नए बरस के मुहाने पर खड़े जनसंघर्षों को समर्पित एक कविता
Jan 5, 2012 | Panini Anandनए साल की दहलीज पर हम सब खड़े हैं. यहाँ से वो सारे सवाल, जिनके लिए हम सब लड़ रहे हैं या जिनकी लड़ाइयों में साथ खड़े हैं, उन्हें सही मानते हैं, हमें आवाज़ दे रही हैं. सत्ता और शिखंड़ियों के खेल में पूरा एक साल निकल गया. हाथ में मोर के पंख भी नहीं आए और नाच पूरे बाज़ार सरेआम हुआ. अब वक्त है कि हम संभलें और अपने मोर्चों को, ज़रूरतों को, सत्ता और समाजी खिलाड़ियों की चालों को समझते हुए अपनी तैयारी करें.
बीते बरस पर एक कविता लिखी थी. आप लोगों के समक्ष रख रहा हूं
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बीता बरस
मदारी ने दरवाजे पर नाच दिखाया
बहू ने देवर से मिलाई आंख
और बनिए ने खेल में तमाकू बेंचकर
कोठी बना ली.
आओ, लौट चलें
वापस उन मोर्चों पर
जहां खड़े हैं असली सवाल
हमारी आवाज़ का इंतज़ार करते हुए.
लौट चलो
इससे पहले कि तमाशा
जेब काट ले
और बाज़ार गला
सत्ता जब सनक जाती है
तो बधिया कर देती है
माओ की मोहर माथे पर चिपकाकर
गुप्तांगों में पत्थर डाल देती है
वहाँ,
ज़रूरत है हमारी
वहाँ, हमारी लड़ाई बाकी है
वहाँ, हम संघर्ष के सिपाही हैं
संघर्षरत की शक्ति भी,
वहाँ चलो
वहाँ चलो
जहाँ उथले सवालों से
टीवी के जरिए रचे बवालों से
किसी के झंडे से, किसी के गालों से
खादी के कुर्तों से, समाजी दलालों से
हम दूर,
अपनी तैयारी को मज़बूत करें
पुख्ता करें
पिघलने न दें.
आंखों की सुर्खी, और
सीने की दहक को,
क्रांति का लावा बनाओ मेरे दोस्तों.
खीर के पतीलों के नीचे मरने से अच्छा है
उस घर को जला देना
जिसकी दीवारों का गारा
इंसानी खून से बनाया गया है
जिसमें भूख को ज़िंदा रखने के लिए
अनाज का हवन किया जाता है
जिसमें क़ानून की देवी किसी धृतराष्ट्र के लिए
सारी ज़िंदगी
आंखों पर पट्टी बांधने को विवश है
क़ानून एक खौलते तेल का कड़ाह है
पूड़ियों की जगह पेट छाने जा रहे हैं
और
कविता लिखना राजद्रोह है
ऐसे घर को जला दें, चलो.
इंसानियत कोई दो पैसे की कंघी नहीं
जिससे संवारकर बाल
आप मंच पर बैठ जाएं
या जा बैठें सदन में
सबसे बड़े नामवर हो जाएं.
पगड़ी नीलाम कर,
पगड़ी पहनना
और सफेद टोपी को
शिषंडी बना लेना
सियासत के पुराने दांव हैं
जिसे खेल रहा है सत्ता का सरदार
और गांधी का बंदर
मगर दहेज में मिली ढफली से
बिरहा नहीं बजता.
न ही संग्रहालयों से
पहनकर पोशाकें, योद्धा निकलते हैं
भगवा ओढ़ने से कोई विवेकानंद बनता
तो, कपालभाती का जादूगर
सैकड़ों करोड़ का नहीं, शून्य का मालिक होता
हम
इस कदर घेरे जा चुके हैं
कि सांस से लेकर देह के हर ज़र्रे तक
नीलामी के लिए रख दिए गए हैं.
हम झूठ के बाज़ार में
सच्चाई की ओस पर,
जूते रखकर बैठे हैं
सत्ता और सर्कस का
नाटक देख रहे हैं
इस नाटक से जागें
चलें
वहाँ चलें
वापस उन मोर्चों पर
जहां खड़े हैं असली सवाल
हमारी आवाज़ का इंतज़ार करते हुए.
पाणिनि आनंद
5 जनवरी, 2012.
नई दिल्ली