कुदरती संसाधनों की लूट के नज़रिये से देखें तो कश्मीरी और आदिवासी एक हैं !

Aug 12, 2019 | PRATIRODH BUREAU

“कश्मीरी और आदिवासी अलग नहीं हैं। सवाल दोनों की स्वायत्तता का है। आज कश्मीर को विकास और आतंकवाद के नाम पर बलात् नियंत्रण में लिया गया है। कल संविधान की पाँचवीं अनुसूची और छठवीं अनुसूची में प्रदत्त अधिकारों का ऐसे ही बलात् अपहरण किया जाएगा।“

यह शब्द मेरे नहीं हैं। यह कहना और मानना है एक ऐसे आदिवासी साथी का जो छत्तीसगढ़ में अदानी को कोयला खदान दिये जाने का विरोध कर रहे हैं। जो बात छद्म राष्ट्रवाद के उन्मादी प्रभाव में आकर देश का पढ़ा–लिखा तबका नहीं समझ पा रहा है, वह मूल बात बहुत कम पढ़े-लिखे साथी को समझ में आ रही है क्योंकि दोनों की चिंताएँ एक हैं, तकलीफ़ें एक हैं और पूंजीवाद के वाहक बन चुके इस राष्ट्र-राज्य से संबंध एक जैसा है। आज पाँचवीं अनुसूची के क्षेत्र में जो साथी खुद को देश के संविधान में दिये गए सुरक्षात्मक प्रावधानों की वजह से अपनी गरिमा, पहचान और संसाधनों के साथ जी रहे हैं उन्हें इनके छीन लिए जाने की चिंता है।

इन्हीं साथी ने बताया कि “आज सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में कोयले पर आधिपत्य का सपना देख रहे अदानी को सबसे बड़ी बाधा इन्हीं संवैधानिक प्रावधानों की वजह से आ रही है। अदानी और इस सरकार का संबंध किसी से छिपा नहीं है। ऐसे मैं कब ये प्रावधान खत्म करके पूरा क्षेत्र अदानी को दे दिया जाएगा कोई नहीं जानता। ऐसा करने से कोई रोक भी नहीं पाएगा। जैसा कश्मीर में किया वैसा ही सभी आदिवासी इलाकों में आसानी से किया जा सकता है। असल में अनुच्छेद 370 और पाँचवीं अनुसूची में कोई अंतर नहीं है।“

इन साथी के नज़रिये से बहुत कुछ और बहुत ठोस रूप में इस मामले को समझा जा सकता है कि मूल बात है ‘स्वायत्तता’, जिसका बलात् हनन किया गया है। क्यों किया गया? इसका ब्लूप्रिंट  देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री ने अपने संदेश में दिया है। अब कश्मीर, जम्मू और लद्दाख में उपलब्ध संसाधनों को कैसे-कैसे बेचा जा सकता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री एक व्यापारी हैं (बक़ौल खुद) इसलिए वो जो भी करते हैं, मुनाफे के लिए करते हैं। मौजूदा संसाधनों को बेचने से मुनाफा मिलेगा तो बेचा जाएगा और उसमें जो भी बाधाएँ आएंगीं उन्हें बलात् हटाया भी जाएगा।

बहुत लोग जिन आशंकाओं पर बात कर रहे हैं वे वाकई निर्मूल नहीं हैं। चूंकि यह कदम वैश्विक स्तर पर बहुत बड़े ‘पोलिटिकल एडवेंचर’ की तरह देखा जा रहा है इसलिए इस पर देशव्यापी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा हो रही है। लाजिमी भी है। अगर इस सरकार के बीते कार्यकाल में किए गए ऐसे ही कार्यक्रमों में देखें तो इसने हर स्तर पर पूँजीपतियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों, मानवीय श्रम को सहज उपलब्ध कराने के एकतरफा कदम उठाए हैं। ऐसा करते वक़्त उसने अपने हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को भी आगे बढ़ाया है। बीते कार्यकाल का आगाज़ ही भूमि अधिग्रहण के लिए कांग्रेसनीत सरकार के कानून को बलात् अध्यादेश से संशोधित करने से हुआ था। इसमें भी जो संशोधन थे वे क्या थे? सहमति, सामाजिक प्रभाव आकलन, ग्राम सभा की शक्तियाँ। तो ‘सहमति’, ‘परामर्श’ संघीय (केन्द्रीय) सरकार से इतर जो भी संवैधानिक संस्थाएं हैं उनकी शक्तियों को कुचलना इस सरकार के रक्त–मांस में मौजूद है। एक संघीय जनतांत्रिक शासन व्यवस्था में किसी राज्य की विधानसभा और एक गाँव की ग्राम सभा की स्वायत्तता बहुत अलग बातें हैं?

इसलिए जब हमारे संघर्षरत आदिवासी साथी कश्मीरी और आदिवासी को एक कहते हैं तो उनका आशय यह भी है कि इन्हें न कश्मीरी से मतलब है और न ही आदिवासी से, इन्हें केवल और केवल उस भू-भाग पर मौजूद संसाधनों से मतलब है।

हम देख चुके हैं कि किस तरह इस सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में कोयला खनन को लेकर बलात् एमडीओ (माइंस डेवलपर एंड ऑपरेटर) की कार्यकारी व्यवस्था अमल में लाकर केवल और केवल अदानी को लाभ पहुंचाया। एक ऐसी व्यवस्था है जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता। जो न तो केंद्र से पारित है और न ही राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदित है। हाल ही में छत्तीसगढ़ राज्य सूचना आयोग ने इसकी जानकारी दिये जाने का आदेश पहली बार किया है लेकिन वह अंतत: प्रभावित लोगों को मिल पाएगा और सार्वजनिक चर्चा में आ सकेगा, यह कहना मुश्किल है।

झारखंड में आदिवासियों को सुरक्षा देने वाले क़ानूनों में बलात रद्दो-बदल की कोशिशें वहाँ की भाजपा सरकार लगातार कर रही है। इनमें संस्थान परगना टेनेन्सी एक्ट(एसपीटीए), छोटा नागपुर टेनेन्सी एक्ट (सीएनटीए) हैं जिनके तहत आदिवासियों को कुछ मौलिक स्वायत्तता व सुरक्षा मिली हुई है जिन्हें हटाने के लिए ये सरकार बेताब है।

इसके अलावा अगर इसी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं मसलन बुलेट ट्रेन, औद्योगिक गलियारे, तटीय क्षेत्रों में औद्योगिक निवेश आदि को लें तो इनमें कहीं भी स्थानीय इकाइयों की स्वायत्तता व संवैधानिक शक्तियों को तरजीह नहीं दी गयी है बल्कि इनकी तमाम शक्तियों को अलग-अलग उद्देश्यों से बनाई गयी प्रशासकीय संरचनाओं से तकसीम कर दिया गया है। यह खेल नया नहीं है लेकिन इस बेशर्मी से खेल पाने का माद्दा भाजपा और राष्ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ही दिखा सकता है, जो खुद गुलाम मानसिकता से बने संगठन हैं।

इस नज़रिये से देखें तो असल मामला केवल और केवल संसाधनों को हड़पने का है जिसमें स्वायत्तता के तमाम संवैधानिक प्रावधानों को सैन्य शक्ति के बल पर, बहुमत के बल पर और एक उन्मादी भीड़ का निर्माण करके नेस्तनाबूद किया जा रहा है।