14 अप्रैल की गोलीबारी में घायल अकलू को 1 मई को बीएचयू के अस्पताल से छोड़ा गया। उस दिन बताते हैं कि अस्पताल में एक सिपाही अकलू के पास कुछ पैसे लेकर आया था। एक वामपंथी छात्र संगठन के कुछ कार्यकर्ता जो अकलू की देखरेख में थे, उनका कहना है कि बांध की ठेकेदार एचईएस कंपनी ने बीस हज़ार रुपये अकलू को भिजवाये थे और हिदायत दी थी कि अस्पताल से निकलने के बाद वह दोबारा आंदोलन में नहीं जुड़ेगा। उसी दिन यह भी आशंका ज़ाहिर की गयी कि कहीं अस्पताल से निकलने के बाद अकलू को गिरफ्तार न कर लिया जाए। इस आशय का एक ईमेल एलर्ट अखिल भारतीय वन श्रमजीवी यूनियन की ओर से प्रसारित किया गया था जिसमें अकलू को गिरफ्तारी से बचाने के लिए डीएम, एसपी, मुख्य सचिव, गृह सचिव, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग आदि को फोन करने की अपील की गयी थी। आखिरकार अकलू को गिरफ्तार नहीं किया गया।
सोनभद्र के जिलाधिकारी संजय कुमार इसी तरह की कार्रवाइयों से आजिज़ हैं। वे कहते हैं, ”18 की घटना के संबंध में हज़ारों मैसेज सर्कुलेट किए गए कि छह लोगों को मारकर दफनाया गया है। इंटरनेशनल मीडिया भी फोन कर रहा है। एमनेस्टी वाले यही कह रहे हैं। हम लोग पागल हो गए हैं जवाब देते-देते। इतनी ज्यादा अफ़वाह फैलायी गयी है। चार दिन तक हम लोग सोये नहीं।” कौन फैला रहा है यह अफ़वाह? जवाब में जिलाधिकारी हमें एक एसएमएस दिखाते हैं जिसमें 18 तारीख के हमले में पुलिस द्वारा छह लोगों को मार कर दफनाए जाने की बात कही गयी है। भेजने वाले का नाम रोमा है। रोमा अखिल भारतीय वन श्रमजीवी यूनियन की नेता हैं और सोनभद्र के इलाके में लंबे समय से आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे दिलवाने के लिए काम करती रही हैं। 14 अप्रैल की घटना के बाद जिन लोगों पर नामजद एफआइआर की गयी उनमें रोमा भी हैं। पुलिस को उनकी तलाश है। डीएम कहते हैं कि कनहर बांध विरोधी आंदोलन को रोमाजी ने अपना निजी एजेंडा बना लिया है। ”तो क्या सारे बवाल के केंद्र में अकेले रोमा हैं?” यह सवाल पूछने पर वे मुस्करा कर कहते हैं, ”लीजिए, सारी रामायण खत्म हो गयी। आप पूछ रहे हैं सीता कौन है।” डीएम और एसपी दोनों हंस देते हैं।
आंदोलन के नेतृत्व के बारे में सवाल पूछने पर पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव कहते हैं, ”महेशानंद आंदोलन छोड़कर भाग गए हैं। उन्होंने मान लिया है कि उनके हाथ में अब कुछ भी नहीं है। उनका कहना है कि बस उनके खिलाफ मुकदमा नहीं होना चाहिए। उनके जाने के बाद रोमाजी ने कब्ज़ा कर लिया है।” आंदोलन पर ”कब्ज़े” वाली बात इसलिए नहीं जमती क्योंकि लोग अब भी इसे रोमा का आंदोलन मानते हैं। ऐसा लगता है कि प्रशासन को दिक्कत दूसरी वजहों से है। यादव कहते हैं, ”महेशानंद बांध क्षेत्र से बाहर के इलाके में शांतिपूर्ण आंदोलन चलाते थे। इससे हमें कोई दिक्कत नहीं थी।” प्रशासन को दिक्कत रोमा के आने से हुई। जिलाधिकारी संजय कुमार कहते हैं, ”रोमाजी बहुत अडि़यल हैं।” वे इसके लिए ”पिग-हेडेड” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। वे कहते हैं, ”वे कहती हैं कि हमें बात करनी ही नहीं है… आप हमें गोली मार दीजिए, हम बांध नहीं बनने देंगे। उन्होंने संवाद की कोई जगह छोड़ी ही नहीं है। आखिर हम कहां जाएं?”
जहां तक महेशानंद का सवाल है, तो वे इस पूरे प्रकरण के दौरान अचानक तब सार्वजनिक रूप से दिखायी देते हैं जब मेधा पाटकर बांध का दौरा करने 25 अप्रैल को दुद्धी जाती हैं। मेधा पाटकर का टिकट बनारस तक का था लेकिन वे इलाहाबाद ही उतर गयी थीं। अधिवक्ता ओडी सिंह के यहां से जब वे रवाना हुईं, तब यह आशंका थी कि उन्हें जाने से रोका जाएगा। इसके बाद महेशानंद को फोन किया गया। महेशानंद बताते हैं कि वे लोग इस इलाके के सारे रास्तों से परिचित हैं। वे कहते हैं, ”हम लोग मेधाजी को म्योरपुर वाले रास्ते से गांव में ले गये।” यह पूछे जाने पर कि मेधा पाटकर तो रोमा के कहने पर बांध का दौरा करने आयी थीं फिर वे कैसे उनके साथ हो लिए, महेशानंद कहते हैं, ”आसमान में पक्षी कितनो उड़े, दाना चुगने के लिए उसे ज़मीन पर तो आना ही पड़ेगा।”
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