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विकास, जो लोगों को कुत्तों से बदतर समझे

Oct 14, 2011 | अंजनी कुमार

यह विडंबना है पर एक क्रूर सच्चार्इ है. कारपोरेट जगत और उनका अखबार मारूति सुजुकी में चल रहे मजदूर आंदोलन के बढ़ते चरण की गिनती कर रहा है: हड़ताल का पांचवा दिन, छठा दिन, सातवां दिन, आठवां दिन, ….. इस गिनती को वॉल स्ट्रीट जर्नल, इकॉनमिक वाच, द इकॉनामिस्ट… भी पढ़ रहे हैं. 

 
यह गिनती कारपोरेट जगत को घड़ी की टिक टिक की तरह डरा रही है. यह आंदोलन मारूति सुजुकी, मानेसर के प्लांट न. दो से शुरू हुआ और जैसे जैसे समय की सूर्इ आगे बढ़ती गर्इ है इसका फैलाव मानेसर में स्थित मारूति सुजुकी के अन्य पांच प्लांटों में फैल गया. मारूति सुजुकी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, मारूति सुजुकी पावरट्रेन इंडिया, सुजुकी कास्टिंग, सुजुकी मोटरसाइकिल इंडिया प्रा. लि. के मजदूरों ने सबसे पहले 7 अक्टूबर 2011 से टूल डाउन यानी काम बंद कर दिया और फैक्टरी से बाहर निकलने से मना कर दिया.
 
सारे मजदूर फैक्टरी परिसर में बने हुए हैं. इसी दिन ल्यूमैक्स आटो टेक्नालाजी प्रा. लि., सत्यम आटो कंपोनेन्ट प्रा. लि., इंडयोरेंस टेक्नोलाजी प्रा. लि. और हार्इ-लैक्स इंडिया प्रा. लि. व बजाज प्रा. लि. में मजदूरों ने टूल डाउन किया. 
 
मारूति सुजुकी, मानेसर के सभी प्लांटों में टूल डाउन जारी है जिसके चलते मारूति सुजुकी- गुड़गांव में, जहां प्रबंधन ने मजदूरों को हड़ताल पर जाने से रोका हुआ था, तकनीकी सप्लार्इ के अभाव में अब काम बंद हो गया है.
 
मानेसर व गुड़गांव के विशाल औद्योगिक क्षेत्र में चल रहे उत्पादन के बीच मजदूरों की सुगबुगाहट इस कदर सुलग रही है कि कारपोरेट जगत न केवल हड़ताल के दिनों की गिनती कर रहा है साथ ही वह सरकार के आयरन हैंड के सक्रिय हो जाने का गुहार भी लगा रहा है.
 
इस बीच प्रबंधन ने कर्इ बार बाउंसरों (पहलवान गुन्डों) से मजदूरों पर हमला कराया. आसपास के दबंगों के सहारे गांव की पंचायत बैठाकर मजदूर आंदोलन के खिलाफ गोलबंद करने का प्रयास भी किया. पुलिस के सहारा लेकर प्रबंधन ने 8 अक्टूबर 2011 को मजदूरों पर झूठे केस लगाए और मिडिया में हड़ताली मजदूरों द्वारा काम कर रहे 355 मजदूरों पर हमला करने का झूठा बयान भी दिया.
 
प्रबंधन के उकसावे पर 9 अक्टूबर 2011 को ठेकेदार व गुंडों ने सुजुकी मोटर साइकल प्लांट में हड़ताली मजदूरों को खुलेआम पिस्टल दिखाकर धमकाया, हवा में फायरिंग किया और मजदूरों पर बीयर व शराब की बोतलों से हमला किया. इसके चलते तीन मजदूर घायल हो गए.
 
मजदूरों की एकजुटता व बढ़ती सुगबुगाहट को भापकर 10 अक्टूबर 2011 को मारूति सुजुकी के प्रवक्ता ने बयान दिया- \\\’\\\’कंपनी इतने सारे लोगों को बाहर नहीं फेंक सकती. यह काम पुलिस व प्रशासन की ओर से ही होना है.
 
श्रम मंत्रालय ने मजदूरों को चार दिनों के भीतर जबाब देने के लिए 11 अक्टूबर 2011 को नोटिस जारी किया है. इस नोटिस में मजदूरों को 30 सितबंर 2011 को मारूति सुजुकी प्रबंधन, हरियाणा सरकार व मारूति सुजुकी इंप्लार्इज यूनियन के प्रतिनीधियों के बीच हुए समझौते का उल्लंघन करने का दोषी बताया गया है.
 
सरकार का कारपोरेट सुर
 
निश्चय ही यह संयोग जैसा नहीं है पर ठीक यही बात मारूति सुजुकी प्रबंधन ने भी दोहराई और मजदूरों को विश्वासघाती कहा. जब कारपोरेट व सरकार के बीच स्वर सामंजस्यता इस कदर दिख रहा है तो इसके पीछे की तैयारी का अनुमान लगाना कठिन नहीं है. 
 
वैसे भी हरियाणा सरकार इस तरह के मामले में कुख्यात रही है. खासकर मजदूर, स्त्री, दलित के प्रति शासन प्रशासन का रवैया कोर्इ छुपी हुर्इ बात नहीं है. लेकिन यह भी सच है कि हालात पहले से बदले हैं. इस बात की जानकारी कारपोरेट जगत को भी है और हरियाणा सरकार को भी है. 
 
द इकॉनामिस्ट इस बात को ट्रबल्ड गुड़गांव (समस्याग्रस्त गुड़गांव) कहकर अभिव्यक्त करता है तो हरियाणा सरकार इसे निवेश के लिए बिगड़ रहे हालात को हर हाल में ठीक करने के लिए जरूरी व कड़े कदम उठाने का हिंसक आश्वासन की तरह पेश करती है. 
 
पिछले दस वर्षों में जितनी तेजी से गुड़गांव में औद्योगिक विस्तार हुआ उतनी ही तेजी से मजदूरों की संख्या में भी इजाफा हुआ. यह उत्पादक समूह कारपोरेट जगत के लिए अनिवार्य जरूरत है पर साथ ही यह समस्या भी है और सरकार के लिए निवेश में बाधक. 
 
यह संकट नया नहीं है पर गुड़गांव में जिस तरह उभरकर आया है उसका रूप व आयाम 1990 के बाद के हालात में ढ़ला हुआ आया है. यह शहर के आम शोर शराबे से दूर धीरे धीरे सुलगते हुए सामने आया है जिसे टाल सकना मुश्किल हो गया है.
 
मार्क्स के शब्दों में कहें तो यह वस्तुगत ताकत बन चुका है जिसकी आत्मगत क्षमता असीम संभावनाओं से भरी हुर्इ है.
 
मारूति सुजुकी के मजदूरों की क्षमता व उसकी एकता को प्रबंधन व सरकार लगातार अनदेखा कर रहे हैं और उनके साथ लगातार कमतरी का व्यवहार करते आ रहे हैं. 
 
जून 2011 से अब तक मजदूर या तो हड़ताल कर या फैक्टरी लाकआउट के चलते 55 दिन या तो फैक्टरी के गेट पर धरना देकर बैठे रहे या फैक्टरी के भीतर टूल डाउन किए रहे. यह सिलसिला जारी है. मारूति सुजुकी प्लांट न. 2 और 3 मानेसर औद्योगिक क्षेत्र में लगभग तीन किमी में फैला हुआ है. 
 
वर्ष 2007 में शुरू हुए इस प्लांट के मजदूरों ने तयशुदा एक लाख कार प्रतिवर्ष बनाने के रिकार्ड को अगले साल ही तीन लाख तक पहुंचा दिया. अगले साल प्रबंधकों के दावे के अनुसार यह उत्पादन साढ़े पांच लाख हो गया. मजदूरों के अनुसार यह संख्या साढ़े छह लाख है. 2010-2011 में उत्पादन को ग्यारह लाख कार उत्पादन प्रतिवर्ष का लक्ष्य था और वर्ष 2012 के लिए प्रस्तावित संख्या 14 लाख दिया गया था.
 
मुनाफाखोरों का असली चेहरा
 
घरेलू कार बाजार के 45 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा करने वाली इस कंपनी में मजदूर यूनियन बनाना एक चुनौती की तरह है. यह कंपनी अपने यहां तीन तरह के मजदूर रखती है: नियमित, ट्रेनीज व ठेका मजदूर.
 
मारूति सुजुकी कंपनी कुल 52 ठेकेदारों से मजदूर उगाहती है. इन ठेका मजदूरों को वेतन सीधा कंपनी नहीं देती. यह काम ठेकेदार करता है जो मजदूरों के काम के बदले एकमुश्त व महीनेवार पैसा वसूलता रहता है. प्रबंधन के दिए गए आंकड़ों के अनुसार इस प्लांट में कुल ढ़ार्इ हजार मजदूर हैं. मजदूरों के अनुसार यह संख्या 3200 है. इसमें से 1200 कैजुअल या ठेका मजदूर हैं. 750 से उपर ट्रेनीज और शेष मजदूर नियमित हैं.
 
चंद मजदूरों को छोड़कर इस प्लांट की स्थापना से लेकर हड़ताल शुरू होने की तीथि तक यह अनुपात भारत की रूढ़ जाति व्यवस्था की तरह ही स्थिर थी. प्रबंधन मजदूरों के इस बंटवारे को सुविधा व स्टेटस के द्वारा भी रूढ़ बनाए हुए एक खास तरह की मानसिकता को बढ़ावा भी देता रहा है. ज्ञात हो कि गुड़गांव  के मजदूरों में यह सोपानीकरण उनके बीच बंटवारे को सामंती संरचना की तरह ही मजबूत करता है. यह कारपोरेट जगत इसका जानबूझकर प्रयोग करता है जिससे मजदूरों की स्वाभाविक एकता को, जिस हद तक हो सके रोके रखा जा सके.
 
कारपोरेट सबसे अधिक लूट ठेका मजदूर व ट्रेनीज के माध्यम से ही करता है. यह उसका रिजर्व व सबसे सस्ता श्रम है. कारपोरेट को सबसे अधिक दिक्कत नियमित मजदूर से ही है. 
 
लगभग पांच साल तक काम करने व फैक्टरी में उत्पादन के लिए बढ़ते दबाव और प्रबंधन के खराब व्यवहार ने मजदूरों के बीच स्वभाविक एकता को बल मिला. प्रबंधन द्वारा मजदूरों को नौकरी से बर्खास्त करने के विरोध में मजदूरों की एकता मारूति सुजुकी इंपलार्इज यूनियन की मांग के रूप में सामने आया. प्रबंधन ने एकजुट हो मजदूरों को तोड़ने के लिए तोड़फोड़, जोर जबरदस्ती का सहारा लिया और मजदूरों को बड़े पैमाने पर निकाल बाहर करने के लिए गुंडों के सहारे सादे कागज पर हस्ताक्षर कराना शुरू किया.
 
कुल 11 मजदूरों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. गर्मी व उमस के बावजूद मजदूर 4 जून 2011 को मजदूरों ने फैक्टरी का टूल डाउन कर परिसर से बाहर जाने से इंकार कर दिया. 16 जून 2011 तक सारी तकलीफ झेलते हुए मजदूर फैक्टरी में डटे रहे. यह मारूति सुजुकी मजदूरों की हड़ताल का पहला दौर था जिसमें हरियाणा सरकार के हस्तक्षेप से मजदूरों पर जो समझौता थोपा गया वह कारपोरेट लूट की मिसाल है: 13 दिन हड़ताल के एवज में मजदूरों को 26 दिन कंपनी के लिए बिना वेतन काम करना, काम नही तो वेतन नही, के आधार पर 13 दिन का वेतन नहीं,  यूनियन का मान्यता से इंकार और बर्खास्त मजदूरों की वापसी जांच परख के बाद होना.
 
इस हड़ताल की सबसे बड़ी उपलब्धि मजदूरों के बीच मारूति सुजुकी इंपलार्इज यूनियन व उसके नेतृत्व  की स्वीकृति थी जिसने मजदूरों के बीच के सोपानीकरण को तोड़कर मजबूत अटूट एकता दिया. यह सरकारी या प्रंबंधन की मान्यता से इतर उभरकर आया हुआ संगठन था जो लगातार मजबूत होता गया है.
 
13 दिन की हड़ताल के खत्म होने के बाद फैक्टरी के भीतर काम का माहौल एकदम अलग तरह का था. प्रशासन के पास सक्रिय मजदूरों के विडियो रिकार्ड मौजूद थे. 17 जून 2011 से काम शुरू होने के साथ ही प्रबंधन मजदूरों पर किसी न किसी बहाने दबाव डालने का दौर शुरू किया. एक प्रमुख हथियार अनुशासन का पालन था. प्रति 42 सेकेंड में एक कार बनाने वाले इन मजदूरों पर अनुशासन एक अमूर्त हथियार था जो कभी भी नौकरी ले सकता था. इसी अनुशासन का पालन कराने के लिए एक बार फिर मजदूरों पर सादे कागज पर हस्ताक्षर करने का दबाव डाला गया.
 
मजदूरों के इस मुद्दे पर तर्क वितर्क को अनुशासनहीनता, काम में रूकावट डालना, तोड़फोड़ और प्रबंधन पर हमला माना गया. पिछले बर्खास्त मजदूरों की अभी वापसी हुर्इ भी न थी कि काम कर रहे मजदूरों की बर्खास्तगी शुरू हो गर्इ. 
 
28 अगस्त 2011 तक 54 मजदूरों को या तो नौकरी से बर्खास्त किया गया या निलंबित कर दिया गया. 28 अगस्त की रात को ही चंद मजदूरों को छोड़कर सभी मजदूरों को फैक्टरी से बाहर रखा गया. 29 अगस्त को सुबह की पाली में करने वाले लगभग 1500 मजदूरों को गेट से अंदर नहीं जाने दिया गया. लगभग 2500 मजदूरों को बाहर कर उन्हें फैक्टरी के नए फार्म- गुडकंडक्ट बांड पर हस्ताक्षर कर नौकरी पर आना था. यह पिछले समझौते का उल्लंघन था और एक नए तरह का फैक्टरी लाकआउट था.
 
गुडकंडक्ट बांड की नियमावली प्रबंधन ने खुद बनाई थी जिसे बाद में श्रम विभाग ने भी मान्यता दे दी. इसकी नियमावली ऐसी थी जिसमें किसी मजदूर की मंशा को समझकर प्रबंधन उसे नौकरी से बाहर कर सकता था. यह पोटा या यूएपीए कानून जैसा प्रावधान लिए हुए था जिसमें किसी ने कोर्इ अपराध किया हो या न किया हो उस पर अपराध आसानी से ठोका जा सकता है. 
 
मजदूर इस खतरनाक बांड के खिलाफ एकजुट रहे. 32 दिन के लाकआउट के बाद कंपनी ने गेट खोला पर मजदूरों पर इस बांड की शर्त को लाद दिया. 15 मजदूरों की बर्खाष्तगी को निलंबन में बदलकर कुल 44 मजदूरों को कानूनी जांच परख के बाद एक प्रक्रिया में वापस नौकरी पर रखा. 18 ट्रेनीज को वापस नौकरी पर रख लिया गया. जिस तरह पिछले समझौते में प्रबंधन सरकार व श्रम विभाग के वरदहस्त से समझौते के इतर मनमाने प्रावधानों को लागू करने में जुट गया था उसी तरह इस बार भी वह पहले से कहीं अधिक आक्रामक रूख के इसी काम को करने में लग गया जिसके चलते वहां मजदूरों के लिए काम के हालात अधिक कठिन हो गए.
 
अमानवीय और बदतर स्थितियां
 
मजदूरों को कुल 9 घंटे में 7 मिनट का चाय ब्रेक मिलता है जिसमें उसे पेशाब करने से लेकर पानी व चाय पीना होता है. लगभग 500 लोगों के बैठने की क्षमता वाले कैंटीन में खाना खाने के लिए 30 मिनट का ब्रेक मिलता है. 
 
पीयूडीआर की 2001 की एक रिपोर्ट के अनुसार एक मजदूर को दो मिनट में कुल 16 काम निपटाने होते हैं जिसमें तीस किलो के ब्लाक के शाट को उठाना, वापस मोड़ना व चार बोल्ट को कसना आदि शामिल है. आज दस साल बाद काम में और तेजी पैदा की गर्इ है. पहले लगभग 1 मिनट 30 सेकेंड में एक गाड़ी तैयार होती थी. आज यह काम 42 सेकेंड में पूरा हो जाता है. 
 
इसे प्रबंधन 30 सेकेंड में पूरा करा लेने की तैयारी में है. ऐसे में बुखार पड़ना, घरेलू या व्यकितगत दुख का उपर आने का अर्थ एक जबरदस्त दबाव से गुजरना होता है. एक दिन की छुट्टी पर मजदूर की तनख्वाह से 1200 से 1600 रूपए की कटौती कर दी जाती है. तीन दिन की छुट्टी पर कुल 5200 रूपए की कटौती हो जाती है. छुटटी बढ़ने पर मजदूर को काम से निकाल दिया जाता है. बिमार हालत में काम करने पर काम में हो रही थोड़ी भी ढि़लार्इ पर गाली गलौज आम बात है. 
 
मजदूरों को महीने के 26 दिन काम करना अनिवार्य है. यहां न तो छुटटी का प्रावधान है और न ही मेडिकल की सुविधा हासिल करने की सुविधा. ये दोनों ही सुविधा कागज पर जरूर दर्ज हैं.  
 
ज्ञात हो कि मारूति सुजुकी में काम कर रहे मजदूरों की औसत आयु 23 साल है. नियमित मजदूर को आवास के लिए 1200 रूपए और उनके बच्चों की पढ़ार्इ के लिए 200 रूपए दिया जाता है. काम के समय मजदूर भोजन फैक्टरी कैंटीन में ही करते हैं जिसमें पौष्टिकता खोजना बेमानी काम है. किसी भी दिन स्पेशल नहीं है. कड़ी मेहनत से थके शरीर को ग्लूकोज की जरूरत होती है. भोजन में किसी भी तरह के मिष्ठान की उपलब्धता नहीं है.
 
इस भोजन के बदले प्रति 20 रूपए उनके देय में से काट लिया जाता है. कैजुअल और ट्रेनीज को फैक्टरी में काम करने के लिए जरूरी संसाधन व सुरक्षा साधनों से वंचित रखा जाता है. 
 
प्रतिकूल भौगोलिक स्थिति
 
काम के इन हालात में यदि हम मानेसर इंडस्ट्रीयल विकास परियोजना के संरचना को जोड़ दे तो इसमें कठिनार्इ और भी जुड़ जाती है. अरावली पहाड़ी के निचले हिस्से में बसा मानेसर दिल्ली-मुंबर्इ औद्योगिक परियोजना में आता है. इस विशाल क्षेत्र का गर्मी में तापमान 48 डिग्री सेल्सियस से उपर तक चला जाता है और जाड़े में बर्फीली हवा के साथ यह 4 से 5 डिग्री सेल्सियस नीचे चला जाता है. इस औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों का रहने के लिए कोर्इ आवास सुविधा नहीं है. मानेसर क्षेत्र में आने वाले गांव अलियार, बांसगांव को लेकर कुल 5 गांव हैं जहां रिहाइश के नाम पर तंग कमरे हैं. इस औद्योगिक क्षेत्र में आने के लिए पूरे दिन भर में दो सरकारी बस हैं. 
 
यहां सड़क किनारों पर हरितक्षेत्र में कनेल व अमलतास के पेड़ हैं जो गर्मी के दिनों में पूरी तरह नंगे होते हैं. पेड़ की अन्य प्रजातियां ऐसी ही हैं जिनसे गर्मी में राहत की उम्मीद नहीं की जा सकती. 
 
इस पूरे क्षेत्र में मजदूरों के लिए किसी भी तरह का सरकारी या गैरसरकारी कैंटीन या ढ़ाबा नहीं है. जो हैं वे रेहड़ी पट्टी की शक्ल में हैं जो पुलिस को हफ्ता देकर या उनके सहयोग से ही चलते हैं. प्रचंड गर्मी व जाड़े में ये भी दुकान खोलने में घबराते हैं.  
 
इस औद्योगिक क्षेत्र को जिस तरह विकसित किया गया है उसमें मजदूर सड़क या दुकान पर मिल सकने की स्थिति में नहीं होता है. उसे सीधा फैक्टरी गेट के भीतर घुसना है जहां उसे अपना कार्ड पंच कराकर काम पर लग जाना होता है. 
 
29 सितंबर 2011 को समझौते के बाद मजदूरों को 1 अक्टूबर 2011 से काम पर लग जाना था. काम के इन हालातों में प्रबंधन ने एक नर्इ मुश्किल पैदा कर दी. 90 प्रतिशत मजदूरों के काम का स्टेशन यानी जिस काम में वे पारंगत हैं और उस पर काम करते हैं, को बदल दिया गया. काम करने वाले मजदूर आमतौर पर पालिटेक्निक व कुछ आर्इटीआर्इ डिग्री धारक ही होते हैं जहां उन्हें काम की विशिष्टता दी जाती है.
 
ऐसी स्थिति में मजदूरों से काम में गलती, उत्पादन में कमी, चिड़चिड़ापन व असंतोष बनना तय है. काम का यह हालात उस पर दंड जैसा हो जाता है जबकि मशीनें मजदूर से लय व गति का मांग करती हैं.
 
मजदूरों पर गुडकंडक्ट बांड का साया लगातार बना हुआ था. इस बीच प्रबंधन ने मजदूरों पर खुलेआम आरोप लगाना शुरू कर दिया कि वे काम नहीं कर रहे हैं और समझौते का उल्लंघन कर रहे हैं.
 
प्रबंधन ने इन हालातों का प्रयोग मजदूरों पर 32 दिन के लाकआउट के एवज में 64 दिन मुफ्त में काम करने का दबाव भी बनाने लगा. इस दौरान फैक्टरी में लगभग 1000 कैजुअल मजदूरों की भर्ती कर ली गर्इ जिनका एक हिस्सा फैक्टरी में लगातार बना रहता था. 
 
ये मजदूर बंधुआ की तरह काम करने के लिए मजबूर थे. साथ ही उनका प्रयोग पहले के मजदूरों के खिलाफ बयान देने, मामला दर्ज करने के लिए किया जा रहा था. 
 
7 अक्टूबर 2011 को एक बार फिर 1200 मजदूरों को शाम की पाली में काम करने से गेट पर ही रोक दिया गया. यह खबर फैक्टरी को एक बार रोक देने के लिए काफी थी. 
 
मारूति के पांच प्लांट में मजदूरों ने टूल डाउन कर दिया और फैक्टरी परिसर से बाहर जाने से इंकार कर दिया. 
 
संघर्ष का नारा
 
यह मारूति मजदूर आंदोलन का तीसरा चरण है. मारूति सुजुकी इंपलार्इज यूनियन के अध्यक्ष शिव कुमार के अनुसार अब की बार लड़ार्इ आर पार की है. इसी यूनियन के महासचिव सोनू इस लड़ार्इ को निर्णायक मोड़ देने के लिए शहादत देने तक के लिए तैयार हैं. 
 
विभिन्न पार्टियों व संगठनों को सहयोग उनके साथ है. दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र इस आंदोलन में भागीदार बने हुए हैं. यह यूनियन अपनी पूरी स्वायत्तता के साथ मजदूर आंदोलन को आगे ले जाने के लिए प्रतिबद्ध है.
 
गुड़गांव व मानेसर में मजदूर आंदोलन एक नर्इ जमीन पर उभरकर आया है जिस पर पिछले कर्इ सारे भार उनके कंधों पर नहीं हैं. ये मजदूर सूदूर से आए प्रवासी नहीं हैं. इसका बहुमत हरियाणा के आसपास के जिलों का रहने वाला है जहां से वह कुछ कमजोरियां भी लेकर आया है. 
 
इनमें सामुदायिक चेतना नए व पुराने दोनों ही तरह की हैं पर व्यापक मजदूर के साथ एकजुट होकर चलने व त्याग के किसी भी सीमा तक जाने, इमानदारी बरतने व आपस के मतभेद को मिलकर खुले में सुलझा लेने की चेतना से मारूति सुजुकी इंपलार्इज यूनियन संशोधनवादियों के यूनियन से कहीं अधिक रेडिकल और पारदर्शी हुआ है.
 
मानेसर, गुड़गांव, ग्रेटर नोएडा जैसी औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की भर्ती में ठेका मजदूरों की संख्या में इजाफा तेजी से हुआ है. 
 
इन क्षेत्रों में तकनीक मजदूरों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुर्इ है और समाज के निम्न वर्ग की आर्थिक विपन्नता ने उनके बच्चों को मजदूर बनाना शुरू कर दिया है.
 
इन मुख्य कारणों से मजदूर आंदोलन एक नर्इ विशिष्टता के साथ सामने आ रहा है. आज जरूरत है कि इस विशिष्टता को समझा जाय. 
 
मार्क्स ने यूरोपीय औद्योगिक क्रांति से जन्मे मजदूरों को सबसे उन्नत समाज, विचार, मुक्ति का वाहक बताकर अब तक के इतिहास, अध्यात्म, जीवन को देखने की पूरी दृष्टि को बदल दिया. आज पूरी दुनिया मंदी के तबाही से गुजर रही है, एक विस्फोटक स्कार्इ लैब की तरह पूंजी कभी इस या उस समाज को तबाही के मंजर में बदल रही है.
 
ऐसे में जरूरी है कि न केवल समाज में फैली वैचारिक दरिद्रता से मुक्त हुआ जाय बल्कि साथ ही मजदूर आंदोलन को क्रांतिकारी संदर्भ दिया जाय.
 
आसन्न फासीवाद के खिलाफ लड़ार्इ की यह एक मजबूत मोर्चेबंदी होगी. आइए, मारूति मजदूर आंदोलन के समर्थन में खड़े हों.

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