एरियल नेताओं का टायर पंचर
Mar 10, 2012 | मृगेंद्र पांडेयपांच राज्यों में हुए चुनाव के परिणामों ने सबसे ज्यादा निराशा राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के खाते में आई है. कांग्रेस और भाजपा ने पूरे जोर-शोर के साथ प्रचार किया. दोनों ही दलों ने स्थानीय नेताओं के स्थान पर केंद्रीय नेताओं को ज्यादा तरजीह दी, लेकिन वे सभी कोई करिश्मा करने में कामयाब नहीं हो पाए. चाहे बात कांग्रेस के दिगिवजय सिंह की हो या फिर भाजपा की उमा भारती. दोनों की रणनीति, राजनीतिक समझ और चुनावी कौशल उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से धाराशाही हो गया.
दरअसल उत्तर प्रदेश में दोनों राष्ट्रीय दल अच्छे और लुभावने विज्ञापनों के सहारे मैदान में उतरे थे. किसी ने इस बात की परवाह नहीं की कि स्थानीय नेताओं को इन विज्ञापनों में जगह देनी चाहिए. जबकि जनता के बीच तो स्थानीय नेता ही रहता है.
मध्यप्रदेश की राजनीति से निकले यह नेता जनता को यह भरोसा नहीं दिला पाए कि वे जो सोच रहे हैं, वह उनके भले का है. यही कारण है कि चुनावी मेंढक के रूप में सामने आए नेताओं पर आम जनता को विश्वास ही नहीं हुआ. वहीं, समाजवादी पार्टी की पूरी टीम लोकल थी, जिसका उनको पूरा फायदा मिला.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने पूरा चुनावी मैनेजमेंट राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी और उनकी टीम के सहारे किया. इसमें सबसे प्रमुख भूमिका में राष्ट्रीय महासचिव दिज्विजय सिंह रहे. चाहे उम्मीदवारों का चयन हो या फिर उन्हें फंड मुहैया कराने की बात. सभी जगह दिगी राजा की खूब चली. प्रचार के दौरान सबसे ज्यादा बयानबाजी भी उन्होंने ही की. लेकिन यह पार्टी को सत्ता में पहुंचाने के लिए काफी नहीं था.
राहुल के साथ युवक कांग्रेस और एनएसयूआई के नेता भी काफी सक्रिय थे. लेकिन प्रदेश के युवा मतदाताओं को रिझाने में वे भी सफल नहीं हो पाए. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रदेश के युवा मतदाताओं ने उम्मीदवारों की जाति फैक्टर के अलावा अन्य कई पैमानों पर भी परखा है. ऐसा इसलिए क्योंकि जो परिणाम सामने आए हैं उसमें जाति का विशेष रोल समझ में नहीं आ रहा है.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी ने उमा भारती और किरीट सोमैया जैसे नेताओं को कमान सौंपी थी. चुनाव प्रचार के बीच में यह घोषणा भी कर दी गई कि अगर सरकार बनती है, तो उमा भारती मुख्यमंत्री होंगी. बावजूद इसके उत्तर प्रदेश के मतदाओं पर इस अपील का कोई खास प्रभाव नहीं हुआ. पूरे चुनाव अभियान के दौरान इन्हें यहां की जनता बाहर का नेता ही मनती रही.
रही बात जातिगत समीकरण की, तो भाजपा उमा भारती को लाकर उसमें भी सफल नहीं हो पाई है. भाजपा को उम्मीद थी कि पिछड़ा वोटर उमा के आने के बाद उनसे जुड़ेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. किरीट सोमैया भले की इनर सर्कल में काम कर रहे हो, लेकिन उनके अनुमान भी पूरी तरह से फेल रहे.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल एरियल नेताओं की जगह स्थानीय स्तर पर छत्रपों की तलाश करती तो आज परिणाम कुछ अगल ही होता.