घृणा और हिंसा को स्टेट पावर का समर्थन हासिल है

Nov 17, 2015 | PRATIRODH BUREAU

धर्म आधारित फासीवाद जाति और जेंडर के स्तर पर हिंसा को वैधता प्रदान करता है : उमा चक्रवर्ती

घृणा और हिंसा को स्टेट पावर का समर्थन हासिल है : उमा चक्रवर्ती

‘हिंसा की संस्कृति बनाम असहमति, चुनाव और प्रतिरोध’ विषय पर उमा चक्रवर्ती ने चौथा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान दिया

लोकतांत्रिक समाज में प्रतिरोध के स्वर का होना जरूरी है : मंगलेश डबराल

‘‘हमारे देश में जो फासीवादी माहौल बना है, उसके पीछे एक लंबी प्रक्रिया रही है। यह धर्म आधारित फासीवाद है, जो जाति और जेंडर के स्तर पर हिंसा को वैधता प्रदान करता है। घृणा और हिंसा को स्टेट पावर का समर्थन हासिल है। कल तक आपस में एक दूसरे समुदाय पर जो आक्षेप लोग घरों के भीतर बैठकर लगाते थे, जो गंदगी दबी हुई थी, अब उसे खुल्लममखुल्ला मान्यता मिल गई है।’’ 7 अक्टूबर को गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में ‘हिंसा की संस्कृति बनाम असहमति, चुनाव और प्रतिरोध’ विषय पर चौथा कुबेर दत्त स्मृति व्याख्यान देते हुए मशहूर नारीवादी और इतिहासकार उमा चक्रवर्ती ने यह कहा।

उमा चक्रवर्ती ने कहा कि डॉ॰ नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे तो तर्कवादी बुद्धिजीवी थे, कलबुर्गी तो उसी समाज के बारे में लिख रहे थे, जिसकी जाति और कर्मकांड विरोधी परंपरा थी, लेकिन उसे भी बर्दाश्त नहीं किया गया। अब तो हालत यह हो गई है कि हम अपनी ही परंपरा को खोलकर नहीं देख सकते, क्योंकि हमारे ऊपर जो ठेकेदार बैठे हैं, वे हमारा मुंह दबा देंगे। जो हमारी परंपरा है उसके भीतर भी हम उतरेंगे तो हम पर इल्जाम लगेगा कि हम भावनाओं को आहत कर रहे हैं। भावनाएं आहत होने को आज एक तरह से संवैधानिक अधिकार बना दिया गया है। आज के जमाने में ज्योति बा फुले होते, तो उन्हें भी मार दिया जाता।

202ec770-ebc8-4ac2-82dd-b5138b09bbc8उमा चक्रवर्ती ने कहा कि आज जो बगावत शुरू हुई है, वह देर से ही सही पर दुरुस्त शुरुआत है। सोचने और चुनने का अधिकार और उसके अनुरूप क्रियाशील होना हमारा बुनियादी अधिकार है। इसका कोई मतलब नहीं है कि पहले क्यों नहीं बोले, अब क्यों बोल रहे हैं? आनंद पट्टवर्धन ने तो कहा कि वे इमरजेंसी के खिलाफ थे, तो उनसे पूछा जा रहा है कि माओइस्टों के खिलाफ क्यों नहीं बोला? कारपोरेट मीडिया में जो डिबेट हो रहा है, उसके जरिए एक पोलराइज्ड हिस्टिरिया निर्मित की जा रही है। एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि कोई किसी चीज के बारे में कुछ बोल नहीं सके।

उमा चक्रवर्ती ने यह भी संकेत किया कि इस उन्माद और हिंसा का जनविरोधी आर्थिक नीतियों को ढंकने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है। वे नहीं चाहते कि बजट में जो कटौती हो रही है, उस पर कोई बात हो। अब हमारे सामने सवाल यह है कि हम कैसे अपनी बात कहेंगे, कैसे लिखेंगे, कैसे दूसरों से बातचीत करेंगे? कैसे हम अंततः कोई राजनीतिक गोलबंदी करेंगे?

उमा चक्रवर्ती ने कहा कि सांप्रदायिकता आज की चीज नहीं है, इसका लंबा इतिहास है। उन्होंने कुछ घटनाओं का जिक्र करते हुए बताया कि लिंग और जाति के स्तर पर मौजूद मानवविरोधी व्यवहार भी सांप्रदायिक शक्तियों के लिए मददगार सिद्ध हो रहा है। उन्होंने कहा कि जिस समाज में अंतर्जातीय शादियों पर घिनौनी प्रतिक्रियाएं होती हैं, वहां बाबू बजरंगी पैदा होंगे ही। उसने कहा था कि हर हिंदू घर में एक एटम बम है यानी घर में जो लड़की है, वह एटम बम है, कभी भी फूट सकती है, क्योंकि वह कभी भी किसी के साथ जा सकती है, क्योंकि उस लड़की के हाथ में यह अधिकार है कि वह किसी को चुन लेगी। इसकी गहरी वजह हमारी सामाजिक संरचना में है। यही मानसिकता ‘लव जेहाद’ का प्रचार करती है, जिसे लेकर दंगे हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि राजनीति हर चीज में है। किस तरह का घर होगा, किस तरह की शादी होगी, किस तरह का कौम बनेगा, किस तरह का हमारा देश बनेगा, ये सवाल राजनीति से अलग नहीं हैं। मुझे लगता है कि फासिज्म तो हमारे प्रतिदिन के जीवन में है। उन्होंने कहा कि सहिष्णुता तो हमारी सामाजिक संरचना में है ही नहीं। पहले जो लोग अपनी जीवन शैली थोड़ी –सा बदलते थे तो समाज उन्हें बहिष्कृत कर देता था, आज तो मार ही दिया जा रहा है। मीडिया की छात्रा निरूपमा जो ब्राह्मण थी और कायस्थ लड़के से प्रेम करती थी, उसकी मौत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उसके पिता ने उसे चिट्ठी लिखी थी कि तुम जिस संविधान की बात कर रही हो, उसको सिर्फ साठ साल हुए हैं, हमारा संविधान जो है वह 2000 साल का है। उनका जो संविधान है वह ब्राह्मणवादी मान्यताओं पर आधारित है।

उमा चक्रवर्ती ने कहा कि आज हाशिये के समाजों से चुनौती आएगी ही आएगी। वे लोग अपना हक मांगेंगे, कोई भी चुप नहीं रहने वाला। युवाओं की ओर से भी चुनौती आ रही है। वे बड़े दायरे में चीजों को देख रहे हैं, उनमें प्रश्नात्मकता आई है। आपातकाल के दौरान बुद्धिजीवियों की भूमिका को याद करते हुए उन्होंने कहा कि शासकवर्ग देख रहा है कि विश्वविद्यालयों से भी चुनौती आ रही है, तो वहां भी हिंसा जरूर आएगी, हमें उसका विरोध करना होगा। सार्वजनिक बयानों से कुछ तो फर्क पड़ा है। आगे चलकर हमें देखना होगा कि हम किस तरह का प्रतिरोध और आंदोलन खड़ा कर सकते हैं। प्रतिरोध की संस्कृति को हमें बनाना होगा, उसे फिर से सृजित करना होगा। हमें हर चीज पर बोलना होगा। हक के लिए हो रही हर लड़ाई को आपस में जोड़ना होगा। अगर मैं जिंदा हूं तो बोलूंगी। बकौल फैज़ – बोल कि सच जिंदा है अब तक।

व्याख्यान के बाद श्रोताओं ने उनसे सवाल पूछे, जिसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि हम सच्चे देशभक्त हैं। देश के प्रतिनिधि सत्ताधारी नहीं हो सकते। कारपोरेट मीडिया और देश के शासकवर्ग के बीच एक तरह की मैच फिक्सिंग है। वे सोनी सोरी के टार्चर के मुद्दे को नहीं उठाते। टार्चर करने वाले अधिकारी को इस देश में गैलेंट्री एवार्ड मिलता है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब सरकार कह रही है कि लेखकों-कलाकारों का विरोध मैनुफैक्चर्ड है, तो फिर ऐसी सरकार से बात कैसे हो सकती है?

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि और जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मंगलेश डबराल ने कहा कि लेखकों ने किसी राजनीतिक या सामूहिक निर्णय के आधार पर नहीं, बल्कि अपने विवेक और जमीर के आधार पर सम्मान वापसी का निर्णय लिया, जो स्वतःस्फूर्त रूप से एक अभियान बन गया।
ef0b6902-7aeb-4cc9-bd35-c96c85ee5714उन्होंने सवाल उठाया कि क्या यह महज संयोग है कि भारत के तथाकथित राष्ट्रवादी और पाकिस्तान के उग्रवादी लगभग एक ही तरह की भाषा बोल रहे हैं? भारत में प्रतिरोध का सांस्कृतिक कर्म अगर अधिक मजबूत रहता तो ऐसी भाषा का विकास संभव न हो पाता जो अपनी प्रकृति में हिंसक और अलोकतांत्रिक है, जैसा आज आमतौर पर लोग अपने विरोधियों के लिए करते देखे जा रहे हैं। लोकतांत्रिक समाज में प्रतिरोध के स्वर का होना जरूरी है, उसका बहुमत या अल्पमत होना जरूरी नहीं। उन्होंने कहा कि देश किसी शेर की सवारी करती देवी का नाम नहीं है जिसे हम भारतमाता कहते हैं। देश, उस भूमि पर रहने वाली जनता की बहुत ठोस आकांक्षाओं और जरूरतों का नाम है जिसे जानबूझकर इन दिनों झुठलाया जा रहा है।

जसम के राष्ट्रीय सहसचिव सुधीर सुमन ने संचालन के क्रम में कुबेर दत्त की कुछ कविताओं के अंशों का पाठ करते हुए कहा कि सत्ता के इशारे पर होने वाले दमन और उसके संरक्षण में चलने वाली हिंसा का विरोध किसी भी जेनुईन रचनाकार की पहचान है। आज पहली बार एक साथ साहित्य-कला की सारी विधाओं से जुड़े लोग सामाजिक-राजनीतिक हिंसा की संस्कृति के खिलाफ खड़े हुए हैं। इस लड़ाई को जारी रखना देश और समाज के बेहतर भविष्य लिए जरूरी है।

कार्यक्रम में जमशेदपुर में इस साल जुलाई में हुए सांप्रदायिक दंगे पर फिल्म बनाने वाले युवा फिल्मकार कुमार गौरव को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद द्वारा जान से मारने की धमकी दिए जाने की भर्त्सना की गई तथा छात्रों के आक्युपाई यूजीसी आंदोलन के समर्थन में प्रस्ताव लिया गया।

इस मौके पर वरिष्ठ कवि रामकुमार कृषक, वरिष्ठ चित्रकार हरिपाल त्यागी, लेखक प्रेमपाल शर्मा, दूरदर्शन आर्काइव की पूर्व निदेशक और नृत्य निर्देशक कमलिनी दत्त, कथाकार विवेकानंद, जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चित्रकार अशोक भौमिक, चित्रकार सावी सावरकर, आलोचक आशुतोष कुमार, लेखक बजरंग बिहारी तिवारी, लेखिका अनीता भारती, संजीव कुमार सिंह, विकास नारायण राय, ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक दिनेश मिश्र, जसम उ.प्र. के सचिव युवा आलोचक प्रेमशंकर, प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी, पत्रकार प्रसून लतांत, अखिल रंजन, भाषा सिंह, उपेंद्र स्वामी, कलकत्ता से आए बुद्धिजीवी आशुतोष सिंह, कवि श्याम सुशील, तृप्ति कौशिक, शिक्षाविद राधिका मेनन, युवा कवि अरुण सौरभ, कल्लोल दास, आशीष मिश्र, वेद राव, रामनिवास, कमला श्रीनिवासन, निशा महाजन, रोहित कौशिक, राम नरेश राम,अनुपम सिंह, रविदत्त शर्मा, सोमदत्त शर्मा, चंद्रिका, असलम, दिनेश, सौरभ, पाखी जोशी आदि मौजूद थे।

सुधीर सुमन