नारायण देसाई : एक सर्वोदय कार्यकर्ता की उद्देश्यपूर्ण जीवन-यात्रा

‘मैं हार सकता हूँ , बार – बार हार सकता हूँ लेकिन हार मान कर बैठ नहीं सकता हूँ ।’ लोहिया की पत्रिका ‘जन’ के संपादक ओमप्रकाश दीपक ने कहा था। नारायण देसाई ने कोमा से निकलने के बाद के तीन महीनों में अपनी चिकित्सा के प्रति जो अनुकूल और सहयोगात्मक रवैया प्रकट किया उससे यही लगता है कि वे हार मान कर नहीं बैठे , अन्ततः हार जरूर गये। आखिरी दौर में हम जो उनकी ‘सेवा’ में थे शायद हार मान कर बैठ गये। उनकी हालत में उतार – चढ़ाव आये । अपनी शारीरिक स्थिति को भली भांति समझ लेने के बाद भी मानो किसी ताकत के बल पर उन्होंने इन उतार चढ़ावों में निराशा का भाव प्रकट नहीं किया । खुश हुए,दुखी हुए,अपनी पसंद और नापसन्दगी प्रकट की। स्वजनों को नाना प्रकार से अपने स्नेह से भिगोया।

विनोबा द्वारा आपातकाल के दरमियान गोवध-बन्दी के लिए उपवास शुरु किए गए तब नारायण देसाई अपनी पत्नी उत्तरा के साथ उनका दर्शन करने पवनार गए थे। दोनों हाथों से विनोबा ने उनके सिर को थाम लिया था। चूंकि नारायण देसाई आपातकाल विरोधी थे इसलिए उस वक्त विनोबा के सचिवालय के एक जिम्मेदार व्यक्ति ने नारायण देसाई को उनकी संभावित गिरफ्तारी का संकेत दिया था। विनोबा नारायण देसाई के आचार्य थे और अपनी जवानी में उन्होने उन्हें हीरो की तरह भी देखा होगा ऐसा लगता है । विनोबा की सचेत मौत से गैर सर्वोदयी किशन पटनायक तक आकर्षित हुए थे तो नारायण देसाई पर तो जरूर काफी असर पड़ा ही होगा। इस बीमारी के दौर में निराशा का उन पर हावी न हो जाना मेरी समझ से इस विनोबाई रुख से आया होगा।
तरुणाई में रूहानियत का एक जरूरी सबक भी विनोबा से उन्हें मिला था। आम तरुण की भांति बड़ों की बात आंखें मूंद कर न मान लेने का तेवर प्रदर्शित करते हुए नारायण देसाई ने विनोबा से कहा था ,’बापू द्वारा बताई गई सत्याग्रह की पहली शर्त – ईश्वर में विश्वास- मेरे गले नहीं उतरती।‘ आचार्य ने पलट कर पूछा ,’ प्रतिपक्षी के भीतर की अच्छाई में यकीन करके चल सकते हो?’
‘यह बात कुछ गले उतरती है’।
‘तब तुम पहली शर्त पूरी करते हो’ ।

अपनी समस्त पैतृक जमीन के रूप में गुजरात का पहला भूदान देने के बाद ही वे सामन्तों से भूदान मांगने निकले थे। इस मौके पर विनोबा का तार मिला था तो गदगद हो गये थे – ‘जिस व्यक्ति के बगल में खड़े-खड़े उनका ध्यान आकृष्ट हो इसकी प्रतीक्षा करनी पडती थी, उस हस्ती ने याद रख कर तार से आशीर्वाद भेजे हैं।‘

प्राकृतिक संसाधनों की मिल्कियत राजनीति द्वारा तय होती है। इस प्रकार भूदानी एक सफल राजनीति कर रहे थे। सरकारी भूमि सुधारों और समाजवादियों-वामपंथियों के कब्जों द्वारा जितनी जमीन भूमि बंटी है उससे अधिक भूदान में हासिल हुई। जो लोग इसे तेलंगाना के जन-उभार को दबाने के लिए शुरु किया गया आन्दोलन मानते हैं उन्हें इन तथ्यों को नजरन्दाज नहीं करना चाहिए। ‘दान’ मांगने के दौर में कुछ उत्साही युवा जो तेवर दिखाते थे उन्हें सर्वोदयी कैसे आत्मसात करते होंगे,सोचता हूं। नारायण भाई के मुंह से यह गीत सुना था, ‘‘भूमि देता श्रीमानो तमने शूं थाय छे? तेल चोळी,साबू चोळी खूब न्हाये छे! ने भात-भातना पकवानों करि खूब खाये छे।‘’(श्रीमानों, भूमि देने में आपका क्या जाता है? आप तो तेल-साबुन मल के खूब नहाते हैं और भांति-भांति के पकवान बना कर खूब खाते हैं।) यह बहुत लोकप्रिय भूदान-गीत भले नहीं रहा होगा लेकिन उस पर रोक भी नहीं लगाई गई थी। आज मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की सरकारें देश का प्राकृतिक संसाधन यदि देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंपने पर तुली हुई हैं तो यह भी राजनीति द्वारा हो रहा है। बहरहाल, भूदान एक कार्यक्रम के बजाए एकमात्र कार्यक्रम बन गया ।

आदर्श समाज की अपनी तस्वीर गांधी ने आजादी के पहले ही प्रस्तुत कर दी थी। उनके आस-पास की जमात में उस तस्वीर का अक्स भी साफ-साफ दीखता था। उस तस्वीर को आत्मसात करने वाले नारायण देसाई जैसे गाम्धीजनों का जीवन आसान हो जाया करता होगा और इसलिए मृत्यु भी। इन लोगों की दिशा भी स्पष्ट होगी।

१९४६ में गांधीजी से नारायण देसाई ने कहा था ,’आपके दो किस्म के अनुयाई हैं। कुछ राजनीति में हैं और कुछ रचनात्मक कामों में। मैं इन दोनों तरह के कामों के बीच सेतु का काम करना चाहता हूं।‘ १९४७ में विवाह के बाद अपनी पत्नी उत्तरा और मित्र मोहन पारीख के साथ उन्होंने दक्षिण गुजरात के आदिवासी गांव में ग्रामशाला की शुरुआत की। प्रतिष्ठित साहित्यकार उमाशंकर जोशी ने इसका उद्घाटन किया और अपनी पत्रिका ’संस्कृति’ में इसका विवरण लिखा। आजादी के काफी पहले से महात्मा गांधी के सहयोगी जुगतराम दवे का यह कार्यक्षेत्र था। जुगतराम दवे कहते थे कि वे द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा कटवाने का प्रायश्चित कर रहे हैं ।

१९४५ से ही नेहरू और गांधी के बीच का गांव बनाम शहर केन्द्रित विकास का दृष्टिभेद सामने आ चुका था । सर्वोदय की मुख्यधारा ने इस ओर बहुत लम्बे समय तक आंखें मूंदे रक्खीं । १९६७ में नवकृष्ण चौधरी द्वारा ‘गैर-कांग्रेसवाद’ के अभियान को समर्थन और ओड़ीशा में इसके लिए पहल एक स्वस्थ अपवाद था । नेहरू के औद्योगिक विकास के मॉडल के प्रति सर्वोदय आन्दोलन द्वारा आंखों के मूंदा होने के फलस्वरूप जे.सी. कुमारप्पा जैसे प्रखर गांधीवादी अर्थशास्त्री माओ-त्से-तुंग के ‘घर के पिछवाड़े इस्पात भट्टी’ (बैकयार्ड स्टील फरनेस) जैसे प्रयोगों से आकर्षित हुए। जमशेदपुर ,राउरकेला,भिवण्डी और अहमदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों में आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में हुए दंगों में ‘शान्ति सेना’ पूरी निष्ठा और लगन से काम करती थी लेकिन नेहरू द्वारा चुनी गई विकास की दिशा से इन दंगों के अन्तर्संबंध पर कोई प्रभावी आवाज नहीं उठाती थी। हाल के दशकों का उदाहरण देखें तो विकास की प्रचलित अवधारणा से प्रभावित होने के कारण गुजरात के सर्वोदय नेता कांग्रेस-भाजपा नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए नर्मदा पर बने बड़े बांधों के समर्थन में थे। नारायण देसाई इसका अपवाद थे। वे बडे बांधों और परमाणु बिजली के खिलाफ थे। अपने गांव के निकट स्थित काकरापार परमाणु बिजली घर के खिलाफ उन्होंने आन्दोलन का नेतृत्व किया और परमाणु बिजली के खिलाफ उन्होंने नुक्कड नाटक भी लिखा ।

जयप्रकाश नारायण ने नागालैण्ड, तिब्बत और काश्मीर जैसे मसलों पर अपना रुख साफ़-साफ़ तय किया था और बेबाक तरीके से जनता के समक्ष उसे वे पेश करते थे। शेख अब्दुल्लाह और उनका दल नैशनल कॉन्फरेन्स राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थक था लेकिन नेहरू ने उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार करके रखा था। नेहरू के गुजरने के बाद जेपी ने उनकी रिहाई के लिए पहल की। जेपी ने नारायण देसाई तथा राधाकृष्णन को शेख अब्दुलाह से मिलने भेजा और इन दोनों ने उनसे बातचीत की रपट तत्कालीन प्रधान मन्त्री लालबहादुर शास्त्री को पेश की जिसके बाद शेख साहब की रिहाई हुई। नागालैण्ड में जेपी द्वारा स्थापित नागालैण्ड पीस मिशन की पहल पर ही पहली बार युद्ध विराम हो पाया। तिब्बत की मुक्ति के जेपी प्रमुख समर्थक थे। हाल ही में धर्मशाला में गांधी कथा के मौके पर नारायण भाई की दलाई लामा और सामदोन्ग रेन्पोचे से तिब्बत मुक्ति पर महत्वपूर्ण बातचीत हुई । नारायण देसाई का आकलन था कि चीन के अन्य भागों में उठने वाले जन उभारों से तिब्बत मुक्ति की संभावना बनेगी।

तिब्बत की निर्वासित सरकार की संसद ने नारायण देसाई की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित किया है। जब पूरे विश्व की जनता बांग्लादेश की मुक्ति चाहती थी परंतु सरकारों को उसे मान्यता देने में हिचकिचाहट थी तब जेपी और प्रभावती देवी का विदेश दौरा हुआ। बांग्लादेश के शरणार्थियों के बीच राहत शिविर चलाने के अलावा बांग्लादेश के मुक्त होने के पहले उसके राष्ट्र-गान को युवा शरणार्थियों को सिखाने तक का काम शान्ति सेना ने किया था। २४ परगना के बनगांव जैसे सीमावर्ती कस्बे में शरणार्थियों के लिए स्थानीय आबादी से भी अन्न-चन्दा मांगा जाता था –‘ओपार थेके आश्चे कारा? आमादेरी भाई बोनेरा’ (उस पार से आ रहे हैं, कौन? आपके-मेरे भाई-बहन) जैसे नारे लगा कर। बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने मुक्ति-संग्राम का मित्र होने के नाते नारायण देसाई का सम्मान किया।

इन राहत कार्यों के लिए विदेशी स्वयंसेवी संस्थाओं से मदद ली गई। सूखा राहत के लिए भी विदेशी मदद लेने में संकोच नहीं किया। इन अनुभवों से सबक लेकर मनमोहन चौधरी जैसे सर्वोदय नेताओं ने विदेशी धन लेकर सामाजिक काम करने को स्वावलम्बन-विरोधी माना। ओडीशा सर्वोदय मण्डल ने विदेशी संस्थाओं से मुक्त रहने का फैसला भी किया लेकिन सर्व सेवा संघ (सर्वोदय मण्डलों का अखिल भारत संगठन) के स्तर पर कोई निर्णय नहीं लिया गया। नारायण देसाई ने भी ऐसी संस्था वाले सर्वोदइयों को बहुत स्नेहपूर्वक ‘तंत्र’ कम करते जाने तथा ‘तत्व’ को कमजोर न होने देने की सलाह जरूर दी थी। गांधीजनों के रचनात्मक कार्यक्रमों के अपनी संस्था तक कुंठित या आबद्ध हो जाने के प्रति उन्होंने चेतावनी दी । नारायण देसाई ने कहा कि रचना के साथ लोकजागरण लाने का काम नहीं हो रहा है ।

सर्वोदय आन्दोलन की एक विशेषता है। ‘सर्वसम्मति’ से फैसले लेने के बावजूद अपने मनपसंद फैसलों को ही मानने और बाकी फैसलों की उपेक्षा करने का चलन रूढ़ हो चुका है। गोवध बन्दी, शान्ति सेना, लोक समिति, खादी,विदेशी धन पर आश्रित रचनात्मक काम – इनमें से जिसे जो पसंद हो, कर सकता था। मसलन, गोवध-बन्दी आन्दोलन में जुटा व्यक्ति शान्ति सेना के काम में बिल्कुल रुचि न ले तो भी कोई दिक्कत नहीं थी। इस प्रकार ताकत बंटी रहती थी। नारायण देसाई सर्व सेवा संघ से स्थापना से जुड़े रहे तथा इसके अध्यक्ष भी हुए। कुछ समय पहले उन्होंने सर्व सेवा संघ को विघटित करने का सुझाव दिया।

ईरोम शर्मीला चानू के आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट विरोधी अनशन के बावजूद देश भर में उनके समर्थन में माहौल नहीं बन पा रहा है। देश के कुछ भागों में ऐसे दमनकारी कानून का विकल्प क्या हो सकता है यह विचारणीय है। साठ और सत्तर के दशक में ऊर्वशी अंचल (तब का नेफा और अब अरुणाचल प्रदेश। नारायण देसाई इसे उर्वशी अंचल कहते हैं और लोहिया ने उर्वशीयम कहा।) में शान्ति सेना के काम को भुलाया नहीं जाना चाहिए। वह इलाका जहां चीनी फौज ग्रामीणों को एक हाथ में आइना और दूसरे में माओ की तस्वीर दिखा कर पूछती हो,’तुम किसके करीबी हुए?’ जहां की सड़कों पर कदम-कदम पर भारतीय सेना के ’६२ के चीनी आक्रमण में पराजय के स्मारक बने हों वहां बिना सड़क वाले सुदूर गांवों में भी शान्ति केन्द्र चलते थे। तरुण शान्ति सेना के राष्ट्रीय शिबिरों में अरुणाचल के युवा भी हिस्सा लेते थे। आज यदि इस राज्य में पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह अलगाववादी असर प्रभावी नहीं है और हिन्दी का प्रसार है तो इसमें शान्ति सेना और नारायण भाई के हरि सिंह जैसे साथियों के योगदान को गौण नहीं किया जा सकता है। आपातकाल में इन केन्द्रों को सरकार ने बन्द कराया। १९७७ में जनता सरकार के गठन के बाद रोके गये काम को फिर से शुरु करने के लिहाज से मोरारजी देसाई ने नारायण देसाई को अपने साथ अरुणाचल प्रदेश के दौरे में बुलाया था। इसी यात्रा में वायुसेना का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। मोरारजी देसाई और नारायण देसाई समेत सभी यात्री बच गये थे किंतु तीनों चालकों की मृत्यु हो गई थी। नारायण भाई को लगा था कि महत्वपूर्ण यात्रियों की जान बचाने के लिए वायु सेना के उस जहाज के चालकों ने अपना बलिदान दिया था।

हितेन्द्र देसाई के मुख्य मन्त्रीत्व में हुए साम्प्रदायिक दंगों में शान्ति सेना के काम की मुझे याद है। तब ही नारायण देसाई के आत्मीय साथी नानू मजुमदार की कर्मठता के किस्से सुने और मस्जिदों में बने राहत शिबिरों को देखा था। इन दंगों के बाद जब नारायण भाई द्वारा काबुल में मिल कर दिए गए निमन्त्रण पर सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान भारत आए तो सर्वोदय मण्डल ने गुजरात में उनका दौरा कराया। उनका आना निश्चित हो जाने के बाद प्रधान मन्त्री ने उन्हें ‘सरकार का अतिथि’ घोषित किया। मुंबई के निकट भिवण्डी में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद भी जब दंगे नहीं हुए तो लोगों को सुखद अचरज हुआ। उन गैर सरकारी शान्ति समितियों को इसका श्रेय दिया गया जो इसके कई वर्ष पूर्व गठित हुई थीं और सामान्य परिस्थितियों में भी जिनकी बैठकें नियमित तौर पर हुआ करती हैं। भिवण्डी में इन ‘अ-सरकारी और असरकारी’ शान्ति समितियों के गठन में नारायण देसाई और भगवान बजाज जैसे उनके साथियों की अहम भूमिका थी। गांधी का सन्देश गुजरात के गांव-गांव तक नहीं फैला इसलिए इतना बड़ा नर-संहार संभव हुआ – अपनी इस विवेचना के कारण खुद को भी उन्होंने जिम्मेदार माना और रचनात्मक प्रायश्चित के रूप में गांधी-कथाएं की। गुजरात भर में कथाएं हो जाने के बाद ही अन्य प्रान्तों और विदेश गए।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक छात्रावास के कॉमन रूम में एक छोटी-सी गोष्ठी में जेपी ने ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ (यूथ फॉर डेमोक्रेसी) का आवाहन किया। सिर्फ २५-३० छात्र उस गोष्ठी में रहे होंगे।अगली बार जब काशी विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर जेपी आए तब वे लोकनायक थे और सिंहद्वार के समक्ष हजारों छात्रों का उत्साह देखते ही बनता था। इन दोनों कार्यक्रमों के बीच क्या-क्या हुआ होगा,यह गौरतलब है।

गुजरात में छात्रों ने अपनी सामान्य सी दिखने वाली मांगों के लिए नाना प्रकार के शांतिमय उपायों के कार्यक्रम शुरु किए थे जिनमें अद्भुत सृजनशीलता प्रकट होती थी। मसलन छात्रों द्वारा चलाई गई जन-अदालतों में मुख्यमन्त्री को राशन की लाइन में एक बरस तक खड़े रहने की सजा सुनाई जाती थी। नारायण देसाई ने नवनिर्माण आन्दोलन के सृजनात्मक कार्यक्रमों की रपट जेपी को दी जिसके बाद आन्दोलन के नेताओं के साथ जेपी का संवाद हुआ । जेपी ने गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन को समर्थन दिया। चिमनभाई पटेल सरकार की अन्ततः विदाई हुई और पहली बार बाबूभाई पटेल के नेतृत्व में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। बिहार के युवाओं के जरिए देश को अपना लोकनायक तो मिलना ही था। जेपी ने अपने आन्दोलन को ‘शांतिमय और शुद्ध उपायों’ से चलाया । इसे अहिंसक नहीं कहा। उन्हें लगता था कि अहिंसा श्रेष्ठतर मूल्य था । जो लोग सिर्फ रणनीति के तौर पर शान्तिमय उपायों को अपनाने को तैयार हुए थे,यानी जिनकी इसमें निष्ठा होना जरूरी न था वे भी आन्दोलन में शरीक थे। लाखों की सभाओं में जेपी ‘बन्दूक की नाल से निकलने वाली राजनैतिक शक्ति’ की अवधारण पर सवाल उठाते थे।

‘कितनी प्यार से जेपी इन सभाओं में पूछते थे,’कितनों को मुहैया कराई जा सकती हैं,बन्दूकें?’ ‘छिटपुट-छिटपुट हिंसा बड़ी हिंसा (सरकारी) से दबा दी जाएगी’ अथवा नहीं?’ , हिंसा न हो इसके लिए उनके साथी सजग थे।जेपी की सभा में आ रही जन सैलाब पर ‘इंदिरा ब्रिगेड’ के दफ्तर से गोलीबारी की प्रतिक्रिया न हो यह सुनिश्चित करके आचार्य राममूर्ति ने गांधी मैदान में जेपी को सूचना दी थी। बिहार बन्द के दरमियान रेल की पटरी पर जुटी नौजवानों की टोली को देख कर असहाय हुए जिलाधिकारी हिंसा और पटरी उखाड़े जाने की संभावना से आक्रांत थे। भीड़ यदि तोड़-फोड़ पर उतारू होती तो गोली-चालन की भी उनकी तैयारी थी। तब उन्ही से मेगाफोन लेकर नारायण देसाई ने उन युवाओं से संवाद किया और ‘हमला हम पर जैसा होगा,हाथ हमारा नहीं उठेगा’,’संपूर्ण क्रांति अब नारा है,भावी इतिहास हमारा है’ जैसे नारे लगवाये । जिलाधिकारी की जान में जान आई। बिहार की तत्कालीन सरकार द्वारा नारायण देसाई को बिहार-निकाला दिया गया था।

आपातकाल के दौरान जॉर्ज फर्नांडीस ने नारायण भाई के समक्ष अपनी योजना (जिसे बाद में सरकार ने ‘बडौदा डाइनामाइट केस’ का नाम दिया) रखी थी । नारायण भाई ने ऐसे मामलों में तानाशाह सरकारों द्वारा घटना – क्षेत्र की जनता पर जुर्माना ठोकने की नजीर दी और कहा कि इससे आन्दोलन के प्रति जनता की सहानुभूति नहीं रह जाएगी। आपातकाल के दौरान गुजरात से ‘यकीन’ नामक पत्रिका का संपादन शुरु करने के अलावा ‘तानाशाही को कैसे समझें?’, ‘अहिंसक प्रतिकार पद्धतियां’ जैसी पुस्तिकाएं नारायण देसाई ने तैयार कीं और छापीं। भवानी प्रसाद मिश्र की जो रचनायें आपातकाल के बाद ‘त्रिकाल संध्या’ नामक संग्रह में छपीं उनमें से कई आपातकाल के दौरान ही ‘यकीन’ में छपीं। प्रेसों में ताले लगे,अदालतों के आदेश पर खोले गए। रामनाथ गोयन्का ने ‘भूमिपुत्र’ को अपने गुजराती अखबार ‘लोकसत्ता’ के प्रेस में छापने का जोखिम भी उठाया।
१९७७ के चुनाव में कई सर्वोदइयों ने पहली बार वोट दिया। ये लोग वोट न देने की बात गर्व से बताते थे। कंधे पर हल लिए किसान वाला झन्डा (जनता पार्टी का) मेरे हाथ से कुछ कदम थाम कर तक मतदाता केन्द्र की ओर चलते हुए नारायण देसाई ने मुझे यह बताया था । यह ‘तानाशाही बनाम लोकतंत्र’ वाला चुनाव था लेकिन जनता से वे यह उम्मीद भी रखते थे – ‘जनता पार्टी को वोट जरूर दो लेकिन वोट देकर सो मत जाओ’। नारायण भाई ने जन-निगरानी के लिए बनी लोक समिति के गठन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर काम किया। बिहार के चनपटिया के कामेश्वर प्रसाद इन्दु जैसे लोक समिति के नेता ‘बेशक सरकार हमारी है ,दस्तूर पुराना जारी है’ के जज्बे के साथ गन्ना किसानों के हक में लड़ते हुए जेल भी गये।

तरुणमन के एक लेख में नारायण देसाई ने कहा था कि महापुरुषों के योग्य शिष्य सिर्फ उनके बताये मार्ग पर ही नहीं चलते है, नई पगडंडियां भी बनाते हैं। इस लिहाज से नारायण देसाई अपने अभिभावक जैसे गांधीजी, अपने आचार्य विनोबा और नेता जेपी की बताई लकीरों के फकीर नहीं बने रहे,उन्होंने अपनी नई पगडंडियां भी बनाई। आन्दोलनों में गीत, संगीत व नाटक का नारायण भाई ने जम कर प्रयोग किया। सांस्कृतिक चेतना के मामले में वे खुद को गांधीजी की बनिस्बत गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से अधिक प्रभावित मानते थे। वे सधी हुई लय के साथ रवीन्द्र संगीत गाते भी थे। रवीन्द्रनाथ के कई गीतों और कविताओं का उन्होंने गुजराती में अनुवाद किया जो ‘रवि-छबि’ नाम से प्रकाशित हुआ। हकु शाह ,वासुदेव स्मार्त ,गुलाम मुहम्मद शेख और आबिद सूरती जैसे मूर्धन्य चित्रकारों से उनका निकट का सरोकार और मैत्री थी। हकु शाह ने तरुण शान्ति सेना के लिए अपने रेखांकन के साथ फोल्डर बनाया था । शान्ति केन्द्रों के प्रवास से लौट कर वासुदेव स्मार्त ने अपनी विशिष्ट शैली में अरुणाचल प्रदेश पर पेन्टिंग्स की एक सिरीज बनाई थी तथा ‘रवि-छबि’ का जैकेट भी बनाया था। गुलाम मुहम्मद शेख बडौदा शान्ति अभियान का हिस्सा थे और गांधी और विभाजन पर लिखी नारायण देसाई की किताब ‘जिगर ना चीरा’ का जैकेट बनाया था।

रवीन्द्रनाथ के शिक्षा विषयक नाटक ‘अचलायतन’ का नारायण देसाई ने अनुवाद किया था। गुजराती साहित्य परिषद गुजराती भाषा की पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था है। साबरमती आश्रम में संगीतज्ञ पंडित खरे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर आते थे । पं. ओंकारनाथ ठाकुर भी गांधीजी और राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित थे। अस्पताल के बिस्तर पर भी अपने पसंदीदा कलाकार दिलीप कुमार रॉय, जूथिका रॉय ,सुब्बलक्ष्मी और पलुस्कर के भजन सुन कर तथा स्वजनों से पसंदीदा रवीन्द्र संगीत या कबीर के निर्गुण सुनकर कर नारायण देसाई भाव विभोर हो जाते थे। मृत्यु से नौ दिन पहले होली के मौके पर वेडछी गांव के बच्चे बाजा बजाते हुए उनके आवास पर पहुंचे तब उनके बाजों के साथ नारायण भाई ताल दे रहे थे। दक्षिण गुजरात के इस आदिवासी इलाके का होली प्रमुख त्योहार है। नारायण देसाई साहित्य परिषद के अध्यक्ष बने तब इस संस्था की गतिविधियों को अहमदाबाद के दफ्तर से निकाल कर पूरे गुजरात की यात्राएं की, युवा लेखकों को प्रोत्साहित किया। अपने सामाजिक काम के लिए मिले सार्वजनिक धन को उन्होंने ‘अनुवाद प्रतिष्ठान’ की स्थापना में लगाया है। भारतीय भाषाओं में बजरिए अंग्रेजी से अनुवाद न होकर सीधे अनुवाद हों यह इस प्रतिष्ठान का एक प्रमुख उद्देश्य है। इसके अलावा वैकल्पिक उर्जा तथा मानवीय टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में काम शुरु करने की उनकी योजना थी, जो अपूर्ण रह गई। अंग्रेजी की एक स्तंभकार ने आशंका व्यक्त की है कि २००२ के दंगे न होते तो नारायण देसाई उसी वक्त अवकाश-प्राप्ति कर बैठ जाते। मुझे यह मुमकिन नहीं लगता है। वैसे में वे मानवीय टेक्नॉलॉजी, पानी का प्रश्न,परमाणु बिजली का विरोध तथा भारतीय भाषाओं के हक में लगे हुए होते।

संस्थागत तालीम न हासिल करने वाले नारायण देसाई ने जो तालीम गांधी के आश्रमों में हासिल की थी उसमें कलम और कुदाल का फासला बहुत कम था। बनारस के साधना केन्द्र परिसर के विष्ठा से भरे सेप्टिक टैंक में उतर कर उसकी सफाई करते हुए उन्हें देखा जा सकता था। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण नष्ट करने वाले उद्योगों को इजाजत देने के सूत्रधार जब स्वच्छता अभियान का पाखंड रचते हैं तब उस पाखंड को हम नारायण देसाई जैसे गांधीजन की जीवन-शैली से समझ सकते हैं।

सांगठनिक दौरों से लौट कर अपने मुख्यालय बनारस आने पर वे दौरे की पूरी रपट अपनी पत्नी को देते थे और घर के कपड़े भी धोते थे। १० दिसम्बर को कोमा में जाने के पहले तक उन्होंने गत ७६ वर्षों से लिखते आ रही डायरी की उस दिन की प्रविष्टि लिखने के अलावा तुकाराम के अभंगों को गुजराती में अनुदित करने का काम तो किया ही ,डेढ़ घण्टा चरखा भी चलाया था। चिकित्सकों को अचरज में डालते हुए कोमा से निकल आने के बाद भी उन्होंने अस्पताल में कुल २०० मीटर सुन्दर सूत काता। १९४७ में अपनी पत्नी के साथ मिलकर जिस ग्रामशाला को चलाया था उसके प्रांगण में हुई प्रार्थना सभा में उनके पढ़ाए छात्र और साथी शिक्षकों के अलावा जयपुर से वस्त्र-विद्या के गुरु पापा शाह पटेल और ओडीशा से चरखा, कृषि औजार और बढ़ईगिरी के आचार्य चक्रधर साहू मौजूद थे। नारायण भाई की श्मशान यात्रा में गुजराती के वरिष्ट साहित्यकार राजेन्द्र पटेल व गुजरात विद्यापीठ के पूर्व उपकुलपति सुदर्शन आयंगर भी उपस्थित थे। नई तालीम के इस विद्यार्थी के जीवन में कलम और कुदाल दोनों से जो निकटता थी वह उनकी मृत्यु में भी इन दोनों प्रकार की उपस्थितियों से प्रकट हो रही थी।

वेडछी गांव से गुजरने वाली वाल्मीकी नदी के तट पर नारायण भाई की अन्त्येष्ठी हुई।गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि १९४८ में उनकी मां दुर्गा देसाई ने गांधीजी तथा १९४२ से रखी हुई महादेव देसाई की अस्थियों को एक साथ यहीं विसर्जित किया था। रानीपरज के चौधरी-आदिवासियों के रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया गया। गंगा जल और मुखाग्नि देने वाले स्वजनों में उनकी पुत्री डॉ संघमित्रा के अलावा इमरान और मोहिसिन नामक दो युवा भाई भी थे जो २००२ के दंगों में मां-बाप से बिछुड़ने के बाद नारायण भाई के साथ संपूर्ण क्रांति विद्यालय परिवार का हिस्सा थे। करीब दस साल बाद उनके माता-पिता का पता तो चल गया लेकिन ‘दादाजी’ की बीमारी की खबर मिली तो तुरंत उनकी सेवा करने के लिए वेडछी आ गये थे।

गांधी ने स्वयं नारायण देसाई का यज्ञोपवीत करवाया था। नारायण भाई ने गांधी के जिन्दा रहते ही जनेऊ से मुक्ति पा ली थी। जेपी आन्दोलन के क्रम में जब हजारों युवजन जनेऊ तोड़ रहे थे तब इस प्रसंग का उन्होंने स्मरण किया था। गांधी ने भी ‘सत्य के प्रयोग’ के क्रम में खुद को इतना विकसित कर लिया था कि १९४७ में नारायण-उत्तरा के विवाह में किसी एक पक्ष के अस्पृश्य न होने के कारण वे उपस्थित नहीं हुए थे। अलबत्ता ऐन शादी के दिन उनका आशीर्वाद का खत पहुंच गया था ।

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