मुलायम समाजवाद में लेखक, कवि, पत्रकार, कलाकार सब दंगाई हैं!

वरिष्‍ठ कवि अजय सिंह, प्रो. रमेश दीक्षित, पत्रकार कौशल किशोर, सत्‍यम वर्मा, रामकृष्‍ण समेत 16 लोगों पर दंगा भड़काने की कोशिश के आरोप में एफआइआर, भगवा दंगाइयों के खिलाफ शिकायत पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं

कर्नाटक के धारवाड़ में कन्‍नड़ के साहित्‍य अकादेमी विजेता विद्वान प्रो. एम.एम. कलबुर्गी की दिनदहाड़े हत्‍या को एक हफ्ता भी नहीं बीता है कि लखनऊ से कुछ कलाकारों, लेखकों, पत्रकारों और कवियों समेत राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर दंगा भड़काने की कोशिश के जुर्म में एफआइआर दर्ज किए जाने की खबर आ रही है।

हाशिमपुरा के हत्‍याकांड पर उत्‍तर प्रदेश में बीते दिनों जो फैसला आया था और इस हत्‍याकांड के तमाम दोषियों को अदालत से बरी कर दिया गया था, उसके खिलाफ़ बेगुनाह मुसलमानों की लड़ाई लड़ने वाले संगठन रिहाई मंच ने 26 अप्रैल को एक विशाल जनसम्‍मेलन का आयोजन लखनऊ में किया था। इस जनसम्‍मेलन में गौतम नवलखा, अनिल चमडि़या और सलीम अख्‍तर सिद्दीकी समेत तमाम जनतांत्रिक शख्सियतों ने शिरकत की थी। इस सम्‍मेलन के लिए पहले से गंगा प्रसाद मेमोरियल सभागार तय था जिसमें 1987 में मेरठ और 1980 में मुरादाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा के पीडि़तों को भी शामिल होना था। प्रशासन ने आखिरी मौके पर इस सभागार की मंजूरी यह कहते हुए रद्द कर दी कि सम्‍मेलन से शांति व्‍यवस्‍था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

इस सम्‍मेलन को तय तारीख पर सभागार के बाहर आयोजित किया गया, जिसके जुर्म में 27 अप्रैल को पुलिस ने अमीनाबाद थाने में एक एफआइआर 16 लोगों के खिलाफ़ दर्ज की। जिन लोगों के खिलाफ़ एफआइआर दर्ज की गयी, उनमें वरिष्‍ठ कवि और पत्रकार श्री अजय सिंह, कवि और पत्रकार श्री कौशल किशोर, पत्रकार सत्‍यम वर्मा, वरिष्‍ठ पत्रकार रामकृष्‍ण, लखनऊ विश्‍वविद्यालय से संबद्ध वरिष्‍ठ प्रोफेसर श्री रमेश दीक्ष्रित और श्री धर्मेंद्र कुमार समेत रिहाई मंच के कई प्रमुख कार्यकर्ता जैसे मो. शोएब, राजीव यादव और शाहनवाज़ आलम शामिल हैं। दिलचस्‍प यह है कि पांच महीने तक इस बाबत कोई भी खबर उन लोगों को नहीं दी गयी जिनके खिलाफ मुकदमा कायम किया गया था। बीते शनिवार यानी 5 सितंबर को पुलिस ने रिहाई मंच को इस एफआइआर के बारे में जानकारी दी और अगले दिन अंग्रेज़ी के अख़बार ”दि हिंदू” में इस बारे में एक खबर के प्रकाशन से लोगों को पता चला कि ऐसा कोई मुकदमा कायम हुआ है।


कुल सोलह लोगों के खिलाफ दर्ज एफआइआर में आइपीसी की धारा 147, 143, 186, 188, 341, 187 लगायी गयी है। इन लोगों के ऊपर पुलिस की अनुमति के बगैर कार्यक्रम करने, शांति व्‍यवस्‍था भंग करने और दंगा भड़काने के प्रयास का आरोप है। ऐसा पहली बार हुआ है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुट सेकुलर ताकतों के ऊपर दंगा भड़काने की कोशिश जैसा संगीन आरोप लगाया गया है। यह घटना साफ़ तौर पर दिखाती है कि खुद को लोहिया के समाजवाद की विरासत का कर्णधार कहने वाली उत्‍तर प्रदेश की सरकार किस तरह भगवा हिंदुत्‍ववादी ताकतों के साथ मिलकर सियासी गोटियां चल रही है।

ध्‍याान दें कि इसी अमीनाबाद कोतवाली में रिहाई मंच ने 16 नवंबर और 20 नवंबर 2013 को भारतीय जनता पार्टी के नेताओं संगीत सोम और सुरेश राणा के खिलाफ तहरीर दी थी जिसमें कहा गया था कि जेल के भीतर रह कर ये दोनों नेता अपने फेसबुक खाते से सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने वाले संदेश प्रसारित कर रहे हैं। इन शिकायतों पर कभी कोई कार्रवाई नहीं की गयी, उलटे खुद इंसाफपसंद लेखकों और कार्यकर्ताओं पर दंगा भड़काने की कोशिश का आरोप दर्ज कर लिया गया।

रिहाई मंच ने 26 अप्रैल 2015 को जारी अपनी प्रेस विज्ञप्ति में बताया था कि किस तरीके से उसे सम्‍मेलन करने से प्रशासन ने रोका और मुकदमा दर्ज करने की धमकी दी:

”रिहाई मंच ने प्रदेश सरकार द्वारा रोके जाने के बावजूद भारी पुलिस बल की मौजूदगी व उससे झड़प के बाद हाशिमपुरा जनसंहार पर सरकार विरोधी सम्मेलन गंगा प्रसाद मेमोरियल हाॅल अमीनाबाद, लखनऊ के सामने सड़क पर किया। मंच ने कहा कि इंसाफ किसी की अनुमति का मोहताज नहीं होता और हम उस प्रदेश सरकार जिसने हाशिमपुरा, मलियाना, मुरादाबाद समेत तारिक कासमी मामले में नाइंसाफी किया है उसके खिलाफ यह सम्मेलन कर सरकार को आगाह कर रहे हैं कि इंसाफ की आवाज अब सड़कों पर बुलंद होगी। पुलिस द्वारा गिरफ्तारी कर मुकदमा दर्ज करने की धमकी देने पर मंच ने कहा कि हम इंसाफ के सवाल पर मुकदमा झेलने को तैयार हैं। बाद में प्रशासन पीछे हटा और मजिस्ट्रेट ने खुद आकर रिहाई मंच का मुख्यमंत्री को संबोधित 18 सूत्रीय मांगपत्र लिया।”

समजवादी पार्टी ने बिहार के चुनाव के मद्देनज़र बने जनता परिवार के महागठबंधन से खुद को जिस प्रकार से अलग किया है, वह घटना अपने आप में इस बात की ताकीद करती है कि भारतीय जनता पार्टी और सपा के बीच अंदरखाने क्‍या चल रहा है। महाराष्‍ट्र में कांग्रेस के राज में नरेंद्र दाभोलकर की हत्‍या, भाजपा के राज में गोविंद पानसरे की हत्‍या और कर्नाटक में कांग्रेस की राज्‍य सरकार तले प्रो. कलबुर्गी की हत्‍या के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार में लेखकों, कवियों और पत्रकारों पर कायम हुआ यह मुकदमा दिखाता है कि स्‍वतंत्र आवाज़ों का दमन किसी एक दल की पहचान नहीं है बल्कि यह राज्‍य सत्‍ता का चरित्र होता है। आने वाले दिन स्‍वतंत्र आवाज़ों के लिए कितने खतरनाक हो सकते हैं, सहज ही इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

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