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प्रचार पर करोड़ों खर्च, राज्य में डॉक्टरों की कमी

Nov 18, 2011 | आशीष महर्षि

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक ओर बेटी बचाओ अभियान में करोड़ों रूपए खर्च रहे हैं तो दूसरी ओर, नौनिहालों की मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. ऐसे में जब बच्चे ही नहीं बचेंगे तो फिर बेटियां कैसे बचेंगी? 

 
अस्पतालों में, स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की कमी के कारण हर साल हजारों बच्चों और माताओं की मौत हो रही है. अस्पतालों में पद हैं, लेकिन डॉक्टर नहीं हैं. शहरों की तुलना में दूर-दराज के इलाकों की स्थिति और भयानक है. आदिवासी बहुल ग्रामीण अंचलों में बीमार पड़ना अभी भी किसी अभिशाप से कम नहीं है. अस्पताल हैं, पर डॉक्टर नहीं. कहीं डॉक्टर मौजूद हैं तो इलाज के उपकरणों, दवाओं और अन्य संसाधनों का अभाव है. 
 
यही वजह है कि सीधी, मंदसौर व शहडोल में मलेरिया को रोकने में पूरी ताकत झोंकने के बावूजद मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा है 
 
विकास संवाद केंद्र के सचिन जैन कहते हैं कि राज्य में कुल 3 करोड़ बच्चों पर बाल रोग विषेषज्ञों के 572 पदों में से 322 ही भरे जा सके हैं. यानी अभी एक डॉक्टर पर तकरीबन 90 हजार बच्चों के इलाज की जिम्मेदारी है. वह भी समुचित संसाधनों, दवाओं के बगैर. अब ऐसे में बच्चे कैसे बचेंगे?
 
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के आंकड़ों पर गौर करें हैं तो ये आंकड़े पूरी तस्वीर को कुछ यूं बयां करते हैं. राज्य में 27 प्रतिशत बच्चे बुखार से मरते हैं, 45 फीसदी की मौत निमोनिया और 8 प्रतिशत डायरिया से मर जाते हैं (राज्य में बच्चों की मौत के महज 40 फीसदी मामलों में ही वजह की जानकारी मिल पाती है, बाकी में नहीं). इसी तरह मातृत्व मृत्यु के मामले में मध्यप्रदेश का स्थान देश में तीसरे नंबर पर है, जबकि शिशु मृत्यु दर में मप्र नंबर वन पर कायम हैं. यह सूरते हाल विकास की नीतियों को लेकर सरकार के दावों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाती है. 
 
इन मौतों को बंद किया जा सकता है. बीमारियों का आसानी से इलाज मुमकिन है, परंतु यदि इलाज करने वाले ही न हों तो खाली अस्पताल जिंदगियां कैसे बचा सकते हैं ? मध्यप्रदेश में यह स्थिति तब है, जबकि सबसे ज्यादा शिशु मृत्यु वाले देश के 100 जिलों में से 30 इसी राज्य में हैं. जिन जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं लचर हालत में हैं, वहां इसका नतीजा शिशु व मातृ मृत्यु की ऊंची दर के रूप में देखा जा सकता है. पन्ना जिले में प्रत्येक 1000 जीवित जन्म पर 93 बच्चे जान गंवाते हैं, क्योंकि वहां शिशु रोग विशेषज्ञ के सिर्फ 9 पद स्वीकृत हैं और उनमें से 4 खाली हैं. राज्य के 30 प्रतिशत, यानी 15 जिलों में किसी भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्त्री रोग, शिशु रोग का एक भी पद भरा नहीं है. इनमें अलीराजपुर, बड़वानी, डिंडोरी, खंडवा, सिंगरौली, बालाघाट और मंदसौर जिले भी शामिल हैं. 
 
जैन आगे कहते हैं कि योजना आयोग व ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित मानव विकास प्रतिवेदन 2011 में कहा गया है कि राज्य सरकार लोक स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति सालाना 145 रु. खर्च करती है. लेकिन हर व्यक्ति को अपनी जेब से 644 रु. खर्च कर निजी क्लीनिक में इलाज कराना पड़ रहा है, क्योंकि अस्पताल में डॉक्टर ही नहीं है और जहां हैं, वहां दवाएं, उपकरण और सुविधाओं का टोटा है. भूमिहीन श्रमिक, दलित और आदिवासियों के लिए यह खर्च उन्हें और गरीब बना रहा है.
 
विकास संवाद केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे प्रदेश में स्त्री रोग विशेषज्ञों के कुल 334 पद में से 281 खाली हैं. लेकिन जिला अस्पतालों में 82 और मेडिकल कॉलेजों में 80 फीसदी से ज्यादा पद भरे हैं. ज्यादातर डॉक्टर शहर से लगे स्वास्थ्य केंद्रों में तैनात हैं, गांव अछूते हैं. विकास संवाद ने सरकारी अस्पतालों में स्त्री रोग, शिशु रोग और निष्चेतना विशेषज्ञों की मौजूदगी को आधार बनाकर पूरी स्थिति का विश्लेषण करते हुए एक अध्ययन किया है.

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