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बेवफ़ा सरकार, आम आदमी पर महंगाई की मार

Sep 17, 2011 | सौरभ शुक्ल

अमूमन शुक्रवार का दिन अच्छा लगता है. इसी दिन मूवी रिलीज़ होती है और इसके बाद 2 दिन बिज़नेस की ख़बरों की छुट्टी रहती है. शायद इसीलिए थोड़ी चैन की सांस महसूस होती है. लेकिन इस बार शुक्रवार का दिन ऐसा रहा कि जनाब, होश-चैन-सुकून सब फुर्र हो गए हैं और दिल-ओ-दिमाग़ पर सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ुस्से का कब्ज़ा रहा है. ये गुस्सा था व्यवस्था के ख़िलाफ़, सरकार के ख़िलाफ़ और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ख़िलाफ़.

जेब काटने वाली दो ख़बरों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था. गुरुवार को तेल कंपनियों ने पेट्रोल के दाम सवा तीन रुपए बढ़ा दिए थे और चट से यानि जुम्मे से वो लागू भी हो गए हैं. भला देखी है आपने ऐसी तेज़ी किसी देश हित वाले काम में?

इस ख़बर की इंटेंसिटी ऐसी थी कि दूसरी एटीएफ के दाम बढ़ने की ख़बर पर किसी का ध्यान ही नहीं गया. एटीएफ़ यानि वो तेल जिससे हवाई जहाज़ उड़ता है, उसके दामों में 2.5% की बढ़त कर दी गई है. रिज़र्व बैंक ने कहा हम ही क्यों किसी से पीछे रहें…तपाक से रेपो रेट में चौथाई परसेंट की बढ़त का झापड़ जड़ दिया.
शुरुआत तेल कंपनियों के दाम बढ़ाने के ऑपरेशन के साथ करते हैं. कंपनियों ने कहा कि भई डॉलर महंगा हो गया है, हमें घाटा हो रहा है…हम तो दाम बढ़ाएंगे. और बढ़ा दिए. दरअसल अब तक 1 डॉलर की क़ीमत 40 रुपए के करीब होती थी और अब 48 रुपए से भी ज़्यादा हो गई है. तो तेल कंपनियों की दलील का मतलब ये होता है कि एक डॉलर में आने वाले सामान के लिए उन्हें 8 रुपए ज़्यादा देने पड़ते हैं.
रुपए के कमजोर होने का हवाला एटीएफ़ के दाम बढ़ाने के पीछे भी दिया गया और शाम होते होते टिकट पर 200 रुपए सरचार्ज बढ़ा दिया गया. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है. इसकी ज़िम्मेदार है भारत सरकार की लप्पूझन्ना नीतियां और अमीर देशों की ठसक के सामने बंद बोलती.
भई सरकार ने ऐसे करम ही क्यों किए कि उसे डॉलर के साथ मुकाबला करना पड़े. अब इसके जवाब में ये सवाल भी उठता है कि ग्लोबलाइजेशन का दौर है अगर अमेरिका के साथ कदम से कदम नहीं मिलाएंगे को आगे कैसे बढ़ेंगे. तो इसका जवाब ये है कि आदमी घुटनों के बल तभी तक चलता है जब तक उसके पैरों में जान नहीं आ जाती. और अगर आप जान आ जाने के बाद भी घुटनों के बल ही चलते रहते हैं तो या तो आप अपाहिज हैं या काहिल. आपके बराबर में चीन है कम से कम उससे कुछ तो सीखिए. मजाल है उसकी करेंसी को कोई छू ले?
ख़ैर ये डॉलर तो पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ाने का एक बहाना था. दूसरा बड़ा पॉपुलर बहाना बताया जाता है कि जी कच्चे तेल के दाम आसमान छू रहे हैं…बड़ी आग लग गई है कच्चे तेल में थोड़ी सी आग आप लोग भी ले लो, आपस में बांट लेंगे तो कम पड़ जाएगी.
हद है यार..एक तो आपने पेट्रोल के ऊपर दुनियाभर के टैक्स लगा रखे हैं, वो तो ख़ैर आप कम कर नहीं सकते. और सही भी है अगर वो कम कर दिया तो देश में टूटी फूटी सड़कें कैसे बनेंगी. जब तब टूटने वाले पुल कैसे बनेंगे और उन पुलों के गिरने से मरने वाले लोगों को मुआवज़ा देने के लिए पैसे भी तो चाहिए न? और अगर नहीं मरे तो ज़िंदगी भर दवाइयां खाएंगे और उन दवाइयों के साथ आपको फिर से टैक्स पर टैक्स देंगे. तो ये तो आपकी रोज़ी रोटी है, खर्चा पानी है इस पर मैं कोई पाबंदी नहीं लगाउंगा. लेकिन आप इसकी सट्टेबाज़ी पर तो लगाम लगा सकते हैं
.
जिस तरह कच्चे तेल की डिमांड ट्रेडिंग की वजह से हवा में ही ऊंचाई के नए रिकॉर्ड बनाती रहती है उसे तो रोका जा सकता है.
आज की तारीख में दुनिया का सबसे बड़ा ट्रेडर अमेरिका है. इसके साथ परमाणु करार करने के लिए तो आपने संसद की मर्यादा को भी ताक पर रख दिया था लेकिन क्या उससे ये नहीं कह सकते हैं कि कच्चे तेल में सट्टेबाज़ी खत्म करे.
बराक ओबामा ने मनमोहन सिंह की ज़रा सी तारीफ़ क्या कर दी कि सिंह साहब बड़े अच्छे अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री हैं ये तो कुछ ज़्यादा ही उड़ने लगे. ये छोटी मोटी महंगाई जैसी चुनौती तो अब उनके लिए इतनी छोटी हो गई है कि वो उसे सुलझाना भी जैसे पाप, कुकर्म समझने लगे हैं.
मनमोहन सिंह तो जैसे चाहते ही नहीं कि इस देश के आम आदमी को किसी भी तरफ से सुकून नसीब हो. अब आपने सड़क पर चलना और आसमान में उड़ना दोनों तो दूभर कर ही दिया था. घर में रहना दूभर करने के लिए रिज़र्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव को लगा दिया.
सुब्बाराव ने सुबह से पेट्रोल और एटीएफ़ के दामों से हैरान परेशान आम आदमी पर ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी का करारा तमाचा जड़ दिया.
ये तमाचा ऐसा था कि आम आदमी ने कर्ज लेकर सीमेंट, पत्थर से बने जिस ढ़ांचे को खरीदकर उसे घर बनाने की जुगत में दिन भर पसीना बहाता है, वो ही उसे बोझ लगने लगा. उसके कर्ज की EMI सुब्बाराव साहेब की बदौलत बढ़ गई है. यानि आम आदमी को तकलीफों की एक और किस्त मिल गई.
और सुब्बाराव साहेब भी आखिर क्यों सरकार का साथ न देते. सरकार ने हाल ही में उनका कार्यकाल 2 साल बढ़ाया है. पहले वो 5 सितंबर को रिटायर हो रहे थे अब 2013 में जाएंगे. अब ऐसे में उनका भी तो फ़र्ज बनता है न कि जनता को परेशान करने में सरकार की मदद करें. ये कार्यकाल बढ़ने के ईनाम के कितने बड़े हकदार हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गवर्नर साहेब ने पिछले साल मार्च से अब तक यानि 18 महीनों में ब्याज दरें 12 बार बढ़ा दी हैं.
ख़ैर ये सरकार तो निकम्मी है ही. भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे इस देश में जहां हर नेता अपने पेट भरने में लगा है; अपनी संपत्ति दोगुनी, तीन गुनी करने में लगा है- तो ऐसे में इनसे उम्मीद करना काजल की कोठरी से बिना कालिख लगवाए निकल आने के बराबर है. लेकिन हमारे देश का विपक्ष तो सरकार से ज्यादा निकम्मा है. ये केवल मौका ताड़ के न्यूज़ चैनलों पर सरकार को गरियाने का काम करते हैं.
इनको संविधान ने जो काम सौंपा था उसकी लुटिया पूरी तरह से डुबोकर रख दी है. न तो ये नरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार को रोक पाया है न ही पेट्रोल में चढ़ते दामों को. न ब्लैक मनी के लिए विरोध कर रहे रामदेव को दिल्ली में रोक पाया न ही अब तक लोकपाल बिल बनवा पाया. ये सरकार को अराजकता फैलाने तक से भी नहीं रोक पाते हैं लेकिन जनता को उसके ख़िलाफ भड़काने ज़रूर पहुंच जाते हैं. कहने लगेंगे..जी आपने हमें वोट नहीं दिया न इसीलिए आपकी ये दुर्गति हो रही है. जनता का क्या है उसकी विचारों की धारा तो ऐसी है कि चाहे जिस तरफ़ मोड़ दो. और सरकार शायद ये सोचती है कि भई इस बार मौका मिला है इतना लूटो कि विपक्ष अगर सत्ता में आ भी जाए तो उनके लिए कुछ न बचे.

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