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पवित्र गाय और भाजपा की पवित्रता की सनक

Apr 10, 2015 | आनंद तेलतुंबड़े

चर्चों पर हमले, ‘घर वापसी’ के रूप में चालबाजी से भरे धर्मांतरण, हिंदू धर्म को बचाने के लिए अनेक बच्चे पैदा करने के उपदेशों और मुसलमानों पर लगातार हमलों और उनको अपमानित करने जैसे कदमों की एक लंबी फेहरिश्त में, विकास-केंद्रित भाजपा ने अब अपने हिंदुत्व के पिटारे से ‘पवित्र गाय’ को भी इसमें जोड़ दिया है. 3 मार्च को महाराष्ट्र सरकार को इसके उस कठोर विधेयक पर राष्ट्रपति की सहमति मिल गई, जिसमें गाय और इसके वंश की न सिर्फ हत्या करने पर बल्कि किसी भी रूप में उनके मांस को रखने पर भी सजा का प्रावधान है.

चर्चों पर हमले, ‘घर वापसी’ के रूप में चालबाजी से भरे धर्मांतरण, हिंदू धर्म को बचाने के लिए अनेक बच्चे पैदा करने के उपदेशों और मुसलमानों पर लगातार हमलों और उनको अपमानित करने जैसे कदमों की एक लंबी फेहरिश्त में, विकास-केंद्रित भाजपा ने अब अपने हिंदुत्व के पिटारे से ‘पवित्र गाय’ को भी इसमें जोड़ दिया है. 3 मार्च को महाराष्ट्र सरकार को इसके उस कठोर विधेयक पर राष्ट्रपति की सहमति मिल गई, जिसमें गाय और इसके वंश की न सिर्फ हत्या करने पर बल्कि किसी भी रूप में उनके मांस को रखने पर भी सजा का प्रावधान है. असल में, महाराष्ट्र में हमेशा से ही गाय के मांस की कुछ किस्मों पर पाबंदी और रोकथाम रही है. महाराष्ट्र एनिमल प्रिजर्वेशन एक्ट 1976 नामक कानून में गाय की हत्या पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई थी, जिसमें दूसरे जानवरों और उनके वंश की हत्या पर नियंत्रण है. 1995 में, भाजपा-शिवसेना सरकार ने इस अधिनियम में संशोधन पारित किया और गाय के पूरे परिवार और नर और मादा समेत भैंस के बछड़ों को प्रतिबंधित सूची में शामिल कर लिया और उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा. हालांकि न तो केंद्र में उसके बाद आई राजग समेत किसी भी सरकार ने, और न ही अगले 15 वर्षों में राज्य में बनी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों ने इस पर अमल किया. अब जब भाजपा ने राज्य और केंद्र दोनों ही जगहों पर सत्ता पर कब्जा कर लिया है, तो विधेयक को इसके विवादास्पद और कठोर प्रावधानों के बावजूद बड़ी आसानी से लागू कर दिया गया है. इसने हिंदुत्व गिरोह के शासन वाले राज्यों में एक होड़ पैदा कर दी है और हरियाणा तो गाय की हत्या को इंसान की हत्या के बराबर रखने का प्रस्ताव भी ला चुका है.

ऐसे कानून, लोग जो चाहते हैं उसे खाने के बुनियादी जनवादी अधिकार का उल्लंघन तो करते ही हैं, साथ ही साथ ऐसे कानून सचमुच आर्थिक तबाही ला सकते हैं, यह बात बहुत कम महसूस की जाती है. एक देश जहां 18.30 लाख बच्चे अपने पांचवे जन्मदिन से पहले मर जाते हैं, जहां हर दिन दो दलितों की हत्या की जाती है, जहां हर साल हजारों किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं, जहां सांप्रदायिक हिंसा में सालाना औसतन 130 लोग मारे जाते हैं और जहां जन विरोधी नीतियों में नहित हिंसा से दसियों लाख लोग पीड़ित हैं, वहां गाय कैसे एक भारी प्राथमिकता में आ सकती है? यह गरीब गाय कब एक पवित्र गाय बन गई? जहां एक तरफ यह सही है कि हम जिन बुराइयों का सामना कर रहे हैं, उनकी जड़ें हमारे बहुप्रशंसित संविधान में हैं, लेकिन क्या यह प्रतिबंध भी संवैधानिक है? क्या परंपरागत रूप से पेश की जानेवाली हिंदू बहुसंख्या जैसी कोई चीज सचमुच वजूद में है, जबकि यह तथ्य बना हुआ है कि हिंदू और कुछ नहीं बल्कि जातियों का एक झुंड है जो भारत को अल्पसंख्यकों का एक देश बनाता है.
पवित्र गाय का मिथक

हिंदू गाय का मांस खाते हैं या नहीं, इसका निर्णायक जवाब बाबासाहेब ने अपनी रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म (हिंदू धर्म की पहेली) में दिया है. ऋग्वेद में दूध देने वाली गाय हत्या के योग्य नहीं (अघन्य) थी. भारतीय-आर्य जैसे प्राचीन खेतिहर समुदायों में गाय संपदा का प्रतीक थी और इस तरह उसे आदर दिया जाता था और पूज्य माना जाता था. हालांकि यह उपयोगिता और आदर आर्य लोगों को खाने के मकसद से गाय की हत्या करने से नहीं रोकती थी. बल्कि गाय की हत्या इसी लिए की जाती थी कि वह पवित्र थी. आंबेडकर ने पांडुरंग वामन काणे को उद्धृत किया है जिन्होंने मराठी में धर्मशास्त्र विचार लिखा था: ‘ऐसा नहीं है कि वैदिक युग में गाय पवित्र नहीं थी, यह उसकी पवित्रता ही थी कि वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई कि गोमांस खाया जाना चाहिए.’ आपस्तंब धर्म सूत्र (15, 14, 29) भी कहता है: ‘गाय और बैल पवित्र हैं और इसलिए उन्हें खाया जाना चाहिए.’ ऋग्वेद के आर्य खाने के मकसद से गायों को तलवार या कुल्हाड़ी से मारते थे और गोमांस खाते थे कि नहीं, यह बात खुद ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं से साफ हो जाती है. अहम मेहमानों के आने पर उनकी खातिर करने के प्राचीन तरीके में मधुपर्क शामिल था, जिसमें बुनियादी तौर पर गोमांस शामिल है. मेहमानों के लिए गायों की हत्या इस सीमा तक बढ़ चुकी थी कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ यानी गाय का हत्यारा भी कहा जाने लगा था. यह बात कि अतीत में हिंदू गायों की हत्या करते और गोमांस खाते थे, उसका भरपूर वर्णन बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञों के वर्णन से साबित होता है, जो वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों से कहीं बाद के काल से ताल्लुक रखते हैं.

एक और जानेमाने विद्वान डीडी कोसंबी ने अपनी किताब प्राचीन भारत (1965) में लिखा कि क्यों ‘एक आधुनिक रूढ़िवादी हिंदू गोमांस खाने को इंसान का मांस खाने जैसा मानता है, जबकि वैदिक ब्राह्मण बलि पर चढ़ाए गए गोमांस के भरपूर भोजन को खा खाकर मोटे होते थे.’ यहां तक कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन वे अपनी रचना ‘रिलीजन एंड सोसायटी’ में यह कबूल किया है कि प्राचीन काल में ब्राह्मणों द्वारा भी मांस खाया जाता था और सिर्फ बौद्ध, जैन और वैष्णव धर्मों के प्रभाव में यह चलन खत्म हुआ. असल में, अनेक दूसरे इतिहासकारों और विद्वानों ने भी यह कहा है कि हिंदू, खास कर ब्राह्मणों में गोमांस खाने का रिवाज था. जैसा कि आंबेडकर दावा करते हैं, यह बौद्ध धर्म के साथ अपने प्रभुत्व के संघर्ष में ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म के कुछ उसूलों को एक रणनीति के तहत अपना लिया और उत्साही शाकाहारी बन गए और गायों के पूजक बन गए. हाल में, दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के एक प्रोफेसर द्विजेंद्र नारायण झा ने एक पूरी किताब ही इस पर लिखी है, जिसमें प्राचीन हिंदुओं, बौद्धों और यहां तक कि शुरुआती जैन लोगों में गोमांस खाने की आदतों को उजागर किया गया है. इस किताब का नाम द मिथ ऑफ होली काऊ (पवित्र गाय का मिथक) है. कहने की जरूरत नहीं है कि उन्हें धमकी देने वाले हिंदू उत्साहियों के मद्देनजर पुलिस सुरक्षा में चलना पड़ता है.
खान-पान पर घिनौना फासीवाद

यह एक ऐसा मिथक है, जो बिना कोई सवाल किए आंख मूंद कर यह मान लेता है कि हिंदू बहुसंख्या में हैं और इसलिए उनकी मर्जी ही चलनी चाहिए. हिंदू असल में अनेक जातियां हैं, जो एक दूसरे के ऊपर प्रभुत्व के लिए दावा ठोकने वाली, ऊंच-नीच के क्रम में एक दूसरे से बंधी हुई हैं. हालांकि पूंजीवाद ने औपनिवेशिक काल से ही द्विज गिरोह के आनुष्ठानिक अंतरों को मिटा दिया है, जिससे बंधा हुआ उत्तर औपनिवेशिक काल में शूद्र समुदायों का बाजा-गाजा बंधा हुआ है. इसने जाति व्यवस्था को दलित और गैर दलित जातियों के बीच एक कुछ-कुछ वर्गीय विभाजन बना दिया है. इनके बीच में खान-पान की आदतों को लेकर अनेक फर्क हैं. भारतीयों के शाकाहारी होने का मिथक दोमुंहे, वर्चस्वशाली ऊंची जाति के हिंदुओं द्वारा फैलाया हुआ है, जो आबादी में 15 फीसदी से अधिक नहीं हैं. आम तौर पर दिलत, आदिवासी और शूद्र समुदाय के निचले तबके मांस खाते हैं, भले ही उनका हिंदूकरण हो गया हो, और उनमें गोमांस खाने को लेकर भी उनको ऐतराज नहीं है. बल्कि गोमांस के अपेक्षाकृत सस्ता होने के कारण वे इस पर ज्यादा निर्भर करते हैं. अगर हम बहुत कम अंदाजा लगाते हुए भी यह मानें कि आधी शूद्र जातियां इस वर्ग में आएंगी, तो इसका मतलब यह होगा कि 45 फीसदी हिंदू गोमांस खाते हैं. इसमें 13.4 फीसदी मुसलमानों और 2.3 फीसदी ईसाइयों को जोड़ लीजिए तो 60.7 फीसदी भारतीयों की भारी तादाद गोमांस खाती है. इसल में कथित द्विज जातियों से जुड़े आधुनित युवाओं का भी अच्छा-खासा हिस्सा गोमांस खाता है. इसीलिए, तमाम पाबंदियों के बावजूद, भारत यों ही दुनिया में गोमांस खाने वाले देशों में सातवें स्थान पर है.

अपनी व्यापक बहुसंख्या की इच्छा को नजरअंदाज करते हुए, 24 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में मवेशियों की हत्या पर पाबंदी लगाने वाले भिन्न भिन्न कानून हैं, जो रेस्टोरेंटों के लिए कानूनी तौर पर गोमांस हासिल करने, रखने और परोसने को मुश्किल बना देते हैं. 2012 में कैंपसों में गोमांस पर प्रतिबंध के खिलाफ विरोध में उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद के दलित छात्रों ने खान-पान के अपने अधिकारों पर सार्वजनिक दावेदारी जताई और कैंपस में बीफ बिरयानी बनाकर तथा खाकर दलितों तथा मुस्लिमों की खाने-पीने की आदतों के बारे में एक राजनीतिक बयान पेश किया. यह एक समारोह के साथ होना था, लेकिन नहीं हो पाया. आशंका के मुताबिक हिंदुत्व गुंडों ने इस पर हमला किया, चेन्नई से मेहमान के बतौर आमंत्रित एक युवा कार्यकर्ता मीना कंदासामी को सामूहिक बलात्कार और एसिड हमले की धमकी दी गई. हिंदुत्व गिरोह जिस तरह की घटिया हरकतें करता है, वह भारतीय जनता के खिलाफ उसके फासीवादी पंजों को ही उजागर करते हैं.
आर्थिक बेवकूफी

गायों का आदर प्राचीन खेतिहर अर्थव्यवस्था में उनके इस्तेमाल की वजह से था और इसमें धर्म का खास कोई लेना देना नहीं था, जैसे कि बाबर, हैदर अली, अकबर, जहांगीर और अहमद शाह जैसे मुस्लिम शासकों ने भी गायों की हत्या पर पाबंदी लगाई. हिंदुओं को राजनीतिक रूप से गोलबंद करने के लिए ऊंची जातियों के नेतृत्व वाले आजादी के आंदोलन में भावनाओं को बढ़ाया गया और उसका इस्तेमाल किया गया. गांधी ने इसमें एक बड़ी भूमिका अदा की, जिन्होंने कहा, ‘मैं इसकी [गाय की] पूजा करता हूं और मैं सारी दुनिया के खिलाफ इसकी पूजा का बचाव करूंगा.’ आज, सामाजिक डर्विनवादी होड़ वाले नवउदारवादी पूंजीवाद के दौर में, आदर और पवित्रता की सामंती भावनाओं पर कारगरता और उत्पादकता के सरोकार हावी हो गए हैं. मवेशियों की अर्थव्यवस्था में परिष्कृत विज्ञान, तकनीक और प्रबंधन के तरीके शामिल हैं, जिसमें उत्पादन काल के बाद हत्या करना इसका एक अभिन्न हिस्सा है.

दुनिया में भैंसों की कुल संख्या का 57 फीसदी हिस्सा भारत में है और दुनिया के कुल मवेशियों में से 16 फीसदी भारत में हैं. यह मवेशी उत्पादन में दुनिया में सबसे अव्वल नंबर पर है और इसमें भारी आर्थिक संभावनाएं हैं. हालांकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश भी है, जो 13.24 करोड़ टन तरल दूध का उत्पादन करता है, जिसका मूल्य 290000 (दो लाख नब्बे हजार) करोड़ है और यह दूसरे बड़े खेतिहर उत्पादों जैसे धान, गेहूं और ईख के मूल्यों को मिला देने पर भी उनसे ज्यादा है. एक भारतीय गाय यूरोपीय संघ की गाय के 6,212 किलो और संयुक्त राज्य अमेरिकी गाय के 9,117 किलो की तुलना में बस औसतन 1,284 किलो दूध देती है. देश में मवेशीपालन सबसे अहम खेतिहर गतिविधि है, जो खेतिहर सकल घरेलू उत्पाद में 24.8 फीसदी का योगदान देता है. मवेशी पालन सबसे ज्यादा दूध उत्पादन के लिए किया जाता है, जिससे 1.8 करोड़ लोगों को सीधा रोजगार मिलता है और उन्हें गरीबी से बाहर आने में मदद मिलती है. इनमें से ज्यादातर लोग निचली जातियों से आने वाले भूमिहीन या हाशिए के किसान हैं. शायद इसीलिए कुलीन नीति निर्माताओं द्वारा इसकी पूरी तरह अनदेखी की जाती है. जबकि पश्चिमी देशों ने वैज्ञानिक तरीके विकसित किए हैं, भारत अभी भी मवेशी पालन के ‘वैदिक तकनीक’ का पालन करता है. गहन दूध उत्पादन का सबसे कारगर तरीका है कि गायों को सेहतमंद स्थितियों में घरों के भीतर रखा जाए, उन्हें ‘डेयरी बैल’ या ‘बीफ बैल’ से कृत्रिम रूप से गर्भाधान कराया जाए और उनसे सिर्फ शुरू के दो जन्म के दौरान ही दूध लिया जाए, जो सबसे ज्यादा उत्पादक होता है. दो बार बच्चे पैदा करने के बाद दूध की मात्रा और गुणवत्ता घट जाती है. 4-5 साल के बाद दूध देने वाली गायों को हैंबर्गर बनाने के काम में लाया जाता है और युवा बछिया उसकी जगह ले लेती है. भारत में, दुधारू गाएं नालायकी भरे तरीके से 6-8 बार और इससे भी ज्यादा बार बच्चे पैदा करने तक, लगभग जीवन भर दूही जाती हैं. ऐसा नहीं है कि किसान यह बात नहीं जानते कि यह महंगा पड़ता है, लेकिन उनके पास बेकार मवेशियों से छुटकारा पाने के विकल्प नहीं होते हैं. ऊंची जाति का हिंदुत्व गिरोह गायों के प्रति प्यार का दिखावा करता है लेकिन इसका खामियाजा निचली जाति के मवेशी पालकों को उठाना पड़ता है, जो उन्हें काटे जाने के लिए बेचना चाहते हैं जैसा कि चोरी छिपे किए जानेवाले कारोबार से बखूबी जाहिर होता है.

जरूरी नहीं कि गायों को काटा जाना अनिवार्य रूप से क्रूरता हो; बल्कि उन्हें दर्द भरी स्थितियों में जिंदा रखना क्रूरता है. सन 2000 में गोमांस का अंतरराष्ट्रीय कारोबार 3000 करोड़ डॉलर था और दुनिया के गोमांस उत्पादन के महज 23 फीसदी का प्रतिनिधित्व करता था. भारत में गायों की भारी तादाद है और मानव शक्ति है जो इसे इस बाजार पर कब्जा करने में कुदरती तौर पर बढ़त देती है. गायों के काटे जाने पर हिंदुत्ववादी प्रतिबंध न केवल इस प्राकृतिक राष्ट्रीय बढ़त को बेकार कर देगा, बल्कि ज्यादातर निचली जातियों से ताल्लुक रखने वाले लोगों की एक भारी तादाद की जिंदगियों को गहरे संकट में डाल देगा, जो गोमांस के उत्पादन, वितरण और उसके उपयोग में लगे हुए हैं.

अनुवाद: रेयाज उल हक
साभार हाशिया

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