हफ्ते भर बाद बनारस में कल बारिश हुई। बारिश होते ही दो खबरें काफी तेजी से फैलीं। पहली, कि नई सड़क पर कमर भर पानी लग गया है। दूसरी, कि पूरा शहर जाम है। खबर इतनी तेज फैली कि कचहरी पर तिपहिया ऑटो की कतारें लग गईं। कोई भी ऑटो शहर में जाने को तैयार नहीं था। हमेशा की तरह शहर दो हिस्सों में बंट गया था। कचहरी पर बस एक ही आवाज सुनाई दे रही थी- आइए, ए पार। ओ पार बोलने वाला कोई नहीं था। यह बनारस का पुराना मर्ज है।
वरुणा पार से मुख्य शहर को जोड़ने वाले तीन रास्ते हैं जिनमें दो प्रमुख हैं। पहला अंधरापुल का रास्ता और दूसरा चौकाघाट का। तीसरा रास्ता वाया जीटी रोड कोनिया-सरैयां से होकर जाता है जो सब कुछ को पार करते हुए सीधा पहडि़या और आशापुर निकलता है। इस रास्ते पर आम पब्लिक नहीं चलती है। आजकल गाज़ीपुर की बसों से यह रास्ता पटा रहता है। कल अंधरापुल और चौकाघाट पर जाम था, लिहाजा ए पार वाले ओ पार नहीं जा पा रहे थे और ओ पार वाले ए पार नहीं आ पा रहे थे। इस तरह यह निष्कर्ष निकाला गया कि पूरा शहर जाम है और इस निष्कर्ष को तमाम संचार माध्यमों से यहां से वहां पहुंचा दिया गया। शहर के हर हिस्से में हर आदमी कल अखण्ड सत्य की तरह दोपहर में यह कहता हुआ पाया गया कि शहर में जाम है।
गंगा इस शहर की लाइफलाइन होगी, लेकिन वरुणा बनारस की चौहद्दी है। डीएम, एसपी, सर्किट हाउस, कचहरी, आरटीओ, तमाम प्रशासनिक दफ्तर, सब कुछ वरुणा पार है। समझा जा सकता है कि वरुणा से गगा के बीच बसे इस शहर में ए पार से ओ पार की आवाजाही का रुकना कितना भयावह होता होगा। बहरहाल, इस सब के बीच कचहरी पर एक ऑटो वाला अचानक ओ पार चलने को तैयार हो गया। बोला, ”देखिए, जहां तक जाएंगे, आपको ले जाएंगे। चौकाघाट पर उतरना पड़ा तो पचास रुपया दे दीजिएगा। बेनिया पहुंच गए तो सौ।” हमने पूछा कि जब तुम्हें पता है कि जाम है तो क्यों ले जा रहे हो1 उसने पान थूकते हुए कहा, ”सवेरे से खड़े हैं इसकी बाहिनकि …। कब तक खड़ा रहें… चलते हैं… देखते हैं… ।” हम आगे तो बढ़े, लेकिन बड़े अजीबोगरीब तरीके से पुलिसवालों ने हमें अंधरापुल से चौकाघाट की ओर मोड़ दिया। इसका कोई औचित्य नहीं बनता था। चौकाघाट वास्तव में जाम थ्ाा। खबर सही थी। इसकी दो वजहें थीं। एक तो यह कि यहां जाम रहता ही है। दूसरी वजह यह थी कि हर आदमी जाम को खुलवाने में लगा था और इसके चलते सब अपनी-अपनी गाडि़यां बंद कर के ट्रैफिक इंस्पेक्टर बने हुए थे।
जगतगंज से बेनियाबाग के बीच, जो जाम के लिए कुख्यात इलाका है, शाम के पांच बजे रास्ते खाली हैं। ऑटो वाला कहता है कि चूंकि पूरे शहर में जाम है और कोई ए पार से ओ पार नहीं जा पा रहा है, इसलिए सड़कें खाली हैं। नई सड़क पर पानी रहा होगा, लेकिन अब नहीं है। बेनिया से गोदौलिया के बीच घुटने से कम पानी है। इस पूरे रास्ते में सड़क कहीं नहीं है। इस रास्ते के दाएं और बाएं लोग नालियों को खोदने में व्यस्त हैं ताकि उनकी दुकान के सामने का पानी हट जाए। पूरा शहर नहाया हुआ दिख रहा है। जिस मकान की ओर निगाह जाती है, ऐसा लगता है कि वह गिरने ही वाला है। लगने और होने में हालांकि बहुत फ़र्क है बनारस में।
हम शहर में सुरक्षित आ चुके थे। गोदौलिया पर भीड़ हमेशा से कुछ कम थी। गंगा में पानी बढ़ा होने के कारण चूंकि हर घाट पर जाने के लिए गलियों का ही विकल्प था, इसलिए स्थानीय आबादी घाटों पर कम ही दिखी क्योंकि उसे गलियों से जाना पसंद नहीं होता। बनारस में लोग घाटे घाट निकलना पसंद करते हैं। घाटे घाट का विकल्प इस मौसम में खत्म हो जाता है। वैसे भी, बारिश के बााद उमस और गर्मी इस कदर थी कि एक जगह रुकना मुहाल था, लेकिन अचानक गोदौलिया चौराहे पर आई एक आवाज़ के कारण हम काफी देर रुके रहे। देखा कि सिद्धांत मोहन उस पटरी से अपनी स्कूटी से मेरा नाम पुकार रहे थे। थोड़ी देर में वापस लौटने को कह के चले गए। दोबारा कुछ देर बाद फोन कर के लोकेशन पूछे और बोले की आ रहे हैं। फिर वे नहीं आए। रात में बताए कि गाड़ी खराब हो गई थी।
जब उनका फोन ऑफ बताने लगा, तब हमने एक रिक्शे वाले से पूछा अस्सी चलोगे। उसने कहा सत्तर रुपया। मैंने पूछा इतना क्यों। उसने कहा जाम हौ। अगर मैं अंग्रेज़ी का उपन्यासकार होता तो लिखता कि जाम इज़ द बज़वर्ड इन बनारस टुडे !
पांडे हवेली से लेकर भदैनी के बीच पानी लगा हुआ था। किसी को नहीं मालूम था कि उसका चक्का कब और किस गड्ढे में फंसने वाला है। पीछे वाली हर गाड़ी आगे वाली को देखकर चल रही थी। जो सबसे आगे था, वह सबको लेकर डूबने में समर्थ था। रिक्शे वालों की पूरी कोशिश थी कि उन्हें नीचे पानी में न उतरना पड़े, इसलिए गड्ढे में एक चक्का फंसने के बाद भी वे गद्दी पर बठे-बैठे पैडल मार रहे थे। भदैनी के बाद मामला साफ़ था। पप्पू की चाय की दुकान पर अभी दो-चार लोग ऐसे ही मंडरा रहे थे। अस्सी पर आरती होने वाली थी। दिल्ली में बहुत सुने थे कि अस्सी साफ हो गया है, मिट्टी हट गई है। पानी इतना ऊपर था कि साल भर से सुने जा रहे इस वाक्य का मतलब नहीं समझ आ रहा था। एक लंगड़ आरती देखने आए स्थानीय और विदेशी लोगों को समान रूप से हांक रहा था। जबरन ताली बजाने के लिए उन्हें प्रेरित कर रहा था। लाउडस्पीकर से आती फटी आवाज़, आरती का धुआं और उमस मिलकर एक सामूहिक कोफ्त पैदा कर रहे थे। मेरी ही तरह वहां बैठे तमाम लोगों को भी शायद इन तमाम दृश्यों का कोई अर्थ नहीं समझ आ रहा था। उनमें से कुछ लोग आगे की कतार में बैठ कर लंबी सी रस्सी पकड़े घंटा हिलाए जा रहे थे।
अच्छा हां, एक बात बताना भूल ही गए। वो जो अर्दली बाजार वाला डा. मोदी एक्स-रे था, सवा साल बाद उसके बोर्ड में से डा. और एक्स-रे गायब हो गया है। आप कचहरी से आगे बढि़ए और रस्ता बाएं मुड़ते ही बाईं ओर देखिए, आपको यह बोर्ड दिखेगा:
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