह है कि सरकार के लिए ऐसे सदाश्रयी गंदी नीयत को वैधता प्रदान करने का चोंगा बन जाते हैं.
पर केवल सत्तासीन कांग्रेस ही क्यों, लगभग सारे राजनीतिक दल यही चाहते हैं और चाहते रहे कि लोकपाल पास न हो. किसी भी कीमत पर. कतई नहीं. न सपा, न बसपा, न राजद, न बीजद, न तृणमूल, न शरद पवार. सरकार की सबसे बड़ी मदद तो भाजपा खुद करती रही. टीम अन्ना की पीठ थपथपाती रही ताकि वो सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का काम जारी रखे. सरकार के साथ गुपचुप बातें बनाती रही ताकि लोकपाल को किसी भी कीमत पर न आने दिया जाए. नाटक यह कि हम तो उत्तराखंड में ले आए हैं पर असलियत यह कि उत्तराखंड का लोकपाल विधेयक मूर्खताओं की पोटली है और उसका पूरा नियंत्रण सरकार के हाथ में है. सदन में दिसंबर के आखिरी हफ्ते में लोकपाल पर बहस और मतदान के दौरान जो कुछ हुआ वो दुर्भाग्यपूर्ण है. पर दुर्भाग्यपूर्ण आपके और हमारे लिए, राजनीतिक दलों के लिए तो यह एक तयशुदा रंगकर्म था जिसे पक्ष और विपक्ष ने मिलकर निर्देशित किया था.
कांग्रेस से ज़्यादा मलाई इस लड़ाई में भाजपा के हाथ लगी. उन्होंने अन्ना का लाभ पहले दिन से उठाया. उससे अपने संबंधों के संकेत लगातार देते रहे और फिर खुलकर कहने भी लगे कि देखो, हमने इसे कामयाब बनाया है. इस आंदोलन के लिए ईधन, संसाधन जुटाने में उनकी भूमिका भी रही. जो लोग उनपर विश्वास करके सड़कों पर न उतरते, उनको अन्ना की छतरी के नीचे एकत्र किया जा सकता था. भाजपा के लिए यह एक विन-विन सेचुएशन थी. राज्यसभा में जब इस बिल का गर्भपात हो रहा था, तब भी भाजपा के शेखचिल्ली अपनी पीठ थपथपाते हुए बाहर निकल रहे थे और मीडिया के सामने हीरो बन रहे थे. दरअसल, यही भाजपा का चरित्र और स्वभाव भी है. खुद जिन लड़ाइयों से इनका न तो कोई सरोकार रहता है और न ही ये उसके सूत्रधार होते हैं, उनको हाईजैक करना और उसकी मलाई उड़ाना ही भाजपा की राजनीति का मूल है. आपातकाल से लेकर अन्ना के आंदोलन तक भाजपा ने यही किया है कि जो उनका अपना दिया हुआ नहीं है, उसमें हिस्सेदारी, उसपर दावेदारी और उसका श्रेय लेने का कोई अवसर भाजपा नहीं चूकती. अन्ना के आंदोलन से भी देश में जो माहौल तैयार हुआ है उसका लाभ लूटने के लिए सबसे आगे भाजपा खड़ी है. राजनीतिक विपक्ष में ऐसा कोई और दल नहीं है, जिसे इसका लाभ होगा. लोकपाल चुनावों के परिणामों में कितना निर्णायक होगा या इसे कितनी गंभीरता से लें, यह एक अलग प्रश्न है पर जितना भी होगा, श्रेय भाजपा ही लूटेगी. उत्तराखंड में लोकपाल लाना, मोदी का उपवास पर बैठना, आडवाणी की रथयात्रा इसी नीले सियार के खेल हैं कि कैसे उस रंग और ढंग में ढल जाएं, जिसको जनता सिर माथे पर लिए चल रही है.
बहुत दुख होता है जब पलटकर दिखाई देता है इन नौ महीनों के दौरान लोगों का ठगा जाना. ये समय इस देश के लिए निर्णायक समय था. इसमें जनसंघर्षों से कुछ चीज़ें बदल सकती थीं, कुछ मद्दों पर हम और मज़बूत हो सकते थे. पर एक व्यापक और शातिर प्रबंधन ने अकविता को महाकाव्य का ठप्पा लगाकर बेंच दिया. उसका बाज़ार तान दिया और उसे हिट घोषित कर दिया.
लोगों को इस खेल का तीसरा अध्याय खत्म होने के बाद अब संभल जाना चाहिए. हमें उन लड़ाइयों की ओर वापस पलटकर देखना ही होगा जो ज्यादा व्यवहारिक, ज़मीनी और ईमानदारी के साथ भ्रष्टाचार को समझ रहे हैं, उससे जूझ रहे हैं, उसके खिलाफ संघर्षरत हैं. उन जनांदोलनों का बाजू बनना होगा जो संसाधनों की लूट और निजीकरण के रास्ते भ्रष्टाचार को संसद और सरकार के दायरे से बहुत ऊपर ले जा चुका है और जिसने देश के संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न गुण को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में नीलाम करने के लिए रख दिया है. उन लोगों की ताकत बनना होगा जो 1947 से अबतक न तो नागरिक होने का अधिकार पा सके हैं और न इंसान होने का एहसास. जिन्हें उपेक्षाओं ने पाला है और जो अभावों संग ब्याह दिए गए हैं. उन पैरों को मज़बूत करना होगा जिनके लिए इस देश में पुलिस, क़ानून, प्रशासन और कचेहरी का मतलब केवल भेडिया है. एक ऐसा भेड़िया जो रोज़ उनसे बोटी का एक टूकड़ा खींचकर ले जाता है और बागी होने पर पूरा निगल जाता है. उन विचारधाराओं की ओर देखने की ज़रूरत है जो अराजनीतिक और विकल्पहीन या किसी आदर्शवादी गांधीवादी बीमारी से ग्रस्त न होकर सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक क्रांति के साथ खड़ी होने वाली राजनीतिक लड़ाई के लिए वचनबद्ध हैं और प्रयासरत हैं. अराजनीतिक लड़ाइयों के ज़रिए न तो मिस्र में कुछ बदला है, न ईरान में कुछ बदलेगा और न ही भारत में. अपनी लड़ाई की ज़मीन को पहचानिए. उसकी मिट्टी और चुनौतियों को समझिए. उसमें सिर उठाते सवालों को देखिए और अपनी कमर कसिए.