हर चीज़ में राजनीतिक नाक घुसेड़ने की आदत बहुत बुरी है. कलकत्ता से लौटे मुझे कितने दिन हो गए हैं. मन में, दिमाग में, ज़बान पर, फोन पर बातचीत में, सब जगह कलकत्ते का असर अब तक सघन है. बस, लिखा ही नहीं जा रहा. जैसा कलकत्ता मैंने देखा, सुना, छुआ, महसूस किया, उसका आभार किसे दूं? कायदा तो यह होता कि आज से चालीस बरस पहले का कलकत्ता मैंने देखा होता और आज दोबारा लौटकर बदलावों की बात करता. यह तो हुआ नहीं, उलटे एक ऐसे वक्त में मेरा वहां जाना हुआ जब वाम सरकार का पतन हो चुका था. मेरा रेफरेंस प्वाइंट गायब है और पॉलिटिकली करेक्ट रहने की अदृश्य बाध्यता यह कहने से मुझे रोक रही है कि जिस शहर को मैंने अपने सबसे पसंदीदा शहर के सबसे करीब जाना और माना, उसे ऐसा गढ़ने में तीन दशक तक यहां रहे वामपंथी शासन का हाथ होगा.
बनारस में यदि आप संरचनागत औपनिवेशिक भव्यता को जोड़ दें और प्रत्यक्ष ब्राह्मणवादी कर्मकांडों व प्रतीकों को घटा दें, तो एक कलकत्ते की गुंजाइश बनती है. दिल्ली या मुंबई में कोई भी काट-छांट कलकत्ता को पैदा नहीं कर सकती. ठीक वैसे ही कलकत्ते में कुछ भी जोड़ने-घटाने से दिल्ली या मुंबई की आशंका दूर-दूर तक नज़र नहीं आती. मसलन, रात के दस बज रहे हैं. चौरंगी पर होटल ग्रैंड के बाहर पटरी वाले अपना सामान समेट रहे हैं. उनके समेटने में किसी कमेटी या पुलिस वैन के अचानक आ जाने के डर से उपजी हड़बड़ी नहीं है. होटल के सामने बिल्कुल सड़क पर एक हाथ रिक्शा लावारिस खड़ा है, लेकिन उसके लिए उस वक्त लावारिस शब्द दिमाग में नहीं आता. ऐसा लगता है गोया आसपास की भीड़ में कहीं रिक्शेवाला ज़रूर होगा, हालांकि उसकी नज़र रिक्शे पर कतई नहीं होगी. दरअसल, रिक्शे पर किसी की भी नज़र नहीं है. और भी दृश्य हैं जिन पर किसी की नज़रें चिपकी नहीं दिखतीं. मसलन, लंबे से जवाहरलाल नेहरू मार्ग के काफी लंबे डिवाइडर पर दो व्यक्ति शहर से मुंह फेरे ऐसे बैठे हैं गोया उन्हें कोई शिकायत हो किसी से. या फिर, इस बात की शिकायत कि उन्हें इस शहर से कोई शिकायत ही नहीं. कुछ भी हो सकता है. बस, वे अदृश्य आंखें इस शहर के चप्पों पर चिपकी नहीं दिखतीं जैसा हमें दिल्ली में महसूस होता है, जहां राह चलते जाने क्यों लगता है कि कोई पीछा कर रहा हो. कोई नज़र रखे हुए हो. वहां पैर हड़बड़ी में होते हैं. गाडि़यां हड़बड़ी में होती हैं. दिल्ली की सड़कें भागती हैं, उनकी रफ्तार से बचने के लिए आपको और तेज़ भागना होता है. कलकत्ता सुस्त है, एक चिरंतन आराम की मुद्रा में लेटा हुआ, पसरा हुआ, लेकिन लगातार जागृत.
किसी ने कहा था कि कलकत्ता एक मरता हुआ शहर है. मैं नहीं मानता. मरती हुई चीज़ अपने पास किसी को फटकने नहीं देती. मृत्युगंध दूसरे को उससे दूर भगाती है. लेकिन कलकत्ता खींचता है, और ऐसे कि आपको पता ही नहीं लगता. आप कलकत्ते में होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कोई प्रेम में होता है. आप कलकत्ते में नहीं होते, जैसे कि आप प्रेम में नहीं होते, या कि दिल्ली में होते हैं. बहू बाज़ार के शिव मंदिर के बाहर ज्ञानी यादव रोज़ सुबह अपने हाथ रिक्शे के साथ खड़े मिल जाएंगे. छपरा के रहने वाले हैं. दिल्ली, फरीदाबाद के कारखानों में बरसों मजदूरी कर के आए हैं. दुनिया देखे हुए हैं. कारखाना बंद हो गया, तो कलकत्ता चले आए. परिवार गांव में है. कहते हैं कि दुनिया भर का सब आगल-पागल यहां बसा है. यह शहर किसी को दुत्कारता नहीं. अब यहां से जाने का उनका मन नहीं है. जो कमा लेते हैं, घर भेज देते हैं. रहने-खाने का खास खर्च नहीं है. दस रुपये में माछी-भात या रोटी सब्ज़ी अब भी मिल जाती है. कोई खास मौका हो तो डीम का आनंद भी लिया जा सकता है. डीम मने अंडा. हम जिस रात रेहड़ी-पटरी संघ के दफ्तर बहू बाज़ार में पहुंचे, हमारे स्वागत में डीम की विशेष सब्ज़ी तैयार की गई. करीब डेढ़ सौ साल एक पुरानी इमारत में यहां पुराने किस्म के कामरेड लोग रहते हैं. दिन भर आंदोलन, बैठक और चंदा वसूली करते हैं. हर रेहड़ी वाला इस दफ्तर को जानता है. पहली मंजि़ल पर दो कमरों के दरकते दफ्तर से पचास मीटर की दूरी पर कोने में एक अंधेरा बाथरूम है गलियारानुमा, जिसमें नलका नहीं है. ड्रम में भरा हुआ पानी लेकर जाना होता है और रोज़ सुबह वह ड्रम भरा जाता है पीले पानी से. यहां पानी पीला आता है. पीने का पानी फिल्टर करना पड़ता है. रात का खाना बिल्डिंग की छत पर होता है. कम्यूनिटी किचन- एक कामरेड ने यही नाम बताया था. पूरी छत पर बड़े-बड़े ब्लैकबोर्ड दीवारों में लगे हैं. बच्चों की अक्षरमाला भी सजी है. पता चलता है कि यहां कभी ये लोग बच्चों के लिए निशुल्क क्लास चलाते थे. क्यों बंद हुआ, कैसे बंद हुआ यह सब, कुछ खास नहीं बताते. सब सिगरेट पीते हैं, भात-डीम खाते हैं और बिना किसी शिकायत के सो जाते हैं. सुबह हर कोई अपने-अपने क्षेत्र में निकल जाता है हमारे उठने से पहले ही, बस बिशेन दा बैठे हुए हैं अखबार पढ़ते. वे बरसों पहले बांग्लादेश से आए थे. आज बांग्लादेश की समस्या पर कोई संगोष्ठी है, उसमें जाने की तैयारी कर रहे हैं. हमें भी न्योता है.
बिशेन दा अकेले नहीं हैं. पूरा कलकत्ता ही लगता है बाहर से आया है. कलकत्ते में कलकत्ता के मूल बाशिंदे हमें कम मिले. जो मिले, वे अपने आप में इतिहास हैं. उनके बारे में या तो वे ही जानते हैं या उन्हें करीब से जानने वाले वे, जिन्होंने लंबा वक्त गुज़ारा है. मसलन, हम जिस इमारत में आकर अंतत: ठहरे, उसे किसी लेस्ली नाम के अंग्रेज़ ने कभी बनवाया था. किसी ज़माने में उसे लेस्ली हाउस कहा करते थे. करीब 145 साल पुरानी यह इमारत चौरंगी पर होटल ग्रैंड से बिल्कुल सटी हुई है, जो बाहर से नहीं दिखती. उसके पास पहुंचने के लिए बाहर लगे काले गेट के भीतर जाना होता है, जिसके बाद खुलने वाली लेन के अंत में एक छोटा सा प्रवेश द्वार है जिसकी दीवारों पर डिज़ाइनर कुर्ते, टेपेस्ट्री आदि लटके हुए हैं. वहीं से बेहद आरामदेह, निचली, चौड़ी सीढि़यां शुरू हो जाती हैं बिल्कुल अंग्रेज़ी इमारतों की मानिंद, जैसी हम इंडियन म्यूजि़यम में चढ़ कर आए थे. आज इस इमारत को मुखर्जी हाउस कहते हैं. जिनके नाम पर यह इमारत आज बची हुई है, वे बकुलिया इस्टेट के बड़े ज़मींदार हुआ करते थे. लोग उन्हें बकुलिया हाउस वाले मुखर्जी के नाम से जानते हैं. कलकत्ता में इनकी कई बिल्डिंगें हैं. कहते हैं कि संजय गांधी ने जब मथुरा में मारुति का कारखाना लगवाया, उस दौरान छोटी कारें बनाने का एक कारखाना इन्होंने भी वहां लगाया था. वह चल नहीं सका. हालांकि उनकी एक टायर कंपनी आज भी कारोबार कर रही है. बकुलिया हाउस वाले मुखर्जी ने कभी यह इमारत अंग्रेज़ से खरीदी थी. खरीदने के बाद दीवारें तुड़वा कर जब इसे दोबारा आकार देने की कोशिश की जा रही थी, तो दीवारों के भीतर से रिकॉर्डिंग स्टूडियो में इस्तेमाल किए जाने वाले गत्ते और संरचनाएं बरामद हुईं. पता चला कि इसमें न्यू थिएटर का स्टूडियो हुआ करता था जहां कुंदनलाल सहगल गाने रिकॉर्ड किया करते थे. धीरे-धीरे यह बात सामने आई कि वहीं एक डांसिंग फ्लोर भी होता था जहां हुसैन शहीद सुहरावर्दी रोज़ नाचने आते थे. सुहरावर्दी का नाम तो अब कोई नहीं लेता, हालांकि वे नेहरू के समकालीन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हुए. मिदनापुर में पैदा हुए थे, वाम रुझान वाले माने जाते थे और उनकी जीवनी में एक अंग्रेज़ ने लिखा है कि वे जितने दिन कलकत्ते में रहे, रोज़ शाम इस डांस फ्लोर पर आना नहीं भूले. हम जिस कमरे में सोए, पांच दिन रहे, उसकी दीवारों में सहगल की आवाज़ पैबस्त थी, उसकी फर्श पर सुहरावर्दी के पैरों के निशान थे.
पहली मंजि़ल पर ही एक और दरवाज़ा है हमारे ठीक बगल में, जो लगता है बरसों से बंद पड़ा हो. बाहर डॉ. एस. मुखर्जी के नाम का बोर्ड लगा है. डाक साब पुराने किरायेदार हैं, जि़ंदा हैं, बस बोल-हिल नहीं पाते. कहते हैं कि वे राज्यपाल को भी दांत का दर्द होने पर तुरंत अप्वाइंटमेंट नहीं दिया करते थे. दांत का दर्द जिन्हें हुआ है, वे जानते हैं कि उस वक्त कैसी गुज़रती है. दस बरस हो गए उन्हें बिस्तर पर पड़े हुए, इतिहास उन्हें फिल्म अभिनेता प्रदीप कुमार के दामाद के तौर पर आज भी जानता है. कलकत्ता का इतिहास सिर्फ मकान मालिकों की बपौती नहीं, किरायेदारों का इतिहास भी उसमें साझा है.
डॉ. मुखर्जी कभी मशहूर डेंटिस्ट थे. पुराने शहरों में पुराने डेंटिस्ट अकसर चीनी डॉक्टर मिलते हैं. जैसे मुझे याद है बनारस के तेलियाबाग में एक डॉ. चाउ हुआ करते थे. आज बनारस में इसके निशान भी नहीं बाकी, लेकिन कलकत्ता में अब भी चीनी डॉक्टर बचे हैं. मैंने ऐसे तीन बोर्ड देखे. कलकत्ता में मशहूर चाइना टाउन को छोड़ भी दें, तो यहां समूची दुनिया बरबस बिखरी हुई दिखती है. कलकत्ता से जुड़े बचपन के कुछ संदर्भ हमेशा बेचैन करते रहे हैं. ठीक वैसे ही, जैसे शाम पांच बजे दूरदर्शन पर गुमशुदा तलाश केंद्र, दरियागंज, नई दिल्ली का पता हमें दिल्ली से जोड़ता था. दरियागंज थाना जिस दिन पहली बार मैंने देखा, वह दिन और कलकत्ता में शेक्सपियर सरणी के बोर्ड पर जिस दिन नज़र पड़ी वह दिन, दोनों एक से कहे जा सकते हैं. जिंदगी के दो दिन एक जैसे हो सकते हैं. शेक्सपियर सरणी का नाम बचपन के दिनों में ले जाता है और ज़ेहन में अचानक कोई सिरकटा पीला डिब्बा घूम जाता है जिसे हम शौच के लिए इस्तेमाल में लाते थे. बरसों एक ही वक्त एक ही डिब्बे पर कॉरपोरेट ऑफिस शेक्सपियर सरणी लिखा पढ़ना अचानक याद आता है. डालडा का पीला डिब्बा, जिसे कभी हिंदुस्तान लीवर कंपनी बनाया करती थी, उसका दफ्तर यूनीलीवर हाउस यहीं पर है. सड़कें इंसानों को ही नहीं, स्मृतियों को भी जोड़ती हैं. मैंने शेक्सपियर को जब-जब पढ़ा, वह सिरकटा पीला डिब्बा याद आया, कलकत्ता याद आया. ऐसे ही लेनिन, हो ची मिन्ह, आदि के नाम पर यहां सड़कें हैं. शायद यह इकलौता शहर होगा जहां गलियां नहीं, सरणियां हैं.
ऐसी ही एक सरणी में उस दिन आग लगी थी. हम एक दिन पहले ही सुबह-सुबह प्रेसिडेंसी कॉलेज से होते हुए सूर्य सेन सरणी में टहल रहे थे. मास्टर सूर्य सेन सरणी से चटगांव याद आता है, चटगांव फिल्म याद आती है. अगले दिन सुबह वहां स्थित सूर्य सेन बाज़ार में आग लगने की खबर आई. बीस लोग मारे गए. दिल्ली में कहीं ऐसी आग लगती तो खबर राष्ट्रीय हो जाती, कलकत्ता में ऐसा नहीं हुआ. चौरंगी उस दिन भी अपनी रफ्तार से चलता रहा. इस शहर को कोई आग नहीं निगलती. बस बातें होती रहीं खबरों में कि शहर में अवैध इमारतें बहुत ज्यादा हैं जहां आग से लड़ने के सुरक्षा इंतज़ाम नहीं किए गए हैं. अवैध इमारतों को नियमित करने के नाम पर अब शहर उजाड़ा जाएगा, इसकी आशंका भी कुछ ने ज़ाहिर की. दरअसल, सरकार जिन्हें वैध इमारतें कहती है, उनकी संख्या इस विशाल महानगर में बमुश्किल दस लाख से भी कम है. बरसों पहले घर से भागकर शहर में बस गए बुजुर्ग लेखक-पत्रकार गीतेश शर्मा बताते हैं कि यहां कुछ बरस पहले तक मकानों और भवनों के मालिकाने का कंसेप्ट ही नहीं था. कोई भी इमारत, कोई भी मकान किसी के नाम से रजिस्टर्ड नहीं हुआ करता था. कोई मासिक किराया नहीं, सिर्फ एकमुश्त पेशगी चलती थी. जिस रेंटियर इकनॉमी की बात आज पूंजीवादी व्यवस्था के विश्लेषण में बार-बार की जाती है, वह अपने आदिम रूप में यहां हमेशा से मौजूद रही है. मसलन, अगर कोई बरसों से पेशगी देकर किसी भवन में रह रहा है तो उसे मकान मालिक निकाल नहीं सकता. किरायेदार को निकालने के लिए उसे पैसे देने होंगे, जिसके बाद वह चाहे तो बढ़ी हुई पेशगी पर कोई दूसरा किरायेदार ले आए. इस व्यवस्था ने शहर में रिश्तों को मज़बूत किया है, जिंदगी और व्यवसाय को करीब लाने का काम किया है, सबको समाहित करने का माद्दा जना है और नतीजतन बिजली की आग के लिए हालात पैदा किए हैं. शर्मा के मुताबिक यह परिपाटी अब दरक रही है, हालांकि अब भी कलकत्ता के पुराने ऐतिहासिक इलाकों में दिल्ली वाली खुरदुरी अपहचान ने पैर नहीं पसारे हैं. शायद इसीलिए बकुलिया हाउस के ज़मींदार मुखर्जी और किरायेदार डॉ. मुखर्जी दोनों ही यहां के इतिहास को बराबर साझा करते हैं.
शायद इसीलिए शर्मा जी से जब हम खालसा होटल का जि़क्र करते हैं, तो वे उसके मालिकान को झट पहचान लेते हैं. हमने इसके मालिक सरदारजी से जो सवाल पूछा, ठीक वही सवाल शर्मा जी ने भी बरसों पहले पूछा था. चौरंगी के सदर स्ट्रीट पर एक गली में खालसा होटल 1928 से जस का तस चल रहा है. जितना पुराना यह होटल है, उतनी ही पुरानी है वह आयताकार स्लेट जिस पर सरदारजी और उनकी पत्नी हिसाब जोड़ते हैं. हमने पूछा यह स्लेट क्यों? पूरी सहजता से वे बोले, \\\’\\\’देखो जी, जितनी बड़ी यह स्लेट है, आजकल उतने ही बड़े को टैबलेट कहते हैं. चला आ रहा है बाप-दादा के ज़माने से, पेपर भी बचता है.\\\’\\\’ ऐसा लगता है गोया ग्राहक भी बाप-दादा के ज़माने से चले आ रहे हों. हमारे पीछे बैठे एक बुजुर्गवार रोज़ सुबह ग्यारह बजे के आसपास नाश्ता करने आते हैं. नाश्ता यानी रोटी और आलू-मेथी की भुजिया. वे बताते हैं कि इस शहर ने शरतचंद्र की कद्र नहीं की. रबींद्रनाथ के नाम पर यहां सब कुछ है, शरत के नाम पर कुछ भी नहीं. नज़रुल के नाम पर बस एक ऑडिटोरियम है. \\\’\\\’कवि सुभाष, कवि नज़रुल, ये भी कोई नाम हुआ भला? पता ही नहीं लगता क्या लोकेशन है?\\\’\\\’ सरदारजी हामी भरते हैं, \\\’\\\’हम तो अब भी टॉलीगंज ही कहते हैं जी….\\\’\\\’ स्टेशनों का नया नामकरण तृणमूल सरकार आने के बाद किया गया है. लोगों की ज़बान पर पुराने नाम ही हैं. यहां नए से परहेज़ नहीं, लेकिन पुराने की उपयोगिता इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होती. खालसा होटल की रसोई अब भी कोयले के चूल्हे से चलती है. गैस है, हीटर भी है, लेकिन तवे की रोटी चूल्हे पर सिंकी ही पसंद आती है लोगों को. लड़के कम हैं, सरदारजी खुद हाथ लगाए रहते हैं. उनकी पत्नी इधर ग्राहकों को संभालती हैं. ऑर्डर लेती हैं, हिसाब करती हैं. अंग्रेज़ों से अंग्रेज़ी में, हिंदियों से हिंदी में और बंगालियों से बांग्ला में संवाद चलता है. इस व्यवस्था को कंजूसी का नाम भी दे सकते हैं, लेकिन कंजूसी अपनी ओर खींचती नहीं. स्लेट खींचती है, चूल्हा खींचता है, और वह केले का पत्ता खींचता है जिसे खालसा होटल के बाहर गली में बैठे छपरा के मुसाफिर यादव पान लपेटने के काम में लाते हैं. कहते हैं कि इसमें पान ज्यादा देर तक ताज़ा रहता है. हो सकता है, नहीं भी. लेकिन महुआ को केले से कलकत्ता में टक्कर मिल रही है. पान लगाते वक्त मुसाफिर पास में कुर्सी पर बैठे एक अधेड़ चश्माधारी व्यक्ति से कुछ-कुछ कहते रहते हैं. \\\’\\\’कौन हैं ये?\\\’\\\’ \\\’\\\’यहां के डॉन…\\\’\\\’, बोल कर मुस्कराते हैं मुसाफिर. \\\’\\\’विंध्याचल में मंदिर के ठीक सामने घर है. यहां बहुत पैसा बनाए हैं… सब इनका बसाया हुआ है. यहां सब पटरी वाले मिर्जापुर, विंध्याचल के हैं, इन्हीं के लाए हुए. इनके कहे बिना पत्ता भी नहीं हिलता यहां.\\\’\\\’
अबकी हमने गौर से देखा. लोहे की एक कुर्सी पर गली के किनारे बैठे डॉन टांगें फैलाए सामंत की मुद्रा में चारों ओर हौले-हौले देख रहे थे. मध्यम कद, गठीला बदन, पचास पार उम्र, आंख पर चश्मा और गाढ़ी-घनी मूंछ, जो अब तक पर्याप्त काली थी. बदन पर सफेद कुर्ता पाजामा. हाव-भाव में अकड़ साफ दिखती थी, एक रौब था, लेकिन उसमें शालीनता भी झलक रही थी. जैसे पुराने ज़माने के कुछ सम्मानित गुंडे हुआ करते थे, कुछ-कुछ वैसे ही. बस लंबाई से मात खा रहे थे और धोती की जगह पाजामा अखर रहा था. उनके सामने स्टूल पर कुछ पैसे रखे थे. हमें लगा शायद वसूली के हों, लेकिन मुसाफिर ने बताया कि यह दिन भर भिखारियों को देने के लिए है. जाने क्यों, डॉन को देखकर डर नहीं लग रहा था, बल्कि एक खिंचाव सा था. रात में हमने उन्हें उसी बाज़ार में एक हाथ रिक्शे पर टांगे मोड़ कर बैठे चक्कर लगाते भी देखा. फिर अगले चार दिन मुसाफिर के यहां पान लगवाते उन्हें देखते रहे, गोया वे कोई स्मारक हों, संग्रहालय की कोई वस्तु. ज्ञानी यादव ने जिन आगल-पागल का जि़क्र किया था, शायद वे मूर्तियों में बदल चुके ऐसे ही इंसान होंगे जिनकी आदत इस शहर को पड़ चुकी होगी. सहसा लगा कि मुझे ऐसे लोगों को देखने की आदत पड़ रही है. सवारी के इंतज़ार में बैठे हाथ रिक्शा वाले बुजुर्ग, ट्राम में निर्विकार भाव से हमेशा ही आदतन पांच रुपए का टिकट काटते बूढ़े और शांत बंगाली कंडक्टर, ड्राइवर केबिन में पुराने पड़ चुके पीले दमकते लोहे की आदिम हैंडिल को आदतन दाएं-बाएं घुमाते लगातार खड़े चालक, चौरंगी के पांचसितारा होटल के बाहर पिछले तेरह बरस से नींबू की चाय बेच रहे अधेड़ शख्स, सब संग्रहालय की वस्तु लगते थे. उन्हें देखकर खिंचाव होता था, इसलिए नहीं कि उनसे संवाद हो बल्कि इसलिए कि उनमें कुछ तो हरकत हो. जिंदगी की ऐसी दुर्दांत आदतें देखने निकले हम पहले ही दिन इस शहर को भांप गए थे जब हमारी ट्राम चलते-चलते शोभा बाज़ार सूतानुटी पहुंच गई और हम बीच में ही कूद पड़े.
सूतानुटी- यह शब्द हफ्ते भर परेशान करता रहा. किसी ने बताया कि शायद वहां सूत का काम होता रहा हो, इसलिए सूतानुटी कहते हैं. दरअसल, अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासक जॉब चार्नाक ने जिन तीन गांवों को मिलाकर कलकत्ते की स्थापना की, उनमें एक गांव सूतानुटी था. बाकी दो थे गोबिंदपुर और कलिकाता. चार्नाक खुद सूतानुटी में ही बसे. आज सूतानुटी सिर्फ शोभा बाज़ार के नाम के साथ लगा हुआ मिलता है और इससे पहचान की जाती है उस इलाके की, जिसे फिल्मकार जॉर्गन लेथ ने लार्स वॉन ट्रायर के पूछने पर दुनिया का नर्क कहा था. इसी नर्क को लोग सोनागाछी के नाम से जानते हैं. सोनागाछी को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएं हैं, मिथक हैं, कहानियां हैं. जिंदगी के अंधेरे कोनों में सोनागाछी एक कामना है, ईप्सा है, लालसा है. जिंदगी की धूप में सोनागाछी लाखों लोगों के लिए रोटी है, पानी है. कहते हैं कि यह एशिया का सबसे बड़ा यौनकर्म केंद्र है. सैकड़ों कोठे और हज़ारों यौनकर्मी- जैसा हमने पढ़ा है. बेशक, ऐसा ही होना चाहिए. रबींद्र सरणी पर बढ़ते हुए शाम के आठ बजे अचानक बाएं हाथ एक गली में सजी-संवरी लड़कियां कतार में दीवार से चिपकी खड़ी दिखती हैं. बाहर जिंदगी अनवरत जारी है. भीतर गलियों में जाने पर एक विशाल मंडी अचानक नज़रों के सामने खुलती है, कहीं कतारबद्ध, कहीं गोलियाए, कहीं छितराए- सिर्फ औरतें ही औरतें. हमें डराया गया था, चेताया गया था, लेकिन जिन वजहों से, वे शायद ठीक नहीं थीं. हमें डर लगा वास्तव में, लेकिन उन वजहों से जिनसे इंसान भेड़ों में तब्दील हो जाते हैं. इस इलाके की पूरी अर्थव्यवस्था देह के व्यापार से चलती है और यह इलाका इतना छोटा भी नहीं. यह दिल्ली के श्रद्धानंद मार्ग जितना सघन भी नहीं, कि अमानवीय होने की भौगोलिक सीमा को छांट कर इंसानी सभ्यता को कुछ देर के लिए अलग कर लिया जाए. यहां जिंदगी और धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ती जिंदगी के बीच फर्क करना मुश्किल है. देवघर का पानवाला, समस्तीपुर का झालमूड़ी वाला, आगरे का मिठाई वाला, कलकत्ता का चप्पल वाला, सब यहीं सांस लेते हैं, जिंदा रहते हैं. चप्पल वाला कहता है, \\\’\\\’आगे जाइए, वर्ल्ड फेमस जगह है, बहुत कुछ देखने को मिलेगा….\\\’\\\’ दिल्ली में अजमेरी गेट से आगे निकलते ही अगर पूछें, तो इस सहजता से श्रद्धानंद मार्ग जाने को कोई कहता हुआ मिले, यह कल्पना करना कठिन है. दिल्ली में जो नज़रें पीछा करती हैं, उनमें इंसान और इंसान के बीच फांक होती है. वहां हिकारत है, अंधेरी बदनाम सड़कों पर जाना आपको संदिग्ध बनाता है. कदम-कदम पर निषेधाज्ञाएं हैं. यहां नहीं है. इसीलिए हम बड़ी आसानी से सोनागाछी में घुस जाते हैं, टहल कर निकल आते हैं और करीब आधे घंटे के इस तनाव में सिर्फ एक शख्स करीब आकर कान में पूछता है, \\\’\\\’चलना है क्या सर…?\\\’\\\’ हमारी एक इनकार उसके लिए काफी है.
सोनागाछी कलकत्ता के बाहर से विशिष्ट लगता है, लेकिन वहां रहते हुए उसकी जिंदगी का एक हिस्सा. ज़रूरी हिस्सा. चूंकि शोभा बाज़ार, गिरीश पार्क, बहू बाज़ार, बड़ा बाज़ार और यहां तक कि चितपुर में जिंदगी इतनी सघन और संकुचित है; चूंकि बसों और मेट्रो में मौजूद महिलाओं का होना अलग से नहीं दिखता; चूंकि गली में खड़ी लड़की और गली के बाहर एक दुकान पर बैठी सामान बेचती लड़की एक ही देश-काल को साझा करती है; चूंकि बाहर से आया आदमी अमानवीयता की सीमा को पहचान नहीं पाता; चूंकि यहां जितना व्यक्त है उतना ही अव्यक्त; चूंकि एक दायरा है जिसमें सब, सभी को जानते हैं, पहचानते हैं और इसीलिए एक साथ बराबर खुलते या बंद होते हैं; इसलिए यह शहर एक भव्य संग्रहालय की मानिंद हमारे सामने खुलता है. इसके लोग जिंदगी जीते हैं अपने तौर से, जहां की खटर-पटर शायद हम सुन नहीं पाते या फिर जिंदगी की आवाज़ ने खटराग को अपने भीतर समो लिया है. इसका कलकत्ता की सड़कों से बेहतर समदर्शी और क्या हो सकता है. जितनी और जैसी जिंदगी घरों-मोहल्लों में, उतनी ही सड़कों पर. ट्राम, कार, टैक्सी, पैदल, ठेला, हाथ रिक्शा, बस, मिनीबस, ट्रक, सब कुछ एक साथ सह-अस्तित्व में है. बड़ा बाज़ार एक आदर्श पिक्चर पोर्ट्रेट है. किसी को कोई रियायत नहीं. सड़क पर बिछी पटरियां हैं, पटरियों में धंसी सडक. ट्राम का होना और नहीं होना दोनों एक किस्म के अनुशासन से बंधा है. एक साथ दो दिशाओं से दो ट्रामें आती हैं, तब भी यह अनुशासन नहीं बिगड़ता.
जिसे हम सह-अस्तित्व कह रहे हैं, वही इस शहर का जनवाद है. ज़ाहिर है यह एक दिन में नहीं पनपा होगा. किसी भी शहर की संस्कृति एक दिन में नहीं बनती. उत्तरी 24 परगना के रहने वाले कलकत्ता में ही पले-बढ़े टैक्सी ड्राइवर सुबोध बताते हैं, \\\’\\\’यह शहर ज़रा सुस्त है. बंगाली आदमी खट नहीं सकता. उसकी प्रकृति में ही नहीं है. इसीलिए यहां खटने वाला सब काम बिहारी लोग करता है.\\\’\\\’ ज़ाहिर है, जो शहर खटता नहीं, वह सोचता होगा. सोचने वाले शहर का पता इसकी कला, साहित्य, सिनेमा, संस्कृति आदि में ऊंचाई से मिलता है. बनारस और इलाहाबाद खुद को इस मामले में इसीलिए कलकत्ता के सबसे करीब पाते हैं. यह बात अलग है कि जनवाद के प्रत्यक्ष निशान जो कलकत्ता में हमें दिखते हैं, वे निश्चित तौर पर पब्लिक स्पेस में वाम सरकार के दखल का परिणाम होंगे. ठीक वैसे ही, जैसे बनारस धार्मिक प्रतीकों से पटा पड़ा है चूंकि वहां ब्राह्मणवाद के मठों का राज रहा है. यह ब्राह्मणवाद अपने अभिजात्य स्वरूप में बहुत महीन स्तर पर कलकत्ता में अभिव्यक्त होता है, बनारस जैसा स्थूल नहीं. गीतेश शर्मा इसे वाम की कामयाबी के तौर पर गिनाते हैं. वरना क्या वजह हो सकती थी कि कालीघाट के प्रसिद्ध काली मंदिर में मिथिला के पंडों का राज है, बंगालियों का नहीं? इस वाम प्रभाव का एक और संकेत यह है कि देश के बाकी शहरों की तरह यहां गांधी-नेहरू परिवार के नाम पर भवनों, सड़कों, पार्कों, चौराहों का आतंक नहीं है. इस लिहाज से कलकत्ता आज़ादी के बाद देश भर में पसरे कांग्रेसी परिवारवाद का एक एंटी-थीसिस बन कर उभरता है जिसे लेनिन, शेक्सपियर, कर्जन, लैंसडाउन जैसे नाम वैभव प्रदान करते हैं.
यह जनवाद मूल बाशिंदों की बुनियादी ईमानदारी में भी झलकता है. मैं एक दुकान पर रात में चार सौ रुपए भूल आता हूं और अगली दोपहर मुझे बड़ी सहजता से वे पैसे लौटा दिए जाते हैं. यह घटना कलकत्ता के बाहरी इलाके में घटती है, बनहुगली के पार डनलप के करीब. बाहरी इलाके आम तौर पर शहर की मूल संस्कृति से विचलन दिखाते हैं, एक कस्बाई लंपटता होती है ऐसी जगहों पर. कलकत्ता में ऐसा नहीं है, तो इसलिए कि लोगों में अब भी सरलता-सहजता बची है. मुख्य चौराहों पर ट्रैफिक लाइट को भीड़ के हिसाब से नियंत्रित करने के लिए बिजली के डिब्बे के भीतर बटन दबाते रहने वाले यातायात पुलिसकर्मी का हाथ इस जनवाद की विनम्र नुमाइश है. कोई सेंट्रल कंट्रोल रूम नहीं जो शहर की भीड़ को एक लाठी से हांकता हो. जैसी भीड़, वैसी बत्ती. सफेद कपड़ों में गेटिस वाली पैंट कसे चौराहे पर तैनात ट्रैफिक पुलिसवाला जब रास्ता बताता है, तो उससे डर नहीं लगता. जिस शहर में पुलिस से डर नहीं लगता, वहां के लोग क्या खाक डराएंगे. इंसान, इंसान से महफूज़ है. यही कलकत्ता की थाती है. बिशेन दा ने बातचीत में कहा था कि कलकत्ता में बम नहीं फूटता, दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद में फूटता है. इस बात पर किसी ने गौर किया कि नहीं, मैं नहीं जानता. लेकिन यह सच तो है.
आखिरी दिन हम मुसाफिर के यहां खड़े पान बंधवा रहे थे. उधर कुर्सी पर बैठा डॉन कुछ अजीब सी आवाज़ें निकाल रहा था. उसे देखने की आदत में यह असामान्य हरकत हमें नागवार गुज़रती है. अचानक वह उठता है, गली में बहती नाली के सामने खड़े होकर नाड़ा खोल देता है. सरेआम पेशाब की तेज़ धार से हमारा ध्यान टूटता है. मैंने पूछा, \\\’\\\’कैसी आवाज़ निकाल रहे थे ये?\\\’\\\’ \\\’\\\’प्रैक्टिस कर रहे थे बोलने की… हर्ट अटैक हुआ था न, तब से आवाज़ चली गई है\\\’\\\’, मुसाफिर जाते-जाते इस शहर का आखिरी राज़ खोलते हैं. जो अब तक संग्रहालय की वस्तु थी, वह अचानक सहानुभूति का पात्र बन जाती है. मित्र कहते हैं, यह कलकत्ता है महराज, जहां का डॉन भी बेज़ुबान है. कौन नहीं रह जाएगा इस शहर में? चंपा ठीक कहती थी, कलकत्ते पर बजर गिरे….