इस साल अक्षय तृतीया पर जब देश भर में लगन चढ़ा हुआ था, बारातें निकल रही थीं और हिंदी अखबारों के स्थानीय संस्करण हीरे-जवाहरात के विज्ञापनों से पटे पड़े थे, तब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ घरों में पहले से तय शादियां अचानक टाल दी गई थीं। कई अनब्याही लड़कियों के अभागे बाप बेमौसम बरसात और ओले से बरबाद फसल की भेंट गए, तो कई के भाई लेटी हुई गेहूं की बालियों और सड़े हुए आलू देखकर सदमे आ गए थे। खबरों की मानें तो बुलंदशहर, इटावा, बुंदेलखण्ड और मैनपुरी के किसान आगरा के पागलखाने के चक्कर लगा रहे थे। तबाही पूरब में भी हुई थी, लेकिन बनारस से सटे सोनभद्र में कहर कुदरत ने नहीं बल्कि पुलिस की लाठियों ने बरपाया था। इस इलाके में कम से कम दो शादियां ऐसी थीं जो टाल दी गयीं।
सोनभद्र उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जि़ला है। यहां की आधे से ज्यादा ज़मीन जंगल की है और दुनिया के सबसे पुराने जीवाश्म भी यहीं की विंध्य श्रृंखलाओं में पाए जाते हैं। आदिवासी बहुल यह जि़ला अपने आप में इकलौता है जिसकी सीमा चार राज्यों से एक साथ लगती है- छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड और मध्यप्रदेश। पिछले पांच महीने से अचानक इस जि़ले को ‘विकास’ नाम का रोग लग गया है। इसके पीछे पांगन नदी पर प्रस्तावित कनहर नाम का एक बांध है जिसे कोई चालीस साल पहले सिंचाई परियोजना के तहत मंजूरी दी गयी थी। झारखण्ड (तत्कालीन बिहार), छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्यप्रदेश) और उत्तर प्रदेश के बीच आपसी मतभेदों के चलते लंबे समय तक इस पर काम रुका रहा और बीच में दो बार इसका लोकार्पण भी हुआ। समय बीतने के साथ इसकी लागत भी आरंभिक 23 करोड़ रुपये से बढ़कर 2800 करोड़ रुपये हो गयी। चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव ने तय कर दिया था कि इस देश पर वही राज करेगा जो ‘विकास’ का जुमला रटेगा, लिहाजा खुद को समाजवादी कहने वाले भी इस लोभ से अछूते न रह सके। पिछले साल जिस वक्त अखिलेश यादव की सरकार ने नयी-नयी विकास परियोजनाओं का एलान करना शुरू किया, ठीक तभी उनकी सरकार को इस भूले हुए बांध की भी याद हो आयी।
फौजदार, शनीचर और देवकलिया उन पंद्रह घायलों में शामिल सिर्फ तीन नाम हैं जिन्हें 20 अप्रैल तक दुद्धी के ब्लॉक चिकित्सालय में बिना पानी, दातुन और खून से लथपथ कपड़ों में अंधेरे वार्डों में कैद रखा गया था। प्रशासन की सूची के मुताबिक 14 अप्रैल की घटना में 12 पुलिस अधिकारी/कर्मचारी घायल हुए थे जबकि सिर्फ चार प्रदर्शनकारी घायल थे। इसके चार दिन बाद 18 अप्रैल की सुबह पांच बजे जो हमला हुआ, उसमें चार पुलिसकर्मियों को घायल बताया गया है जबकि 19 प्रदर्शनकारी घायल हैं। दोनों दिनों की संख्या की तुलना करने पर ऐसा लगता है कि 18 अप्रैल की कार्रवाई हिसाब चुकाने के लिए की गयी थी। इस सूची में कुछ गंभीर गड़बडि़यां हैं। मसलन, दुद्धी के सरकारी चिकित्सालय में भर्ती सत्तर पार के जोगी साव और तकरीबन इतनी ही उम्र के रुकसार का नाम सरकारी सूची में नहीं है। इसी तरह सुन्दरी गांव से दो महिलाएं 18 अप्रैल की घटना के बाद से ही लापता बतायी जा रही हैं (एक का नाम शांति देवी है जो सुन्दरी की निवासी हैं) जिनके बारे में तीन तरह की बातें सुनने में आयी हैं। एक स्थानीय पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर दावे से कहते हैं कि इनकी मौत हो गयी है और इन्हें पुलिस ने मौके पर ही दफना दिया है। कुछ दूसरे पत्रकारों का मानना है कि वे दोनों 14 अप्रैल की घटना में नामजद थीं और अभी जेल में हैं। जिले के पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव कहते हैं कि कोई भी लापता नहीं है, यह सब अफ़वाह है।
अगर आपको लगता है कि 14 और 18 अप्रैल की घटना के संबंध में दी गयी उपर्युक्त सूचनाएं अधूरी हैं, तो आप बिलकुल ठीक सोच रहे हैं। जान जोखिम में डालकर भी अगर इतने ही तथ्य निकल पाएं, तो हम समझ सकते हैं कि सच्चाई को छुपाने के लिए प्रशासन की ओर से कितना ज़ोर लगाया जा रहा होगा। हम वास्तव में नहीं जान सकते कि बांध की डूब से सीधे प्रभावित होने वाले गांवों सुन्दरी, भीसुर और कोरची के कितने घरों में इस लगन बारात आने वाली थी, कितने घरों में वाकई आयी और कितनों में शादियां टल गयीं। कितने घर बसने से पहले उजड़ गए और कितने बसे-बसाये घर बांध के कारण उजड़ेंगे, दोनों की संख्या जानने का कोई भी तरीका हमारे पास नहीं है। दरअसल, यहां कुछ भी जानने का कोई तरीका नहीं है सिवाय इसके कि आप सरकारी बयानों पर जस का तस भरोसा कर लें। वजह इतनी सी है कि यहां एक बांध बन रहा है और बांध का मतलब विकास है। इसका विरोध करने वाला कोई भी व्यक्ति विकास-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी है।
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