2001 से स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (सिमी) अनलॉफुल एक्टिविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट (यूएपीए) के तहत एक प्रतिबंधित संगठन है क्योंकि वह तथाकथित राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल है | ध्यान देने वाली बात यह है कि यूएपीए के अंतर्गत एक ट्रिब्यूनल (ख़ास न्यायालय) का गठन होना अनिवार्य है | यह ट्रिब्यूनल सरकार की उस अधिसूचना के सही या गलत होने का फैसला करता है जिसके अंतर्गत किसी संगठन को प्रतबंधित किया जाता है और प्रतिबंधित संगठन को उस पर लगे प्रतिबंध को चुनौती देने का मौका भी देता है | सिमी ने सात बार खुद पर लगे प्रतिबंध को चुनौती दी है और हर बार ट्रिब्यूनल्स ने सरकार के फैसले को मान्यता दी है | पी.यू.डी.आर. की नई रिपोर्ट Banned and Damned: SIMI’s Saga with UAPA Tribunals में यूएपीए ट्रिब्यूनल्स द्वारा हाल में दिए गए दो फैसलों (2010 और 2012) का विस्तृत अध्ययन और विशलेषण किया गया है | रिपोर्ट में यूएपीए के अंतर्गत प्रतिबन्ध लगाने वाले प्रावधानों के खिलाफ दलील रखी गई है और यूएपीए को रद्द करने की मांग की गई है |
रिपोर्ट में उठाए गए कुछ प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं –
1. सन्दर्भ – पहले अध्याय में सिमी पर लगातार लगाये गए प्रतिबंधों को ऐतिहासिक सन्दर्भ में रखकर देखा गया है | इस अध्याय में ट्रिब्यूनल और ट्रायल कोर्ट के फैसलों के बीच अंतरविरोध को दर्शाया गया है | ट्रिब्यूनल के फैसलों के विपरीत जिसने लगातार सिमी को प्रतिबंधित किया है, ट्रायल कोर्ट ने पिछले 14 सालों में बहुत सारे सिमी कार्यकर्ताओं को रिहा किया है (पृष्ठ 3-4 देखें) | हुबली षड्यंत्र समेत हाल में हुई रिहाइयां, ये सवाल उठाती हैं कि ट्रिब्यूनल्स द्वारा ट्रायल कोर्ट के फैसलों को नज़रंदाज़ क्यों किया जा रहा है | रिपोर्ट के बाकी हिस्सों में इस सवाल का विशलेषण किया गया है कि ट्रिब्यूनल्स (विपरीत दावा करने के बावजूद), सरकार की अधिसूचनाओं के लिए एक रबर स्टाम्प बनकर क्यों रह गए हैं |
2. लगातार उल्लंघन – 2001 से, क़ानून के अनुसार यूएपीए ट्रिब्यूनल्स की अध्यक्षता हाई कोर्ट के एक जज वाले बेंच द्वारा की जाती रही है | 2008 में जस्टिस गीता मित्तल की अध्यक्षता में सिमी पर से प्रतिबन्ध हटाया गया क्योंकि जज ने ध्यान दिलाया की सरकार ने ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रतिबन्ध के लिए तब तक कोई ‘आधार’ नहीं रखे थे | पिछले तीन ट्रिब्यूनल्स ने (2001, 2003, 2006) यूएपीए का उल्लंघन किया था क्योंकि उन्होंने सरकार की अधिसूचना का अनुसमर्थन आधार जाने बिना कर दिया था | इन उल्लंघनों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई और प्रतिबन्ध को खारिज़ करने वाले निर्देश को भी सर्वोच्च न्यायालय ने दो सालों के लिए स्थगित कर दिया (पृष्ठ 7-8 देखें) |
3. पक्षपाती प्रावधान – यूएपीए की धारा 3 से 9 गैरकानूनी संगठनों पर प्रतिबन्ध के बारे में हैं | ये प्रावधान ट्रिब्यूनल के संचालन के लिए कार्यकारी सुरक्षा उपाय भी निर्धारित करते हैं (पृष्ठ 19-21 देखें) | लेकिन अगर हम फैसलों में बार-बार प्रयोग की गई शब्दावली को देखें (जैसे “जन हित के खिलाफ” / “तत्काल प्रभाव” / “पर्याप्त कारण” / “जहाँ तक व्यवहारिक हो” / “जहां तक सम्भव हो” आदि), तो स्पष्ट हो जाता है कि इस अधिनियम में ही कई प्रावधान निहित हैं जो इन कार्यकारी सुरक्षा उपायों को कमज़ोर करते हैं | इसके चलते सरकार बिना किसी नियन्त्रण या सत्यापन के तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगा सकती है | साथ ही, अभियोग पक्ष “जन हित” के नाम पर ट्रिब्यूनल को बिना सबूत दिए कोई भी जानकारी देने से मना कर सकता है | इसके अतिरिक्त, ट्रिब्यूनल का न्यायिक चरित्र इतना लचीला है कि वह प्रतिबन्ध लगाने के लिए कई आधारों की जगह “एक आधार” को पर्याप्त कारण बना सकता है और “व्यवहारिकता” के नाम पर साधारण क़ानून की निर्धारित प्रणालियों को भी नज़रंदाज़ कर सकता है (पृष्ठ 19 – 25 देखें) |
4. पक्षपातपूर्ण कार्यवाहियाँ – क्योंकि फैसले तक पहुँचने की प्रक्रिया सिविल मुक़दमे जैसी ही है, इसलिए ट्रिब्यूनल द्वारा अभियोग पक्ष को सिमी के खिलाफ मामला बनाने में काफ़ी आसानी रहती है | ‘इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्दों के आडम्बर के इस्तेमाल से, अभियोग पक्ष यह दर्शाता है कि कैसे सिमी के संदिग्ध सदस्यों द्वारा देश भर में आतंकवादी साज़िशें रची जा रही हैं, और कैसे कई “फ्रंट संगठन” सिमी के समर्थन में काम कर रहे हैं | ऐसा करने के लिए अभियोग पक्ष तरह-तरह की “तथाकथित प्रतिबंधित साहित्यिक सामग्री” जैसे गीत, कविताएँ, पर्चे, रसीदें, किताबें, सीडी, डीवीडी, ईमेल आदि का भी इस्तेमाल करता है | संक्षिप्त में, अभियोग पक्ष की दलील यह होती है कि प्रतिबंध के बावजूद सिमी गुप्त रूप से काम करता जा रहा है और इस्लामिक आतंकवादी संगठनों के साथ नज़दीकी रिश्ते बनाए हुए है (पृष्ठ 8-12 देखें) | ट्रिब्यूनल को ठोस सबूतों की ज़रूरत नहीं होती इसलिए अभियोग पक्ष हलके-फुल्के बदलावों के साथ दशकों “पुराने मामलों” को भी जायज़ बताकर प्रस्तुत कर देता है, पुलिस के सामने की गई स्वीकृति को गवाही की तरह प्रस्तुत कर लेता है और जैसे पहले बताया गया है सबूतों को “जन हित” के आधार पर रोक लेता है (पृष्ठ 13-18 देखें) |
5. अन्यायपूर्ण फैसले – अधिनियम के प्रतिबन्ध सम्बन्धी प्रावधान और धारा 41 के अनुसार एक संगठन “औपचारिक विघटन” के बाद भी कायम रह सकता है | इस तरह से प्रभावित संगठन के लिए कोई भी न्यायपूर्ण मौका नहीं रह जाता है | सिमी का यह दावा की वह प्रतिबन्ध के बाद कभी सक्रिय नहीं था, कभी स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि अभियोग पक्ष लगातर सिमी की गुप्त गतिविधियों का राग अलापता रहता है | और तो और, 2012 ट्रिब्यूनल के समक्ष एक्ट की धारा 6 के अंतर्गत सुने जाने के अधिकार के लिए प्रस्तुत हुए भूतपूर्व सिमी कार्यकर्ताओं को सरकारी वकील ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि इसके लिए कार्यकर्ताओं का “किसी सक्रिय संगठन का सदस्य” होना अनिवार्य है | इस दावे को ट्रिब्यूनल जज ने सही ठहराया था (पृष्ठ 24-26 देखें) | सिमी के प्रतिबंधित और शापित होने का बोज शाहिद बद्र फालिही के 2010 के ट्रिब्यूनल के समक्ष दिये गए कथन में सटीकता से उजागर होता है जहां उन्होंने ये कहाँ है कि यह सरासर “गैरबराबर, अनैतिक, और अन्यायपूर्ण है” (पृष्ठ 6 देखें) |
6. उद्देश्य – ट्रिब्यूनल अपने सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करने की भूमिका को छोड़ कर अधिकतर अभियोग पक्ष की दलील को ही सही मान लेता है | कार्यवाही और फैसलों में व्यक्तिगत पक्षपात भी बहुत अहम रहता है | ट्रिब्यूनल की भूमिका सरकार की ज़रूरतों के अनुसार तय हो जाती है क्योंकि वह न तो दस्तावेज़ों का सत्यापन कर सकता है, और न ही अभियोग पक्ष द्वारा प्रस्तुत दलीलों की जांच कर सकता है | ट्रिब्यूनल बड़ी तादाद में हुई गिरफ्तारियों की स्थिति में भी कुछ नहीं कर सकता है जैसा की “तुरंत प्रभाव” वाले प्रतिबंधों के मामलों में अक्सर देखा गया है | ट्रिब्यूनल की कार्यप्रणालियों का लचीलापन और अधिनियम द्वारा सरकार को दी गई शक्तियाँ दोनों मिलकर सरकार को और अधिक शक्ति प्रदान कर देते हैं (पृष्ठ 26-28 देखें) |
7. समीक्षा समितियाँ – इस रिपोर्ट में किया गया विशलेषण “गैरकानूनी” संगठनों के लिए गठित ट्रिब्यूनल्स तक सीमित है, पर रिपोर्ट “आतंकवादी” संगठनों के लिए निर्धारित समीक्षा प्रक्रिया को चुनौती देने पर भी ज़ोर देती है | अधिनियम में निहित मनमानापन इस बात से पता चलता हैं कि अधिनियम में “गैरकानूनी” और “आतंकवादी” संगठनों में फर्क किया गया है और आतंकवादी संगठनों को प्रतिबंधित करने के लिए ट्रिब्यूनल की जगह एक अलग समीक्षा समिति का प्रावधान है | सर्वोच्च न्यायालय ने 1952 में वीजी राव फैसले और 1995 में जमात-ए-इस्लामी हिन्द फैसले में सलाहकार बोर्ड को खारिज़ कर दिया था और असल में समीक्षा समितियां उसी तरह के सलाहकार बोर्ड का एक नया नाम है (पृष्ठ 29 देखें) |
8. यूएपीए को रद्द करना क्यों ज़रूरी है – अधिनियम में हाल में 2012 के जज के सुझाव के आधार पर हुए एक संशोधन के तहत प्रतिबन्ध की अवधि 2 से बढ़ाकर 5 साल कर दी गई है | इस तरह से सिमी का स्थाई रूप से प्रतिबंधित होना लगभग निश्चित हो गया है | इसके बावजूद, एक के बाद एक ट्रिब्यूनल्स ने माना है की ये प्रतिबन्ध सिमी को रोकने में नाकामयाब रहे हैं | फिर क्यों ये प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं, जबकि यह साफ़ है कि वे बहिष्कार और अवैध गतिविधियों की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं ? अगर सरकारी दलील यह है कि प्रतिबन्ध केवल हिंसक गतिविधियों और विचारधाराओं को रोकने के लिए हैं, तो यह सवाल भी जायज़ है की केवल कुछ असहमती व्यक्त करने वाले संगठनों को ही राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर निशाना क्यों बनाया जाता है | यह भेदभावपूर्ण रवैया इस बात से और जटिल हो जाता है कि यूएपीए जैसे क़ानून अपराध की नई श्रेणियाँ पैदा कर देते हैं जिनकी मदद से सरकार संगठनों और उनके सदस्यों को निशाना बना सकती है | सिमी के खिलाफ आम तौर पर सदस्यता और “गैरकानूनी” गतिविधियों का आरोप लगता है और दोनों के लिए सज़ा के सख्त प्रावधान है (2 साल से लेकर आजीवन कारावास और फांसी तक) | रिपोर्ट में शामिल कई मामले अधिनियम का साम्प्रादायिक चरित्र उजागर करते हैं | इस अधिनियम के तहत आरोपित मुसलामानों के लिए गम्भीर सामाजिक और आर्थिक परेशानियाँ खड़ी हो गई हैं | रिपोर्ट में अधिनियम को रद्द करने की मांग की गई है क्योंकि यह साम्प्रदायिक राजनीति को जन्म देता है और संगठनों से संबंधों के आधार पर आरोपों की एक नई श्रेणी बनाकर आरोपियों पर क़ानून की आड़ में हिंसात्मक हमला करता है | (पृष्ठ 29-32 देखें)
9. राजनैतिक आज़ादियों के पक्ष में दलील – यह रिपोर्ट इस बात पर ज़ोर देती है कि संविधान द्वारा बोलने, संगठित होने और एकत्रित होने की राजनैतिक आज़ादियों को संरक्षित करने की ज़रुरत है | ये आज़ादियाँ यूएपीए के राज में खतरे में हैं | आज “यथोचित प्रतिबंधों” (reasonable restrictions) पर सवाल उठाने की पहले से भी ज़्यादा ज़रूरत है क्योंकि हमारे राजनैतिक जीवन का बड़ा हिस्सा इनके दायरे में आता है | 1951 से शुरू हुए इनके इतिहास के सन्दर्भ में भी इनको देखना ज़रूरी है (पृष्ठ 30 देखें) | यह दलील कि हिंसक गतिविधियां राजनैतिक आज़ादियों पर पाबन्दियों से रोकी जा सकती हैं केवल सुनने में आकर्षक लगती है लेकिन असल में खोखली है, क्योंकि यह राज्य की ही ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने नागरिकों की रक्षा करे और अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही करे | रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि डर और झूठ की बुनियाद पर फैलाए जा रहे असुरक्षा के आतंक के जाल में फंसने से बेहतर है कि आज़ादी का पक्ष लिया जाए चाहे उसमें गलतियों की संभावनाएं ही क्यों न हो |
मेघा बहल और शर्मिला पुरकायस्थ
सचिव, www.pudr.org; फ़ोन (शर्मिला) +91-9971179595
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