अन्नान्दोलन की इति श्री पर एक कविता
Aug 3, 2012 | पाणिनि आनंददिल्ली में एक अनशन आज बिना नतीजे के ख़त्म हो गया. इस दौरान दिखाई-सुनाई जो दिया, उसकी बात फिर कभी. फिलहाल एक कविता. दरअसल, यह लड़ाई यहीं खत्म हो गई है. राजनीतिक विकल्प के सवाल पर जितने मिथकीय और भ्रामक भाषण मंच से सुनने को मिले, उनके आधार पर आंदोलन (क्षमा कीजिएगा, पर ये लोग इस आंदोलन ही कहकर पुकारते हैं) पूरी तरह भटका और अधर में लटका नज़र आ रहा है. लोगों का भ्रम भी टूट रहा है. कुछ का आज फिर टूट गया होगा. पहले कहा, भीड़ देखो. अबकी कहा, सपने देखो. देखते ही देखते चेहरे मुरझाने लगे और गाते गाते लोग चिल्लाने लगे. ख़ैर, मंच से उतरने में इनको कितने बहाने लगे. कविता पढ़े-
**********
वाल भी, बवाल भी
खत्म हुआ भ्रम
मिथ्या का श्रम
आखेटक लौट चला
करता भी क्या भला
होकर भी क्या होगा
जिसने भ्रम को भोगा
खोज रहा रास्ते
सनकी हैं वास्ते
पांव गया चीर
भाषण का तीर
नारे में शक्ति है
नारे की भक्ति है
खोखली बंदूकों को
मिथ्या आसक्ति है
दांव खेलने वाले
मिट्टी पर लोट रहे
रेत के पठार ढहे
कोई कहे, या न कहे
मौन नहीं नीर
खौलता शरीर
आशा पर जीता है
आग है, पलीता है
खोल रहे नांव कहां
पाओगे गांव कहां
नदी नहीं राजनीति
खाओगे चोट यहां
सिर है, विचार नहीं
तेगों में धार नहीं
कोई घुड़सवार नहीं
कोई ज़िम्मेदार नहीं
सबका अपना रोना है
जग प्रसिद्ध होना है
हाथ में तिरंगा है
बार-बार ढोना है
वाल भी, बवाल भी
शातिर है चाल भी
चमकते थे कैमरे
मंच पे कव्वाल भी
पर नहीं बंधा कोई
लक्ष्य न सधा कोई
आन मिलो, आन मिलो
श्याम, सांवरी रोई
चुल्लू में सपने हैं
सपने सिर्फ अपने हैं
दूसरों के सपने सब
मंच से हड़पने हैं
आए हैं भाड़े में
खड़े हैं अखाड़े में
कांय-कांय, क्रांति-क्रांति
रट गए पहाड़े में
ऊधौ मन न भए दस बीस
रह गई है टीस
दांत पीस पीस
निकल गई खीस
टैन्ट का किराया और
डॉक्टर की फीस
लगेंगे फिर से खाने
सुनेंगे नए गाने
भूखे जो होते हैं
भूखे ही सोते हैं
मर्ज़ी, बलिदान नहीं
मजबूरी होते हैं
सालभर में दो सौ दिन
अनशन ही होते हैं
आप जो खाते हैं
उसे वो बोते हैं
आप जो पहनते हैं
उसे वो धोते हैं
आपका जो कचरा है
लादते हैं, ढोते हैं
आप की हंसी देख
किस्मत को रोते हैं
देश में लाखों अनशन
रोज़ रोज़ होते हैं
देश में कई बच्चे
भूखे ही सोते हैं
लेकिन उन मोर्चो पे
आप कहाँ होते हैं
आप जहां होते हैं
आप ही आप होते हैं
बाकी मंच के नीचे
दांए बांए और पीछे
फरमाइश, गुंजाइश,
सुविधा से सोते हैं
आपको मलाल नहीं
आपसे सवाल नहीं
उधड़ी हैं खालें पर
आपकी वो खाल नहीं
पड़ रहे तमाचे पर
आपके वो गाल नहीं
सड़ रहे हैं जेलों में
आपके वो लाल नहीं
सुअर जो चराते हैं
जूठन जो खाते हैं
उनकी लड़ाई में
आप कहाँ आते हैं
आप जहाँ चाहते हैं
आप वहाँ जाते हैं
आप उनकी सुनते हैं
आपको जो भाते हैं
लोकतंत्र है, आप चाहे जहाँ जाइए
जो क़दम उठाइए
राजनीति कीजिए, संसद में आइए
सपनों के किस्से पर
हमें न सुनाइए
जाइए, जाइए,
दूर चले जाइए
फैलोशिप, अलंकरण
फंड, फ़ैन पाइए
अपनी टार्च ऑन कर
मशाल न बताइए
संघर्षों के मायने
हमें न सुनाइए
आगे बाकी है लिटमस टेस्ट
नही कहूंगा, ऑल दि बेस्ट
पाणिनि आनंद
03 अगस्त, 2012
नई दिल्ली.