बनारस सुरक्षा बंधन मना रहा है!
Sep 2, 2015 | Abhishek Srivastavaपूर्णिमा बीत गई। सावन ढलने वाला है। देश रक्षाबंधन मना चुका। बनारस सुरक्षा बंधन मना रहा है। देखकर दिमाग चकरा गया जब हमने शुक्रवार की सुबह करीब दो दर्जन औरतों की भीड़ को नई सड़क के एक कोने में एक स्टॉल के पास जमा पाया।
पूर्णिमा बीत गई। सावन ढलने वाला है। देश रक्षाबंधन मना चुका। बनारस सुरक्षा बंधन मना रहा है। देखकर दिमाग चकरा गया जब हमने शुक्रवार की सुबह करीब दो दर्जन औरतों की भीड़ को नई सड़क के एक कोने में एक स्टॉल के पास जमा पाया। स्टॉल पर भाजपा का गमछा लपेटे एक दबंग टाइप अधेड़ शख्स फेरीवाले की तरह आवाज़ लगा रहा था, ”आज आखिरी दिन है।” वह वहां खड़ी औरतों को प्रधानमंत्री बीमा योजना का फॉर्म बांट रहा था। मेज़ पर ढेर सारे आधार कार्ड पड़े थे, कुछ औरतें फॉर्म भरने में व्यस्त थीं तो कुछ उसे लेकर घर जा रही थीं। मैंने फॉर्म मांगा तो वहां बैठे व्यक्ति ने मना कर दिया और कुछ संदेह से मुझे देखने लगा। आसपास के स्थानीय पुरुष बेशक इस सुरक्षा का असल मतलब समझ रहे हों, लेकिन उन्हें पान चबाने और गाली देने से फुरसत नहीं है कि वे ऐसे मामलों में- हमारी भाषा में- इन्टरवीन कर सकें।
मसलन, बस अभी-अभी कोदई चौकी की ओर से निकल रहे एक बैटरी रिक्शे (हां, यह नया बदलाव है बनारस में) ने ढंगराते हुए एक पैदल अधेड़ का माथा फोड़ दिया है। अधेड़ शख्स गिरा। गिर कर उठा। उठने के बाद गालियां देने लगा। कोरस में दो-तीन लोग और आ गए। ई-रिक्शेवाला पूरे इत्मीनान से आगे बढ़ गया। कोई झगड़ा-झंझट नहीं। बीएचयू के एक पूर्व छात्र कहते हैं कि यही वह अदा है जिस पर सब फिदा है। ”ऐसी घटना अगर दिल्ली में हुई रहती तो अब तक मार हो गया रहता। बनारस में अभी रोड रेज (सड़कोन्माद) नहीं आया है, इसकी वजह यह है कि लोगों के पास अब भी पर्याप्त फुरसत है। दिमाग में टेंशन नहीं है। कोई जल्दी नहीं, हालांकि जल्द ही यह स्थिति बदल जाएगी। अगर बनारस में लोगों का दिमाग गड़बड़ाया तो जाम और बेतरतीबी से पटी सड़कों पर रोज़ाना हत्याएं देखने को मिलेंगी।” अरे… बीएचयू से याद आया…
एक ओर जहां गुजरात की हिंसा में मारे गए सात लोगों की खबर पर पूरा शहर चर्चा कर रहा था और नई सड़क पर सुरक्षा के बंधन बांधे जा रहे थे, वहीं बीएचयू गेट के ठीक बाहर कुछ लोगों को अहसास हो चुका था कि अब उनका सांसद उनकी रक्षा या सुरक्षा नहीं कर सकता। वाइस चांसलर गिरीश चंद्र त्रिपाठी संघ के बैठाए हुए हैं, फिर भी उनसे बीएचयू नाराज़ है। बीते चार दिन से चौथे दरजे के करीब 45 संविदा कर्मी अपने निष्कासन के खिलाफ़ सिंहद्वार पर धरना दिए बैठे थे। उन्हें परमानेंट करने के बजाय प्रशासन ने नई नियुक्तियां कर दी हैं और बरसों से बीएचयू में काम कर रहे अधिकतर निचली जाति के इन लोगों की आजीविका पर तलवार लटका दी है। इन लोगों को शुक्रवार की शाम पूरी तरह कार्यमुक्त कर दिया गया। कहीं कोई गुहार काम नहीं आई। पिछले कुलपति लालजी सिंह को एक दलित महिला के उत्पीड़न के मामले में एससी/एसटी आयोग के मुखिया पीएल पुनिया ने दर्जन भर बार समन किया था। आज त्रिपाठीजी को समन करना तो दूर, उनके किए पर उंगली उठाने वाला भी कोई नहीं है।
बनारस में आज की तारीख में अगर वाकई स्टोरी का कोई विषय है, तो वह बीएचयू है। बीएचयू में हुई नियुक्तियां हैं। लोगों की कही बातों पर यकीन करें, तो अकेले ट्रॉमा सेंटर में राजस्थान के एक ही कॉलेज से पढ़े 160 लोगों को भर्ती कर लिया गया है। मेडिकल संस्थान आइएमएस में नौ लाख रुपये लेकर नियुक्तियां की गई हैं। भूगोल विभाग के सबसे काबिल और जानकार प्रोफेसर को इसलिए डेलिगेशन में क्योटो नहीं भेजा गया क्योंकि वे बनारस की भूगर्भीय प्लेटों का हवाला देकर मेट्रो परियोजना पर सवाल उठा रहे थे। नियुक्तियों में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा केंद्र बीएचयू का नया-नवेला साउथ कैंपस है। अगर कायदे से जांच-पड़ताल की जाए तो मध्यप्रदेश के व्यापमं का एक छोटा सस्करण बीएचयू में निकल आएगा। लाख टके का सवाल है कि ऐसा करेगा कौन? पत्रकार झूठ लिखने की तनख्वाह उठा रहे हैं। धरना दे रहे संविदा कर्मियों को कम से कम आम आदमी पार्टी का सहारा मिला था, लेकिन यह पार्टी अपनी पैदाइश से ही बनारसियों के हास्यबोध का हिस्सा रही है। काफी लंबे वक्त तक ऐसा रहा कि लोग किसी की मौज लेने के लिए उसे केजरीवाल/खुजलीवाल नाम से बुला लेते थे। ऐसे में आम आदमी पार्टी को कभी लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया।
वामपंथी दलों का आलम यह है कि उनके जो भी एकाध काडर बचे हैं, उनकी भूमिका झोले में पत्रिकाएं भरकर बांटने तक सीमित रह गई है और हर शाम वे पउवे के लिए कोई जुगाड़ खोजते नज़र आते हैं। बचे लेखक और छात्र-युवा, तो हमने पहली प्रजाति के बारे में जानने के लिए खुद इस प्रजाति के एक सुशांत-प्रशांत सदस्य से मिलकर वस्तुस्थिति जानने की कोशिश की, कि बनारस की लेखक बिरादरी आजकल क्या कर रही है। कवि ज्ञानेंद्रपति सुबह व्यस्त थे, तो उन्होंने शाम को काशी विद्यापीठ के बाहर मिलने को बुलाया। हमेशा की तरह वे अपने 24*7 साथी कैलाश नाथ चौरसिया के साथ भूंजे वाले के ठेले के बगल में खड़े पाए गए। हम पहुंचे तो उन्होंने भूंजा मंगाया और बगल में एक छोटे से मंदिर की चौखट पर हम लोग बैठकर भूंजा-चटनी फांकने लगे।
”आप स्वस्थ हैं?” ”हां..”, एक झटके में उन्होंने जवाब दिया। ”और बनारस? बनारस स्वस्थ है कि नहीं?” वे दस सेकंड ठहरे, फिर उसी कनविक्शन के साथ बोले, ”नहीं, बनारस तो स्वस्थ नहीं है।” ”क्यों? बनारस तो पहले भी स्वस्थ नहीं था?” ज्ञानेंद्रपति बोले, ”देखिए, स्वस्थ का मतलब होता है स्व में स्थित। बनारस स्व में स्थित नहीं है। पहले वह स्वस्थ नहीं था तो बीमार भी नहीं था। अब ऐसा नहीं है। पिछले एक साल से ऐसी स्थिति है।” उसके बाद भूंजे पर चर्चा आगे बढ़ी। अचानक पीछे सड़क से मेरा नाम लेती हुई एक आवाज़ आई। देखा तो कुमार विजय थे। उनके साथ पत्रकार सुरेश प्रताप भी थे। वे भी आकर बैठ गए। कुमार विजय एक समय के समर्थ लेखक और पत्रकार थे। आज अखबारों को जिस तरह से निकाला जा रहा है, उनके जैसे जनवादी लोगों की ज़रूरत नहीं रह गई है। सुरेशजी भी लंबे समय से खाली हैं। अचानक दिल्ली से भाई राजेश चंद्र का फोन आया कि एनएसडी की पत्रिका के संपादक अजित राय चुन लिए गए हैं। मैंने यह सूचना साझा की, तो सारी चर्चा अजित राय के धतकर्मों पर आकर टिक गई।
अजित राय से मसला इंद्राणि मुखर्जी पर शिफ्ट हुआ। फिर ज्ञानेंद्रपतिजी ने इस बात पर चिंता ज़ाहिर की कि देश में हिंदुओं की संख्या घट रही है और मुसलमानों की बढ़ रही है। सारे अख़बार दो दिन से यही बता रहे हैं। उसके बाद हार्दिक पटेल भी चर्चा का विषय बने। फिर ज्ञानेंद्रपतिजी ने ”कविता- 16 मई के बाद” अभियान के नाम पर अपनी पुरानी आपत्ति जतायी और पूछा कि बनारस में दूसरा आयोजन कब है। ”होता तो आपको बुलाते ही, ये कोई कहने की बात है?” मैंने कहा। वे बोले, ”वो तो ठीक है, लेकिन मैं आता कि नहीं, यह मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता।” यह एक अलग बात थी। कुल मिलाकर मंदिर की चौखट पर बात उछलती रही, कोई सिरा पकड़ में नहीं आया। ज्ञानेंद्रपति ने बॉटमलाइन मारी, ”देखिए, हर आदमी को एक पूंछ होती है।” भूंजा फांकने और चाय पीने के बाद सड़क किनारे की धूल, अंधेरे, उमस और व्यर्थता को घोंटते हुए हम पैदल कैंट की ओर बढ़े। कुमार विजय ने पान खिलाया, हमेशा की तरह पुराना सवाल पूछा कि परिवार आगे बढ़ा या नहीं और फिर ज्ञानेंद्रपतिजी के साथ कदमताल करते हुए हम लोग इस बात पर चर्चा करने लगे कि वे शहर में कितना पैदल घूमे हैं। कैंट पर हमने उनसे विदा ली, बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे हुए कि आज के बनारस में एक लेखक क्या कर रहा है।
बचे बनारस के छात्र और युवा, तो यह एक दिलचस्प अध्याय है। सबसे ज्यादा बदलाव इसी तबके में देखने में आ रहा है। आज के बनारस की पड़ताल करती आखिरी किस्त में हम बनारस के कुछ युवाओं से मिलेंगे और जानेंगे कि वे क्या सोच रहे हैं। ज़ाहिर है, यह समाज अपनी लंबी नींद अब तोड़ रहा है। यह बात अलग है कि नींद खुलने के बाद कुछ ने जल्दीबाज़ी में महत्वाकांक्षा की अफ़ीम गटक ली है तो कुछ और वैचारिक शुद्धता के चक्कर में मोहभंग की तंद्रा का शिकार हो चुके हैं।