पी चिदंबरम ने जब कहा कि कोयला के मामले में न तो कोई घोटाला हुआ है और ही देश को कोई नुकसान, क्योंकि कई कंपनियों ने तो कोयला खदान से कोयला निकाला ही नहीं. यानी जब ज़मीन से कोयला निकालकर बेचा ही नहीं गया तो नुकसान कैसे हो गया? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब कई लोगों को अब भी समझ में नहीं आ रहा है और शुरुआती दौर में चिदंबरम सहित कांग्रेस को भी नहीं आया होगा. शायद इसलिए 22-23 दिन पहले कांग्रेस ने कोयला नहीं खोदने की बात उछाली थी, लेकिन इस बात को दफ़्न करने में पार्टी ने दो दिन-तीन से ज़्यादा का वक़्त नहीं लगाया और इसके बाद कांग्रेस लगातारविपरीत पहलू पर सक्रियता दिखाने की कोशिश कर रही है कि जिन कंपनियों ने खनन नहीं किए उनको घेरा जाए. कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने अंतर-मंत्रालयी समूह यानी आईएमजी के माध्यम से 29 निजी कंपनियों को सवाल-जवाब करने के लिए 6-7-8 सितंबर को मंत्रालय बुलाया भी था.
आईएमजी के भीतर की मौजूदा स्थितियों की पड़ताल करने से पहले ऊपर उठाए गए सवाल को समझना ज़रूरी है. असल में कोयला ब्लॉक आवंटन की जो प्रक्रिया यूपीए-1 और यूपीए-2 ने अपनाई वो नई नहीं है. सन 1993 से यही प्रक्रिया अपनाई जा रही है. अलबत्ता यूपीए-1 ने नियम को बदलने की बात करते हुए कंपनियों के बीच कोयला ब्लॉक की नीलामी का नियम बनाया था. ये अलग बात है कि इसे अपनाया कभी नहीं गया. जिस बीजेपी ने इस मुद्दे पर संसद नहीं चलने दी, उसके भी किसी मुख्यमंत्री ने इसे नहीं अपनाया. कैग की जिस हालिया रिपोर्ट को लेकर हंगामा शुरू हुआ है उसमें सन 2004-2009 के बीच आवंटित कोयला खदानों की समीक्षा की गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि आवंटन में हुई गड़बड़ियों की वजह से कंपनियों को 1.86 लाख करोड़ रुपए का औचक लाभ हासिल हुआ और जाहिर है इस लाभ के ऐवज में देश को उतना ही नुकसान उठाना पड़ा.
विशुद्ध तकनीकी तौर पर देखें तो सवाल निजी कंपनियों को खदान आवंटित करने-नहीं करने का नहीं है. हर सरकार की अपनी नीति होती है जिसमें वो फेर-बदल करके तत्कालीन ज़रूरतों के लिहाज से फ़ैसला लेती है. 2004 के आस-पास सीमेंट की कीमतों में हुई बढ़ोतरी और ऊर्जा की ज़्यादा मांगों के बीच सरकार ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इसके उत्पादन को बढ़ाए जाने की ज़रूरत है. (हालांकि सीमेंट और ऊर्जा परियोजनाओं के उस समय का विश्लेषण करेंगे तो कुछ अलग निष्कर्ष पर आप पहुंच सकते हैं, लेकिन विषयांतर की वजह से मैं इस पर नहीं जा रहा.) लिहाजा सरकार का मानना था कि ऐसी कंपनियों को प्लांट लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. सरकारी कंपनियों की क्षमता को नाकाफ़ी मानते हुए सरकार ने इस काम के लिए निजी कंपनियों के लिए भी दरवाज़ा चौड़ा किया. किसी भी सीमेंट या ताप ऊर्जा परियोजना को चालू करने के लिए कोयला सबसे बुनियादी संसाधन है. जाहिर है निजी कंपनियों ने कोयला खदानों के लिए मंत्रालय के पास अर्जी दाख़िल की. सवालों और आपत्तियों का सिलसिला यहीं से शुरू होता है.
पहला सवाल ये है कि आवंटन के दौरान यूपीए-1 ने अपनी बनाई नीति यानी नीलामी की प्रक्रिया को लागू क्यों नहीं किया? दूसरी आपत्ति इस बात पर जताई जा रही है कि कुछ कंपनियोंको रातों-रात खदान आवंटित कैसे हो गए? इसके अलावा कई कंपनियां ऐसी हैं जिनमें मालिकाने ओहदे पर नेताओं के रिश्तेदार काबिज हैं. कुछ कंपनियां मीडिया घरानों की हैं. केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय के भाई सुधीर कुमार सहाय एसकेएस इस्पात एंड पावर में मानद निदेशक के पद पर हैं. जायसवाल नेको कंपनी के तार कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से जुड़े बताए जा रहे हैं. कांग्रेस के समर्थन से झारखंड में मुख्यमंत्री बने निर्दलीय मधु कोड़ा के कई करीबियों को कोयला खदान हासिल हुआ. विनी आयरन एंड स्टील उद्योग लिमिटेड का नाम ख़ास तौर पर सामने आ रहा है. इस कंपनी के मालिक विजय जोशी को कोडा के करीबियों में गिना जाता है. झारखंड राज्य में कोडा ने 13 निजी कंपनियों को खदान बांटे. सीबीआई के मुताबिक इनमें कई कंपनियों की स्थापना ही आवंटन से ठीक पहले हुई, यानी कह सकते हैं कि आवंटन के लिए ही कंपनी बनाई गई. महाराष्ट्र में मनोज जायसवाल से साथ मिलकर राजेंद्र दर्डा और उनके भाई व कांग्रेस सांसद एवं लोकमत मीडिया समूह के मालिक विजय दर्डा ने जस इंफ्रास्ट्रक्चर कैपिटल प्राइवेट लिमिटेड में दांव खेला. व्यवसायी नवीन जिंदल के बारे में सब जानते हैं कि वो कांग्रेस सांसद है और कोयला आवंटन में उनके जिम्मे भी खदान आए. कोयला के इस खेल में कंपनियों और नेताओं के साथ सांठ-गांठ के और भी उदाहरण हैं, लेकिन फिलहाल हम तीसरे सवाल पर आते हैं.
तीसरा सवाल है कि इन कंपनियों को किस दर में ये खदान आवंटित हुए? क्या क़ीमत में कटौती की गई? सरकार के पास जमा करने के लिए कंपनियों ने कैसे रुपए जमा किए? कंपनियों ने कर्ज़ कहां सेऔर कैसे लिए? भारतीय कॉरपोरेट लूट के मॉडल को समझने के लिए इस सवाल को समझना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. एक उदाहरण लेते हैं- मान लीजिए आपको ऊर्जा परियोजना की कंपनी खोलनी है और आपके पास पैसे नहीं हैं तो आप क्या करेंगे?सबसे पहले आप बैंक से चिरौड़ी करेंगे कि वो आपको कर्ज़ दे दें, लेकिन सैंकड़ों या हज़ारों करोड़ रुपए रवां-दवां तरीके से तो बैंक आपको देगा नहीं. फिर आपके पास क्या विकल्प बचता है?आप जमा के तौर पर बैंक को कुछ दिखाइए, बैंक आपके घर तक पैसे पहुंचा जाएगा! कंपनियों ने दांव खेला. कुछ पैसे लगाकर कोयला खदान ख़रीद लिया और फिर बैंक को जमा के तौर पर वो खदान दिखा दिया. तापीय ऊर्जा परियोजना के वास्ते जो सबसे ज़रूरी चीज़ होती है वो है कोयला. ….और अब वो आपके पास है. यानी बैंक का भरोसा जीतने के लिए इससे ज़्यादा आपको कुछ चाहिए भी नहीं! इस आधार पर अब हज़ारों करोड़ रुपए सरकारी बैंक आपको बतौर कर्ज दे देगी. आपने पैसे लगाए, सरकार से कोयला ख़रीदा. बदले में सरकार ने बैंक से आपको पैसे दे दिए. जितने का आपने कोयला खदान ख़रीदा उससे ज़्यादा पैसे दे दिए.
अब चौथे और सबसे अहम सवाल की तरफ़ चलते हैं कि आख़िरकार जब कंपनियों ने कोयला खदान ख़रीदा तो कोयला निकाला क्यों नहीं?कोयला नहीं निकालना घोटाला कैसे हो गया? अंतर-मंत्रालयी समूह ने खनन का काम शुरू नहीं करने वाली कंपनियों को नोटिस क्यों जारी किया? क्यों आख़िरकार रिलायंस से लेकर टाटा और आर्सेलर मित्तल जैसी कंपनियां काम शुरू नहीं कर पाईं? और क्यों आख़िरकार सारी कंपनियां सफ़ाई के मोड पर आ गई है और वो अगले साल या फिर अगले कुछ महीनों में काम शुरू करने का वादा कर रही है?कोयला खदान ख़रीदने के बाद परती छोड़ देने से कंपनियों का कौन सा हित सधता है? एक बार फिर उदाहरण का सहारा लेते हैं- मान लीजिए आपको अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए पैसों की दरकार है और कोयला खदान दिखाकर आपने बैंक से पैसे हासिल भी कर लिए. कोयला खदान जिस उद्देश्य से आपने लिया वो किसी अन्य वजह से अटका हुआ है, तो आप क्या करेंगे? जाहिर है एक व्यवसायी की तरह बैंक से हासिल पैसों को दूसरे खेल में लगाएंगे. आपके पास पैसा है और बाज़ार आपके सामने है. पैसे को बाज़ार में आपने फ़ेंक दिया. बाज़ार के इस खेल से आपको फुरसत नहीं हुई कि कोयला खदान पर भी काम करना है. आपको बाज़ार वाले काम में ज़्यादा मुनाफ़ा मिल रहा है. बाज़ार में पैसा लगाने के लिए बैंक कोयला खदान के आलावा और किसी भी आधार पर आपको इतने कर्ज़ नहीं देता. सरकार ने आपको कोयला खदान दिया कि आप ऊर्जा परियोजना शुरू करेंगे या फिर सीमेंट उत्पादन शुरू करेंगे. यानी सरकार के मुताबिक देश की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करेंगे. आपने अगले 5-7 साल में कुछ किया ही नहीं!
सरकार ने एक ऐसी कंपनी को ऊर्जा ज़रूरत पूरा करने का ज़िम्मा दिया जिसने ऊर्जा की पूर्ति के लिए एक अदद खंभा भी नहीं गाड़ा. चिदंबरम यहीं घिर जाते हैं. वित्त मंत्री रह चुके हैं, सब जानते हैं. वेदांता में काम कर चुके हैं, सब जानते हैं. बस्स कभी-कभी भोले और नादान बनकर बचकाना मुद्दा उछाल देते हैं. ..और कंपनियों का क्या है चरम केस में वो चाहे तो खुद को दिवाला घोषित कर सकती है. कोर्ट में पेशी होगी तो ज़्यादा से ज़्यादा किश्तों पर पैसे चुकाने पर राजी हो जाएगी. रियल इस्टेट में ये खेल खूब खेला जाता है. कोयला में खेलने का सुनहरा मौका है कंपनियों के पास. खेलकर देश लूटने का मौका!