प्रो. कलबुर्गी की ह्त्या के बाद जिस तरह सैकड़ों की संख्या में, अनेक जगहों पर, सभी तरह के वाम-लोकतांत्रिक बौद्धिक, सांस्कृतिक संगठन और छात्र, नौजवान, ट्रेड यूनियन तथा सिविल सोसायटी के विभिन्न आन्दोलनों के नुमाइंदे सडकों पर समवेत उतरे हैं, वह एक नयी शुरुआत की संभावना लिए हुए है। हिन्दी-उर्दू क्षेत्र में दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, रांची, आजमगढ़, आरा, बेगूसराय, जबलपुर, ग्वालियर सहित अनेक जगह प्रतिवाद मार्च निकले हैं और यह सिलसिला अभी जारी है। लगभग हर जगह प्रतिवाद मार्च में भाग लेने वालों ने प्रो. कलबुर्गी की ह्त्या को डॉ. दाभोलकर और का. पानसारे की हत्याओं की निरंतरता में देखा है। श्री उदय प्रकाश और प्रो. चंद्रशेखर पाटिल द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कारों का लौटाया जाना सडकों पर उठ रहे प्रतिवाद को एक विशिष्ट आयाम प्रदान करता है।
उनका फैसला केंद्र सरकार, सत्ता की प्रमुख पार्टियों और खुद साहित्य अकादमी की इस बर्बर घटना पर आपराधिक चुप्पी को बेनकाब करता है। ये हत्याएं राजसत्ता द्वारा शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और इतिहास या कहें कि समूचे वैचारिक परिदृश्य को एक ख़ास काट की पुरोहितवादी, सनातनी भारतीयता की परियोजना के अनुरूप ढालने के प्रयासों का विस्तार हैं। लड़ाई अब सिर्फ नागरिक स्वतंत्रता और सामाजिक समता की नहीं, बल्कि भारतीयता की परिकल्पना को लेकर भी है। इसी अर्थ में डॉ. दाभोलकर, का. पानसारे और प्रो. कलबुर्गी नए भारत को बनाने की लड़ाई के शहीद हैं। चार्वाकों, लोकायतों, बौद्धों, जैनियों, संतों-भक्तों से लेकर पंडिता रमाबाई, अम्बेडकर, पेरियार और भगतसिंह की कल्पना का भारत सूत्रों और स्मृतियों वाली भारतीयता से वर्तमान की ज़मीन पर भी लड़ रहा है, भारतीय विशेषताओं वाले फासीवाद से आज भी टकरा रहा है। ये शहादतें इसी संघर्ष का प्रतीक हैं।
प्रो. कलबुर्गी न केवल साहित्य अकादमी विजेता थे, बल्कि वे स्वयं कन्नड़ भाषा के पक्ष में चले गोकाक आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रहियों में से एक थे। संत बसवन्ना और उनके लिंगायत आन्दोलन की अंधविश्वास, जाति-प्रथा, मूर्ति-पूजा, कर्मकांड विरोधी विवेकवादी, मानवतावादी और समतामूलक परंपरा की हिफाज़त के लिए उनका समझौताविहीन संघर्ष ही उनकी ह्त्या का कारण बना। श्री उदय प्रकाश और प्रो. चंद्रशेखर पाटिल द्वारा साहित्य अकादमी सम्मान लौटाया जाना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। प्रतिवाद मार्च और सभाओं में वह चीज़ साफ़ महसूस की जा सकती थी, जिसे श्री उदय प्रकाश ने पाणिनी आनंद को दिए अपने साक्षात्कार में ‘भय भी शक्ति दे सकता है’ कह कर अभिव्यक्त किया है।
श्री उदय प्रकाश द्वारा सम्मान लौटाए जाने के बाद से उनके खिलाफ कुछ लोगों द्वारा चलाया जा रहा अभियान बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। श्री उदय प्रकाश से अतीत में या आज भी, किसी भी प्रसंग में हमारा, आपका या किसी का कोई भी मतभेद हो सकता है, लेकिन उनके द्वारा सम्मान लौटाए जाने का आज के समय में जो महत्त्व है, उसे किसी भी तरह से छोटा नहीं किया जा सकता। इस प्रकरण में उनके फैसले या उनका व्यक्तिगत विरोध करने वाले या तो वक्त की नजाकत और स्थिति की भयावहता से गाफिल हैं या फिर निपट वैचारिक दरिद्रता और व्यक्तिगत क्षुद्रता का इज़हार कर रहे हैं। मैं निजी तौर पर और जन संस्कृति मंच की ओर से श्री उदय प्रकाश द्वारा उठाए गए कदम को महत्वपूर्ण और लम्बी चलने वाली इस लड़ाई को मजबूती प्रदान करने वाली सार्थक कार्रवाई मानता हूं।
(प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच)
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