इंतज़ार करती एक मां का खामोश हो जाना
May 9, 2012 | पाणिनि आनंदसोनी सोरी की मां नहीं रहीं. जोगी कुंजाम अभी 55 बरस की ही थीं. मरने की उम्र नहीं थी पर मौत उम्र की पाबंद कहां होती है. एक माँ, जो इंतज़ार करती रही अपनी बेटी के साथ हो रहे अन्याय और यातनाओं के अंत का, चल बसी.
एक मां, जो देखना चाहती थी वापस स्कूल से लौटती अपनी बेटी को, उसके तीनों बच्चों को, अपने हंसते-खेलते परिवार को, पथराई आंखों और सूखती देह में इंतज़ार का दम और बाकी नहीं रह गया था और पिछले दिनों उनकी मृत्यु हो गई.
सोनी सोरी के दो बच्चे हॉस्टल में हैं. तीसरा और सबसे छोटा छह बरस का बच्चा, जो मां से मिलने को तड़प रहा है और जेल के सीखचों के पीछे से जिसका मुंह देखने के लिए मां तड़प रही है, उस बच्चे के पास साये के नाम पर बस नानी का आंचल था. आंचल कफ़न हो गया और जोगी कुंजाम ने प्राण त्याग दिए.
जोगी कुंजाम को लोग नहीं जानते. क्योंकि न तो वो किसी गांधी की मां है, न अंबानी की. पर एक मां है. कम पढ़ी लिखी लेकिन एक अच्छे राजनीतिक-सामाजिक रूप से मजबूत परिवार से आने वाली महिला. जो आखिर तक अपनी बेटी के संघर्ष को हौसला देती रही. जिसने आखिर तक सोनी सोरी के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ़ अपनी हिम्मत नहीं खोई.
जोगी कुंजाम के चार बच्चे हैं. सबसे बड़ा बेटा सहदेव सोरी ब्लाक पंचायत का अध्यक्ष रहा है. दूसरे नंबर पर है एक जागरूक बेटी जो स्कूल में पढ़ाने का काम करती थी. आजकल जेल के सीखचों के पीछे बलात्कार से भी घृणित शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेल रही है. बाकी के दो बेटे महादेव सोरी और रामदेव सोरी हैं. खेती किसानी से वास्ता है.
इसी साल जोगी कुंजाम के भाई बेलाराम कुंजाम की भी मौत हो गई. वो इलाके में कांग्रेस के एक बड़े नेता रहे हैं. देवर नंदाराम सोरी सीपीआई के टिकट पर जीतकर विधायक भी रहे हैं.
ऐसे राजनीतिक सामाजिक पृष्ठभूमि वाले परिवार की पहचान आज एक ऐसी बेटी के कारण हो रही है जो पुलिस और राजसत्ता की बर्बरता की शिकार है और जिसके जननांगों में ठूंसे गए पत्थरों से भी शासन-प्रशासन का दिल नहीं पसीज रहा.
इस दर्द को सोनी सोरी की मां से ज़्यादा और कौन समझ सकता है. तभी तो उन्होंने कहा भी था कि जिसने उनकी बेटी का साथ ऐसा कुकृत्य किया है उसने अपनी मां की कोख को लजा दिया है. क्या वो किसी और रास्ते से दुनिया में आया था.
इस सुलगती आंखों और भर्राए गले वाली महिला का शरीर शोषण और उत्पीड़न की इस स्थिति को बर्दाश्त नहीं कर सका. सोनी सोरी की मां नहीं रही. यह एक महिला के मर जाने भर की ही तो खबर भी. ऐसी कितनी ही रोज़ मरती हैं. इसीलिए शायद पूरे मीडिया ने एकबार आंख उठाकर भी इस खबर पर नज़र नहीं डाली.
पर सोनी सोरी की मां मरी नहीं, मारी गई. बेवक़्त. बेगुनाही की सज़ा भुगतते हुए. ऐसी परिस्थितियां पैदा की गईं कि उसे मरना पड़ा. जब शरीर से प्राण निकले तो सुकून नहीं, बेचैनी के साथ. इस दुविधा के साथ कि उनके पीछे उनकी बेटी का क्या होगा. कितनी बार और उनकी बेटी पुलिस और शासन की ज़्यादतियों, उत्पीड़नों, प्रताड़नाओं का शिकार बनेंगी.
फिर सोनी सोरी की मां अकेली मां नहीं है. इसकी एक झलक हज़ार चौरासी की मां में भी दिखती है और एक कॉमरेड चंद्रशेखर की मां में भी. अन्याय के खिलाफ़ लड़ने वालों की मां का कलेजा कैसा होता है, ज़रा सोचिएगा.