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सोशल मीडिया की भाषा, अभिव्यक्ति की आज़ादी और कानून के हाथ

Jun 18, 2019 | विनय जायसवाल

उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ऊपर सोशल मीडिया पर कथित अभद्र भाषा के इस्तेमाल के आरोप में गिरफ्तार किए गए पत्रकार प्रशांत कन्नौजिया की गिरफ्तारी को संविधान के तहत नागरिक को प्रदान की गई आज़ादी के खिलाफ़ बताया और उन्हें रिहा करने के आदेश दिये। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने प्रशांत की टिप्पणी को जायज नहीं ठहराया है। वैसे भी किसी की निजी ज़िंदगी को लेकर इस तरह की स्तरहीन टिप्पणी के साथ शायद ही सभ्य समाज का कोई व्यक्ति खड़ा नज़र आएगा लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि इस टिप्पणी के आधार पर पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई पूरी तरह अनुचित, असंवैधानिक और गैरकानूनी थी। न्यायालय ने भी कहा कि कोई भी पुलिस इस तरह से किसी नागरिक की आज़ादी के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती है। इसके साथ ही न्यायालय ने पुलिस को सलाह दी है कि वह नागरिकों के अधिकारों के साथ संवेदनशीलता से पेश आए।

प्रशांत कन्नौजिया को एक महिला द्वारा योगी से प्रेम करने का दावा करने और शादी का प्रस्ताव रखने की प्रेस कोंफ्रेस की वीडियो के साथ कथित अभद्र टिप्पणी करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और इसके साथ ही तीन और पत्रकारों को इस मुद्दे पर अपने चैनल में कार्यक्रम करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। प्रशांत कन्नौजिया के ऊपर आईपीसी की धारा 500 और आईटी एक्ट की धारा 66 के तहत एफआईआर किया गया था जबकि पुलिस ने अपने प्रेस स्टेटमेंट में आईपीसी की धारा 500 और 505 समेत आईटी एक्ट की धारा 67 का उल्लेख किया था। यही साफ करने के लिए काफी है कि पुलिस ने अपनी कार्रवाई में कितनी जल्दबाज़ी में की। दरअसल आईपीसी की धारा 500 नॉन-काग्निज़बल अपराध की श्रेणी में आता है यानि पुलिस खुद से संज्ञान लेकर इस धारा के तहत मामला दर्ज नहीं कर सकती। इसके लिए पीड़ित की तरफ से शिकायत किया जाना ज़रूरी होता है। यही कारण है कि पुलिस द्वारा प्रेस स्टेटमेंट में आईपीसी की धारा 505 का उल्लेख सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया क्योंकि धारा 505 काग्निज़बल अपराध की श्रेणी में आता है।

यह मामला पुलिस की तरफ से संविधान और कानून की अनदेखी का बड़ा मामला है क्योंकि पुलिस ने यह भी देखना ज़रूरी नहीं समझा कि 7 साल से कम की सजा वाले अपराध के मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा जारी गिरफ्तारी वारंट के बिना किसी भी नागरिक को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने इसे अपने फैसलों में कई बार स्थापित किया है, जिसमें सबसे चर्चित मामला 2014 का अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार का है, इस फैसले में उच्चतम न्यायालय ने साफ किया है कि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता यानि सीआरपीसी 41 के अनुसार पुलिस 7 साल से कम की सजा के मामलों में सीधे गिरफ्तारी नहीं कर सकती है। इस मसले पर पुलिस इसलिए पूरी तरह से गलत है क्योंकि एक तो उसने एकनॉन-काग्निज़बल धारा में अपराध संज्ञान में लिया और प्रेस स्टेटमेंट में आफ्टर थाट काग्निज़बलधारा जोड़ दी तथा दूसरी तरफ 7 साल से कम सजा होने के बावजूद मजिस्ट्रेट द्वारा जारी वारंट के बिना कथित आरोपी की गिरफ्तारी की।

वैसे भी आईपीसी की धारा 500 आपराधिक मनिहानि के मामले में लागू होती है, जिसे कोई पुलिस स्वत: संज्ञान लेकर दर्ज नहीं कर सकती है। इस धारा के तहत अपराध को सीधे मजिस्ट्रेट के सामने निजी शिकायत के रूप दर्ज कराया जाता है। इस तरह से धारा 500 के तहत दर्ज किया गया पूरा मामला ही गैरकानूनी और बेबुनियाद है।

इसी तरह से धारा 505 कानून और व्यवस्था बिगाड़ने वाले कथन पर लागू होती है और इसके तहत कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित किए जाने की बात है। उल्लेखनीय है कि किसी की निजी ज़िंदगी पर एक गैरजिम्मेदारना टिप्पणी इतनी महत्वपूर्ण कैसे हो सकती है कि वह कानून और व्यवस्था के लिए खतरा हो जाए और पुलिस सीधे उसे सलाखों के पीछे डाल दे। इस तरह की टिप्पणियों के उदाहरण मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में भरे पड़े हैं फिर तो पुलिस को पहले उन पर कार्रवाई करनी चाहिए। वैसे भी धारा 505 मूल एफआईआर में नहीं थी, इसे भी आफ्टर थाट प्रेस स्टेमेंट में दिया गया था।

अब बात करते हैं एफआईआर में उल्लेखित आईटी एक्ट की धारा 66 और प्रेस स्टेटमेंट में ज़िक्र की गई आईटी एक्ट की धारा 67 की। आईटी एक्ट की धारा 66 किसी कम्यूटर सिस्टम को बेईमानी या कपटपूर्ण ढंग से नुकसान पहुंचाने पर लागू होती है और धारा 67 किसी अश्लील या घृणित चीज के प्रसारण लगाई जाती है। यहाँ पर यह देखना होगा कि क्या प्रशांत ने किसी कम्यूटर सिस्टम को बेईमानी या कपटपूर्ण ढंग से नुकसान पहुंचाया या फिर उसने कोई अश्लील या घृणित कंटेन्ट प्रसारित किया। कानूनी रूप से इन दोनों का उत्तर ना में ही है। पुलिस के पास इस बात के कोई तथ्य नहीं है कि उसने किसी कम्यूटर सिस्टम को बेईमानी या कपटपूर्ण ढंग से नुकसान पहुंचाया या उसने कोई अश्लील या घृणित कंटेन्ट पोस्ट किया। उसकी टिप्पणी अनुचित या गैर मर्यादित हो सकती है और उसकी इस टिप्पणी से मुख्यमंत्री की मानिहानि भी हो सकती है लेकिन एक महिला ने खुले पब्लिक में जो कुछ भी कहा उस वीडियो को प्रसारित करना कहीं से भी न तो आईपीसी की धारा 500 और 505 के दायरे में आता है और न ही आईटी एक्ट की धारा 66 और 67 के दायरे में। प्रशांत की टिप्पणी पर सीधे मुख्यमंत्री की तरफ से मानिहानि का केस किया जा सकता है लेकिन वह कानून और न्यायालय में टिकेगा नहीं क्योंकि मानिहानि का केस अगर किसी पर बनता है तो वह महिला है, जिसने योगी आदित्यनाथ से विवाह का प्रस्ताव रखा और उनसे प्रेम करने की बात की। यहाँ यह भी विचार करने योग्य विषय है कि क्या किसी से प्रेम होने की बात करना या विवाह का प्रस्ताव रखना मनिहानि के दायरे में आता है?अगर ऐसे मामले मानिहानि के दायरे में आने लगे तो नागरिकों का बड़ा तबका ऐसे ही मामलों में गिरफ्तार मिलेगा और जेलों में जगह नहीं रह जाएगी। यह मामला पूरी तरह से पुलिस द्वारा एक बेबुनियाद केस बनाने का है और इससे साफ झलकता है कि इस देश के नागरिकों की रक्षा के लिए बनी पुलिस को कानून और संविधान की कितनी जानकारी है? और वह किस तरह कानून का इस्तेमाल अराजकता फैलाने के लिए करती है।

अगर योगी आदित्यनाथ पुलिस की इस कार्रवाई की निंदा करते और बयान देते कि वह मीडिया और उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के बड़े पैरोकार हैं और उनके शासन में पत्रकारों को पुलिस बेबुनियाद तरीके से परेशान नहीं कर सकती तो भी योगी अपनी साख बचा सकते थे लेकिन पुलिस की इस कार्रवाई पर योगी आदित्यनाथ की चुप्पी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उनके खिलाफ़ ले जाकर खड़ा कर दिया है।

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