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भावनाओं से खेलने वाले बाज़ार का पर्व

Feb 13, 2012 | अफ़रोज़ आलम 'साहिल'

फ़रवरी की 14 तारीख़… वैलेन्टाइन डे… एक सप्ताह पूर्व ही हमारे अख़बार वैलेन्टाइनमय नज़र आने लगे हैं. लोगों को वैलेन्टाइन डे से संबंधित तरह-तरह की जानकारियां दी जा रही हैं. लव-बड्स की बड़ी-बड़ी तस्वीरें फ्रंट पेज़ पर छापी जा रही हैं. अपने प्रेमिका को प्रपोज़ करने के बेशुमार तरीक़े बताए जा रहे हैं. बल्कि सच पूछिए तो ये सिलसिला फ़रवरी महीने के शुरू होते ही शुरू हो चुका था. 

 
ऐसे में हमारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कहां पीछे रहने वाली है. चुनाव के इस मौसम में भी चैनलों पर Love Crazy Contest, Valentine Comedy Shows, Valentine Message Contest आदि-आदि हावी हैं. 
 
दरअसल, संत वैलेन्टाइन की याद में मनाया जाने वाला वैलेन्टाइन डे महज़ दिल लेने और दिल देने भर का त्योहार नहीं, बल्कि मुहब्बत को एक इसेंशियल बिज़नेस कमोडिटी में परिवर्तित करने का उपक्रम भी है. यह आर्थिक उदारीकरण का भी एक सह-उत्पाद है, डेवलपिंग जनेरेशन बन रही पीढ़ी की पहचान हासिल कर रही एक प्रवृति है. वैलेन्टाइन डे एक ऐसा त्योहार है, जिसे हम सही मायनों में भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक उत्पाद मान सकते हैं. एक पूरी तरह से गढ़ा हुआ कारोबारी त्योहार.
 
एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री फ्रैंक काफरा ने जेनेवा के एक बैठक में कहा था कि दुनिया में आर्थिक गतिविधियों के बढ़ने के लिए, भूमंडलीकरण के विस्तार के लिए ज़रूरी है कि पूरी दुनिया में समान सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ें, साझे सरोकार विकसित हों, साझी स्मृतियां और साझी संवेदनाएं विकसित हों. देखा जाए तो वैलेन्टाइन डे कुछ-कुछ फ्रैंक काफरा की साझी सांस्कृतिक गतिविधियों की अमूर्त कल्पना का ही त्योहार है. 
 
इस भूमंडलीकृत विश्व में यदि किसी एक सांस्कृतिक प्रतीक को चिन्हित करने के लिए कहा जाए तो शायद ही वैलेन्टाइन डे से बढ़िया कोई प्रतीक मिले. वैलेन्टाइन डे विश्व ग्राम और विश्व नागरिक बनने की तरफ़ बढ़ते युग का प्रतीक है. कांगो के बेसिन से लेकर कावेरी तट तक शायद ही दूसरा ऐसा त्योहार हो जिसके मनाने वाले इतने विविध, इतने रंग-बिरंगे और इतनी ज़्यादा स्मृतियों वाले हों. यहां तक कि इस मामले में  हैटिंग्टन की थ्योरी भी एक तरह से देखे तो फेल दिखती है. हैटिंग्टन कहते हैं कि दुनिया लगातार सांस्कृतिक आग्रहों के सभ्यतागत दायरे में सिमट रही है. इसीलिए तमाम सभ्यताओं के बीच द्वंद की स्थिति पैदा हो गई है.
 
ख़ैर इन्हीं अख़बारों में वैलेन्टाइन डे के विरोध की भी बहुत सी खबरें हर वर्ष देखने को मिल जाती हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी ऐसी खबरों को खूब परोसती है, पर इनके दिखाने के अंदाज़ से ऐसा लगता है कि वो इन विरोधों का विरोध कर रहे हैं और वैलेन्टाइन डे का समर्थन. बहरहाल, बात विरोध की हो या समर्थन की, सच तो यही है कि आधी-अधूरी ऐतिहासिकता वाली यह पर्व स्वतः स्फूर्त नहीं है. इसमें आधुनिक तकनीक, प्रबंधन की नायाब कला और कारपोरेट पूंजी की असीम ताक़त का सोचा-समझा मिश्रण है और अगर बात मीडिया की की जाए तो उन्हें आज सामाजिक सरोकारों से कोई खास लेना-देना रह नहीं गया है. 
 
सच तो ये है कि मीडिया  पब्लिक के लिए नहीं, सिर्फ अपने ग्राहकों के हितों का ध्यान रखने की ओर उन्मुख हो चला है. वैसे भी मध्य वर्ग के लिए मीडिया एक प्रोडक्ट से अधिक कुछ नहीं है.
 
यही कारण है कि वैलेन्टाइन डे कारपोरेट जगत द्वारा खुब प्रचारित किया जा रहा है ताकि इस अवसर पर प्यार के मारे बेवकूफों को गुमराह करके हज़ारों करोड़ों रूपये का बिज़नेस किया जा सके, और मीडिया भी इस बहती गंगा में हाथ धोने के खातिर कारपोरेट जगत का खुब साथ दे रही है. आपको जानकर शायद हैरानी होगी, पर ये सच है कि ऑनलाइन ई-कॉमर्स के मार्केट में सिर्फ जयपूर शहर से अकेले रेड रोज फ्लॉवर्स का कारोबार करीब 70 लाख तक होने की उम्मीद है, जबकि चॉकलेट-केक्स की जमकर शॉपिंग की जा रही है, इसका आंकड़ा अलग है. ई-कॉमर्स से जुड़े एक्सपर्ट्स का कहना है कि जयपुर शहर में महज दो दिनों के भीतर डेढ़ करोड़ से अधिक का कारोबार होगा. बाकी शहरों का अंदाज़ा अब आप खुद ही लगा सकते हैं.
 
अब ज़रा आप स्वयं सोचिए कि जब कारपोरेट जगत व मीडिया दोनों का एक ही मक़सद हो तो वैलेन्टाइन डे क्यों पूरे देश में न फैले? ऐसे में विरोध करने वालों और समाज के ज़िम्मेदार लोगों (जो संस्कृति की दुहाई देते हैं) को चाहिए कि वे समाज के साथ-साथ मीडिया का भी सोशल ऑडिटिंग करें, क्योंकि जब तक मीडिया में समाजिक जवाबदेही की प्रतिबद्धता पैदा नहीं होगी, तब तक प्रोफेशनलिज़्म और आधुनिकीकरण  के नाम पर वैलेन्टाइन डे जैसे त्योहार को बढ़ावा मिलता रहेगा.

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