बीरपुर लच्‍छी: जुल्‍मतों और इंसाफ़ के बीच ठिठकी जि़ंदगी

(बीते मार्च की आखिरी तारीख को उत्‍तराखण्‍ड के रामनगर स्थित बीरपुर लच्‍छी गांव में चल रहे आंदोलन से लौटते वक्‍त ‘नागरिक’ अखबार के संपादक मुनीष और उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी के महासचिव प्रभात ध्‍यानी पर खनन-क्रेशर माफिया ने जानलेवा हमला किया था। इसके बाद दिल्‍ली में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ और उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी ने एक बैठक रखी जिसमें तय हुआ कि एक तथ्‍यान्‍वेषी दल गांव में जाकर हालात का जायज़ा लेगा। अप्रैल की 12-13 तारीख को पांच सदस्‍यीय तथ्‍यान्‍वेषी दल इस इलाके में गया जिसका नेतृत्‍व ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक आनंद स्‍वरूप वर्मा कर रहे थे और जिसके सदस्‍य थे पत्रकार सुरेश नौटियाल, अजय प्रकाश, भूपेन सिंह, अभिषेक श्रीवास्‍तव और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्‍ता रवींद्र गढि़या। तथ्‍यान्‍वेषी दल की प्राथमिक रिपोर्ट 13 अप्रैल की शाम स्‍थानीय अखबारों को जारी कर दी गयी थी। उसी शाम बीरपुर लच्‍छी के दो क्रेशर परिसरों पर छापा मारकर पुलिस ने उन्‍हें सीज़ कर दिया। तथ्‍यान्‍वेषी दल की विस्‍तृत रिपोर्ट अभी नहीं आयी है। इस स्‍वतंत्र ज़मीनी रिपोर्ट का तथ्‍यान्‍वेषी दल की आधिकारिक रिपोर्ट से कोई संबंध नहीं है – मॉडरेटर)

”संपन्न रामनगर इलाके का एक गांव बीरपुर लच्छी… कोई भी 10th पास नहीं… लोग इन्हें बुक्सा कहते हैं। यह पूछने पर कि आप लोगों की जमीन कहां गई, कुछ उम्रदराज लोगों ने बताया कि बड़े हाथ-पैरों वाले लोगों ने धारा 229 में अपने नाम करा ली। इन्हें इस धारा के बारे में ज्यादा नहीं पता है। मुझे यही पता था कि sc/st वालों की जमीन और लोग अपने नाम नहीं करा सकते हैं। मैंने कहा, आप लोगों ने शराब पीकर कागज पर अंगूठा लगा दिया। फिर भी मैं जानने की कोशिश कर रहा हूं कि जमीन के मालिक मजदूर कैसे बन गए।”

ये शब्‍द उत्‍तराखण्‍ड के नैनीताल स्थित रामनगर के शहर कोतवाल कैलाश पंवार के हैं। पंवार पिछले तीस साल से ज्‍यादा समय से पुलिस की नौकरी बजा रहे हैं। वे 1980 में जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से पढ़कर निकले तो सीधे पुलिस में भर्ती हो गए। पहले एसटीएफ में हुआ करते। पिछले लंबे समय से थानेदार हैं। जिला दर जिला नाप कर ऊब गए हैं। वापस एसटीएफ में जाना चाहते हैं। थानेदार के पद से हटाए जाने की उनकी दरख्‍वास्‍त पिछले छह महीने से मुख्‍यालय में लंबित पड़ी है। उन्‍हें इस बात का दुख है कि बीरपुर लच्‍छी नामक गांव में कोई भी दसवीं पास नहीं है। फेसबुक पर 12 अप्रैल को यह पोस्‍ट लिखते वक्‍त वे 24 मार्च, 2015 की उस बदकिस्‍मत तारीख का जाने या अनजाने से जि़क्र नहीं करते जब नौवीं की परीक्षा पास कर के हाईस्‍कूल में गयी 17 साल की आशा की असमय मौत हो गयी। उसकी मौत के साथ यह आशा भी दफ़न हो गयी कि इस गांव से अगले साल एक लड़की हाईस्‍कूल पास कर लेगी।

कैलाश पंवार अगर 23 मार्च के पहले इस गांव में हो आए होते तो शायद आशा बच जाती और उन्‍हें यह पोस्‍ट लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ऐसा नहीं है कि उन्‍हें मालूम नहीं था कि इस गांव में क्‍या हो रहा है। पेड़ों पर पड़े गोलियों के पुराने निशान, लोगों के डम्‍पर से कुचले हाथ, हथेलियों में लगे छर्रे और कभी गांव की जीवनदायिनी रही लेकिन आज सूख चुकी बाहिया नदी पिछले दो साल से इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यहां सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। बावजूद इसके किसी अप्रिय घटना का इंतज़ार करने की मानसिकता और व्‍यवस्‍थागत जटिलताओं ने मिलकर एक लड़की की जान ले ली।

कहानी बिलकुल फिल्‍मी है। उत्‍तराखण्‍ड की तराई में एक छोटा सा खूबसूरत गांव है। कुछ मासूम आदिवासी लोग हैं जिनकी संख्‍या साढ़े तीन सौ के आसपास बतायी जाती है। करीब दस साल पहले यहां एक बाहरी आदमी का प्रवेश होता है। जाने किन नियमों के तहत उसे कुछ ज़मीनें मिल जाती हैं। वह इस ज़मीन पर पत्‍थर तोड़ने वाला क्रेशर का प्‍लांट लगाता है। पास की कोसी नदी से पत्‍थर लाए जाने शुरू हो जाते हैं। पत्‍थरों को ढोने के लिए डम्‍पर और ट्रक की ज़रूरत पड़ती है। आसपास के गांवों-कस्‍बों के कुछ लोग डम्‍पर खरीद लेते हैं। धीरे-धीरे डम्‍परों और ट्रकों की संख्‍या बढ़ने लगती है। पहले तो गांव वालों को कुछ खास समझ में नहीं आता। कारोबार चलता जाता है। फिर यहां की बाहिया नदी में रोड़ी-पत्‍थर बहाए जाने लगते हैं। धीरे-धीरे डम्‍परों के लिए पक्‍का रास्‍ता बनने लगता है। गांव के नक्‍शे में ऐसे किसी रास्‍ते का जि़क्र कभी नहीं था। जैसे-जैसे यह धंधा फलता-फूलता जाता है, इसमें बेईमानी और भ्रष्‍टाचार की जड़ें मज़बूत होती जाती हैं।

एक बार की रॉयल्‍टी कटाने वाले डम्‍पर तीन-तीन चक्‍कर लगाने लगते हैं। वन विभाग द्वारा मंजूर लदान से तीन गुना लदान डम्‍परों पर किया जाता है और मुनाफे की राशि चौतरफा बंटती जाती है। धीरे-धीरे इस कारोबार का एक शिकंजा-सा कसता चला जाता है। 2012 में भारी बारिश होती है और बाहिया नदी उफान पर आ जाती है। इसमें दो भैंसें बह जाती हैं। अनपढ़ आदिवासियों को तब जाकर अंदाज़ा होता है कि उनके संसाधनों से कैसा खिलवाड़ किया जा रहा था। इसके बाद उनके भीतर असंतोष पैदा होता है। गांव वाले क्रेशर का विरोध करने लगते हैं। चूंकि व्‍यवस्‍था के सारे अंगों को इस विरोध से खतरा था, इसलिए इसे मिलजुल कर दबाने का फैसला लिया जाता है। यही फैसला 1 मई, 2013 को यानी ठीक दो साल पहले मजदूर दिवस के दिन गांव में अचानक ज़लज़ला बनकर उतरा। बीरपुर लच्‍छी को क्रेशर मालिक के गुर्गों ने घेर लिया।
कहानी वाकई फिल्‍मी है- क्रेशर मालिक एक हाथ में मोबाइल फोन और दूसरे में रिवॉल्‍वर लेकर गांव में घुस जाता है। उसके इशारे पर गांव की झोंपडि़यों में आग लगा दी जाती है। औरतों को घरों से बाहर निकाल-निकाल कर पीटा जाता है। लोगों पर खुलेआम गोलीबारी की जाती है। भारी संख्‍या में लोग घायल होते हैं। उन्‍हें अस्‍पताल में भर्ती कराया जाता है जहां महिला समाख्‍या की टीम उन्‍हें लगे ज़ख्‍मों का वीडियो बनाती है, जिसके चलते बर्बरता की तस्‍वीरें निकलकर सामने आ पाती है। क्रे‍शर मालिक को थोड़े समय के लिए जेल होती है लेकिन जैसा कि हमेशा होता आया है, वह छूट जाता है। वह इसीलिए छूटता है जिस वजह से दूसरे रसूखदार लोग इस देश में छूट जाते हैं- क्‍योंकि वह कांग्रेस का एक असरदार नेता है और कांग्रेस की सरकार में राज्‍यमंत्री रह चुका है। नाम है सोहन सिंह ढिल्‍लों।

राज्‍य में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार है। ढिल्‍लों हालांकि मंत्री नहीं हैं, लेकिन रसूख़ ऐसा है कि 1 मई, 2013 के हमले के सिलसिले में उनके ऊपर कायम मुकदमे को वापस लेने का सरकारी आदेश पिछले ही महीने जारी किया जा चुका है। इस आदेश की प्रति जिलाधिकारी कार्यालय से 13 मार्च, 2015 की तारीख में जारी की गई। इसका जि़क्र करने पर नैनीताल के नौजवान जिलाधिकारी दीपक रावत पूरे आत्‍मविश्‍वास के साथ कहते हैं, ”मैंने अपने समूचे कार्यकाल में कोई भी मुकदमा वापस लेने की संस्‍तुति नहीं दी है। मैं इतने साल से कलेक्‍टरी कर रहा हूं, लेकिन आज तक मेरे पास मुकदमा वापस लेने के जितने भी मामले आए हैं, मैंने उन्‍हें लौटा दिया है। आप अपने फैक्‍ट्स दोबारा जांचें। ऐसा हो ही नहीं सकता। मैंने ऐसे किसी काग़ज़ पर दस्‍तख़त नहीं किए हैं।” तकनीकी रूप से भले यह बयान झूठ हो लेकिन एक मायने में उनकी बात सही भी है। दरअसल, गांव वालों ने 1 मई, 2013 की घटना के सिलसिले में दर्ज मुकदमे में से अपना नाम हटवाने की दरख्‍वास्‍त सरकार से की थी। हुआ यह कि पलट कर मुकदमा वापसी की जो संस्‍तुति आई, उसमें निर्दोष गांव वालों की जगह आरोपी ढिल्‍लों पर लगा मुकदमा वापस लेने की बात लिखी हुई है। ऐसा हुआ कैसे, कोई नहीं जानता।

सवाल और भी हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है। किसी ने जवाब खोजने की कोशिश भी नहीं की। आशा की मौत एक मामूली हादसा भर नहीं थी। यह लंबे समय से उलझे हुए सवालों के जवाब न खोजे जाने का नतीजा थी। बीते 23 मार्च को आशा एक दुकान से कुछ सामान खरीद कर लौट रही थी कि बगल से गुज़र रहे एक डम्‍पर से एक पत्‍थर गिरकर उसके सिर पर आ लगा। गांव वाले उस पत्‍थर को संजो कर रखे हुए हैं। आशा की मां हमें वह पत्‍थर दिखाती हैं, तो उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। कम से कम 15 किलो का वह पत्‍थर खुद आशा की मौत की कहानी कह रहा है। घटना के बाद आशा को तुरंत सरकारी अस्‍पताल ले जाया जाता है। वहां से उसे ए‍क निजी अस्‍पताल में रेफर कर दिया जाता है। अगले दिन आशा की मौत हो जाती है। आक्रोशित गांव वाले फैसला लेते हैं कि अब किसी भी डम्‍पर को अपनी ज़मीन से वे नहीं गुज़रने देंगे। गांव के नक्‍शे में जहां से चक रोड शुरू होती है, ऐन उस जगह गांव वाले गड्ढा खोदकर बैठ जाते हैं। बिलकुल इसी जगह पर आशा का दाह संस्‍कार किया गया था। बात प्रशासन तक पहुंचती है। गांव वालों को लिखित आश्‍वासन दिया जाता है कि अगले दस दिनों के भीतर ज़मीन की पैमाइश होगी और पता लगाया जाएगा कि कहां सड़क है और कहां खेत हैं। हम 12 अप्रैल को बीरपुर लच्‍छी पहुंचे थे। उस दिन भी राजस्‍व विभाग द्वारा की गई पैमाइश का चूने से बना निशान सड़क पर साफ दिख रहा था। उसमें कहीं भी सड़क नहीं थी। जो सड़क मौजूद थी, वह वास्‍तव में खेत थे जिन्‍हें ढिल्‍लों ने डम्‍परों की आवाजाही के लिए पाट दिया था।

इस पैमाइश से पहले ही डम्‍पर मालिकों और क्रेशर मालिक के दबाव में प्रशासन ने गांव वालों के किए गड्ढे को जबरन भरवा दिया था। हमने एसडीएम सुरेंद्र सिंह जंगपांगी से पूछा था कि अगर आपकी पैमाइश के मुताबिक वहां सड़क नहीं थी और सिर्फ खेत थे, तो आपने गड्ढा क्‍यों भरा। उनका जवाब था, ”कोई भी व्‍यक्ति सड़क पर गड्ढा नहीं कर सकता। उसे तो भरना ही होगा।” हमने फिर पूछा कि वहां तो सड़क थी ही नहीं, वो तो खेत था। वे बोले, ”हां, हम देखेंगे।” हमने कहा कि आप तो नाप-जोख कर चुके, अब देखना क्‍या बचा है। वे पूरी बेशर्मी से बोले, ”जी, पुरानी फाइलें हैं। निकाल कर देखनी होंगी। हम देखेंगे।”

देखने-दिखाने के इस आश्‍वासन ने क्रेशर मालिकों का मन इतना बढ़ा दिया कि गांव वालों को उनके विरोध प्रदर्शन में रामनगर से 31 मार्च को समर्थन देने गए दो व्‍यक्तियों पर धारदार हथियारों से जानलेवा हमला बोल दिया गया। जिस दिन गांव वाले गड्ढा खोदकर धरने पर बैठे थे, उन्‍हें समर्थन देने के लिए शहर से ‘नागरिक’ अख़बार के संपादक मुनीष कुमार और उत्‍तराखण्‍ड परिवर्तन पार्टी के महासचिव प्रभात ध्‍यानी बीरपुर लच्‍छी आए थे। वे अपनी मोटरसाइकिल से जब लौट रहे थे तब उनके ऊपर कुछ लोगों ने जानलेवा हमला किया। मुनीष का टैब और मोबाइल छीन लिया गया। हेलमेट पहने होने के कारण उन्‍हें तो सिर पर चोट नहीं आयी लेकिन ध्‍यानी का सिर फूट गया। मुनीष बताते हैं कि उन्‍हें बाज सिंह नाम के एक व्‍यक्ति से पहले ही पता चल चुका था कि उस दिन असली योजना इन दोनों को बंधक बना लेने की थी, लेकिन संयोग से जब क्रेशर और डम्‍पर वाले दोपहर का भोजन कर रहे थे तभी ये दोनों गांव से निकल लिए थे, लेकिन बाद में रास्‍ते में घेर लिए गए।

शहर कोतवाल की मानें तो इस मामले में सात लोगों को अब तक गिरफ्तार किया जा चुका है जिसमें मुख्‍य आरोपी प्रीति कौर नाम की एक महिला है। इस महिला के बारे में क्रेशर वाले एक कहानी बताते हैं जबकि गांव वाले दूसरी कहानी कहते हैं। क्रेशर मालिक कांग्रेसी नेता सोहन सिंह ढिल्‍लों और उनके गुर्गों का अपने बचाव में कहना है कि गांव से लौटते वक्‍त मुनीष और ध्‍यानी की मोटरसाइकिल से प्रीति कौर नाम की महिला को टक्‍कर लग गयी थी जिसके बाद स्‍थानीय लोगों ने प्रतिक्रिया में दोनों पर हमला बोल दिया। वे एक बात यह नहीं बताते कि इस महिला का पति बच्‍चन सिंह, ढिल्‍लों का ही डम्‍पर चलाता है और घटना के दिन से ही वह फ़रार चल रहा है। इसका मतलब यह निकलता है कि महिला को एक ढाल के तौर पर सामने रखकर यह हमला मुनीष और प्रभात पर किया गया था। कोतवाल पंवार कहते हैं, ”हमने सोहन सिंह ढिल्‍लों पर धारा 120बी के तहत आपराधिक षडयंत्र का मुकदमा किया है लेकिन सिर्फ इस आधार पर हम उन्‍हें नहीं उठा सकते।”

आशा की मौत के बाद इस गांव में 28 मार्च को पुलिस का पहरा लगा दिया गया था। दो पाली में पूरे 24 घंटे यहां आइआरबी के छह जवान तैनात हैं। इन्‍हीं में से एक सिपाही सुरेंद्र सिंह बताते हैं कि गांव वाले बहुत डरे हुए हैं जबकि सोहन सिंह के लोग धड़ल्‍ले से मोटरसाइकिलों पर घूम रहे हैं। सुरेंद्र हमें आशा के घर ले जाते हैं जहां उनका छोटा भाई राकेश और पांच बहनें मौजूद हैं। उनकी मां उस वक्‍त खेतों में गयी हुयी थी। राकेश हमें गांव का नक्‍शा और आशा की तस्‍वीर दिखाता है। गांव के नक्‍शे में जिस जगह चक रोड है, वहां आज दो डम्‍परों के गुज़रने के लायक चौड़ी सड़क पाट दी गई है। घटना के बाद से गांव की आबादी के बीच होकर जाने वाली इस सड़क पर गाडि़यों का आवागमन हालांकि सरकारी आदेश के चलते बंद है, लेकिन डम्‍पर और ट्रकें अब भी चल रहे हैं। राकेश बताता है कि ये डम्‍पर दिलबाग सिंह पुरेवाल नाम के एक व्‍यक्ति के हैं। उसका फार्म हाउस राकेश के घर के ठीक पीछे हैं। दिलबाग सिंह को क्रेशर चलाने का लाइसेंस साल भर पहले मिला है। उसने भी ढिल्‍लों की ही तरह खेतों में अपने डम्‍परों के लिए अपना निजी रास्‍ता बना लिया है। यह रास्‍ता गांव की आबादी के पीछे से निकलता है।

लोग बताते हैं कि बीरपुर लच्‍छी दो हिस्‍सों में बंटा हुआ है। दूसरे हिस्‍से को बीरपुर तारा कहते हैं जो ”नीचे” है। बीरपुर लच्‍छी और बीरपुर तारा के बीच की दूरी तकरीबन पांच मिनट की है। इसके बीच तकरीबन सैकड़ों एकड़ ज़मीन पर पुरेवाल और ढिल्‍लों का कब्‍ज़ा है। बीरपुर तारा के रास्‍ते में एक गांव वाला हमें बायीं ओर की ज़मीन दिखाकर कहता है, ”यही बाहिया नदी है।” हमें नदी कहीं नहीं दिखती। गांव में आगे जाकर एक छोटा सोता दिखता है, तब समझ में आता है कि यहीं कहीं एक नदी हुआ करती होगी। गुम हो चुकी इस नदी की गवाही गांव में आबादी के बीच बने दो पुल देते हैं जो कम से कम 30 फुट चौड़े हैं। चलते-चलते खेतों के बीच जिला नैनीताल की सरहद खत्‍म हो जाती है। ”यहीं से जिला उधमसिंहनगर लगता है”, एक गांव वाले ने बताया। उसने कहा, ”बाहिया नदी नैनीताल और उधमसिंहनगर को बांटती थी। आज नदी ही खत्‍म हो चुकी है।”

बीरपुर तारा में हमारी मुलाकात लाल गमछा डाले ग्राम प्रहरी अमर सिंह मेहरा से होती है। मेहरा बहुत मुखर इंसान हैं। वे हमें पूरे गांव में चल रही अवैध गतिविधियों के बारे में समझाते हैं। वे बताते हैं कि उनके पिता कभी यहां के ग्राम प्रहरी हुआ करते थे। उसके बाद यह पद उन्‍हें मिल गया। इसके एवज में सरकार से उन्‍हें 12000 रुपये सालाना मिलते हैं। इसके अलावा वे डेयरी का फार्म चलाते हैं क्‍योंकि उनकी खेती की ज़मीन दलदल में तब्‍दील हो चुकी है। हमने पूछा कि ग्राम प्रहरी होने के नाते उन्‍होंने क्‍या किया था जब गांव में दो साल पहले गोलियां चल रही थीं। वे बोले, ”मैंने तुरंत सारे अधिकारियों को फोन घुमा दिया था।” ”फिर क्‍या हुआ?” ”होना क्‍या है साहब, कहीं से कोई मदद नहीं मिली। सब साले कहते रहे कि इनको बताओ, उनको बताओ। सिस्‍टम है सर, मेरे करने से क्‍या होता है।” हमने उनसे पूछा कि बुक्‍सा जनजाति के लोग यहां कब से रह रहे हैं। उन्‍होंने जवाब दिया, ”साहब, मैं पहाड़ी हूं। बुक्‍सा नहीं।” मेहरा इस गांव में इकलौते पहाड़ी हैं। पहाड़ी से उनका आशय सामान्‍य श्रेणी से है, जनजाति से नहीं।

यह बात अपने आप में दिलचस्‍प है कि बुक्‍सा जनजाति के गांव का ग्राम प्रहरी गैर-जनजातीय है। इससे भी गंभीर बात हालांकि यह है कि बीरपुर लच्‍छी गांव की ज़मीनों का हस्‍तान्‍तरण गैर-जनजातियों को कर दिया गया है, जो कि कानूनन मुमकिन नहीं होना चाहिए। गांव वालों से जब इस बारे में सवाल किया गया तो उन्‍होंने वही जवाब दिया जिसका जि़क्र कोतवाल ने अपनी फेसबुक पोस्‍ट में किया है- धारा 229 के तहत ज़मीनें ली गयी हैं। यह धारा 229 क्‍या बला है? इस बारे में एसडीएम जंगपांगी लगातार चुप रहे। उन्‍होंने बस एक जवाब दिया, ”पुराने काग़ज़ात हैं। देखना होगा।” हमने पूछा कि क्‍या यह गांव पांचवीं अनुसूची में आता है? एसडीएम हमारी ओर देखते रहे, उनके मुंशी ने पलट कर सवाल किया, ”आप वन अधिकार कानून की बात कर रहे हैं क्‍या?” हमने फिर पूछा, ”क्‍या आप संविधान की पांचवीं अनुसूची समझते हैं? क्‍या यहां पेसा कानून लागू है?” दोनों ने अज्ञानता में मुंह बिचका दिया। पंवार भी मानते हैं कि यहां की ज़मीन गैर-जनजाति को नहीं दी जा सकती। वे कहते हैं, ”पता नहीं 2006 में किसने किसके साथ मिलकर यहां क्‍या किया था। यह तो जांच का विषय है। पता नहीं कौन-कौन इस खेल में शामिल है?”

जिले के डीएम दीपक रावत से जब हमने कहा कि आदिवासियों की ज़मीन तो बाहरियों को नहीं दी जा सकती है, तो वे बीच में टोकते हुए बोले, ”दी नहीं, बेची नहीं जा सकती।” ”हां, बेची ही सही, तो फिर कैसे दूसरे लोगों के पास चली गयी?” कुछ देर तक अनभिज्ञता जताने के बाद उन्‍होंने कहा, ”हां, एक तरीका है। अगर किसी आदिवासी ने लोन लिया हो और चुका नहीं सका हो तो उसकी ज़मीन नीलाम ज़रूर की जा सकती है।” इस बातचीत में उन्‍होंने दो बार हमें दुरुस्‍त करते हुए ”बेचने” शब्‍द पर ज़ोर दिया। उनके कहने का आशय था कि आदिवासी अपनी ज़मीन गैर-आदिवासी को ”बेच” नहीं सकता, कानून यह कहता है। हमने धारा 229 का जि़क्र किया जिसके बारे में हमने गांव वालों से सुना था, तो वे इस सवाल को टाल गए।

सभी पक्षों से बातचीत कर के यह तय रहा कि आदिवासियों ने अपनी ज़मीन स्‍टोन क्रेशर के लिए कम से कम ”बेची” तो नहीं है क्‍योंकि यह कानूनन वैध नहीं है। फिर आदिवासियों की ज़मीन दूसरों के पास गयी कैसे? न तो पुलिस को पता, न प्रशासन को और न ही जिलाधिकारी को। एक बड़ा बहाना इस मामले में यह सामने आता है कि हर अधिकारी यह कहता पाया जाता है कि ”मुझे तो कुछ ही दिन हुए हैं यहां आए… ।” डीएम ने कहा, ”मुझे तो चार महीने ही हुए हैं। मुझसे पहले जो था आप उससे पूछिए।” एसडीएम, जो संभवत: रामनगर के पुराने कारिंदे हैं, उनका हर सवाल पर एक ही जवाब होता है, ”देखते हैं।” पेसा और पांचवीं अनुसूची का नाम तक यहां के राजस्‍व अधिकारियों को नहीं मालूम। आदिवासियों की ज़मीन दूसरों को गयी कैसे, इसका इकलौता जवाब पंवार के फेसबुक पोस्‍ट की आखिरी पंक्ति में देखा जा सकता है, ”फिर भी मैं जानने की कोशिश कर रहा हूं कि जमीन के मालिक मजदूर कैसे बन गए।”

कम से कम एक अधिकारी इस जिले में है जो सवालों के जवाब खोजने की कोशिश कर रहा है। जिस दिन 13 अप्रैल को हमारी मुलाकात जिलाधिकारी से हुई, उस शाम रामनगर से मुनीष का फोन आया कि गांव में छापा पड़ गया है और ढिल्‍लों के स्‍टोन क्रेशर को सीज़ कर दिया गया है। हम नैनीताल से एक उम्‍मीद लेकर दिल्‍ली की ओर निकल पड़े। देर शाम रुद्रपुर के पास पहुंचते-पहुंचते एक और फोन आया। बताया गया कि दिलबाग सिंह पुरेवाल का क्रेशर भी सीज़ कर दिया गया है। इसके बाद मेरे मोबाइल पर आशा के भाई राकेश का एक एसएमएस आया, ”जनांदोलन की पहली जीत। ढिल्‍लों का क्रेशर सीज़।” अगले दिन पंतनगर से एक पुराने साथी ललित सती से संपर्क हुआ जिन्‍होंने बताया कि रामनगर के लोग कोतवाल कैलाश पंवार को इस कार्रवाई का श्रेय दे रहे हैं। पंवार की फेसबुक टाइमलाइन पर मित्रता के अनुरोध बढ़ते जा रहे हैं और उन्‍हें खूब बधाइयां मिल रही हैं। यह ठीक भी है।
मैंने पंवार से बातचीत के अनौपचारिक दौर में जो इकलौता और आखिरी सवाल पूछा था, वो यह था कि अगर आप सही और गलत के बारे में जानते हैं तो कुछ करते क्‍यों नहीं? वे मुस्‍करा कर बोले थे, ”मैं चाहूं तो कल ही ठोंक दूं लेकिन…।” ‘लेकिन’ के बाद उन्‍होंने क्‍या कहा, यह बताने की ज़रूरत नहीं है क्‍योंकि वाक्‍य का पहला हिस्‍सा उन्‍होंने हूबहू सच कर के दिखा दिया है। बीरपुर लच्‍छी के लोग तो यही चाहेंगे कि इस बयान के अगले हिस्‍से में ”सिस्‍टम” के बारे में उनके कोतवाल ने जो बात कही थी, वह सच ना साबित हो। सदिच्‍छा के आगे ”सिस्‍टम” कभी-कभार घुटने भी टेक देता है, फिलहाल तो रामनगर की दीवारों पर लिखी इबारत यही कह रही है।

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