गुंटर ग्रास की विवादित कविता: ‘जो कहा जाना चाहिए’
Apr 19, 2012 | Pratirodh Bureauएक ऐसे वक्त में जब साहित्य और राजनीति की दूरी बढ़ती जा रही हो, जब लेखक-कवि लगातार सुविधापसंद खोल में सिमटता जा रहा हो, एक कविता के बदले जर्मन कवि गुंटर ग्रास के इज़रायल प्रवेश पर लगाया गया प्रतिबंध ऐतिहासिक परिघटना है. नोबेल विजेता गुंटर ग्रास ने 84 साल की उम्र में एक कविता लिख कर इज़रायल को दुनिया के अमन-चैन का दुश्मन करार दिया है.
यह बात उतनी सपाट भी नहीं है. कविता में गुंटर ग्रास का नैतिक संघर्ष दिखता है, जो कि उपनिवेशवाद और जि़योनवाद के बीच के रिश्तों की स्वाभाविक पैदाइश है. वह पश्चिम को दोहरा बताते हैं, अपने देश जर्मनी को भी इज़रायल की गुपचुप मदद का जि़म्मेादार ठहराते हैं और यहूदी विरोध के फतवे का खतरा समझते हुए अब तक साधी हुई अपनी चुप्पी की वजहें भी बताते हैं.
यहूदी विरोधी होने की कई परतें हैं, जिन्हें इस परिचय में एकबारगी नहीं खोला जा सकता. लेकिन गुंटर ग्रास जैसे एक पब्लिक इंटेलेक्चुअल की ओर से कहा गया यह सच एक ऐसे वक्त में आया है जब लगातार यह बात तमाम तरीकों से साफ हो रही है कि इज़रायल अगर हिटलर द्वारा यहूदियों के दमन के शिकार लोगों की पनाहगाह है, तो वह यूरोपीय उपनिवेशवाद का नया मुहावरा भी है, बल्कि उसी की पैदाइश है. इसकी कीमत पिछले साठ साल से वे फलस्तीरनी अपने खून से चुका रहे हैं जो जुर्म उन्होंने नहीं, बल्कि यूरोपीय उपनिवेशवाद ने ढहाया था.
बहरहाल, पिछले दस दिन से \\\’\\\’वॉट मस्टे बी सेड\\\’\\\’ नाम की इस कविता का अनुवाद मैं करना चाह रहा था. इत्तेफ़ाक़ से कल जयप्रकाश मानस जी ने इस कविता को अंग्रेज़ी में फेसबुक पर जब शेयर किया, तो मैंने उनसे कहा कि बेहतर होता वे हिंदी अनुवाद भी कर डालते. उन्होंने तकरीबन आदेशात्मक लहज़े में जवाब दिया, \\\’\\\’आप करिए अनुवाद अभिषेक\\\’\\\’. मैंने उनके कमेंट को सामाजिक जि़म्मेदारी मानते हुए अनुवाद कर डाला. मुझे नहीं पता कविता का अनुवाद करने की कोई खास तकनीक होती है या नहीं, लेकिन ऐसा लगता है कि बात समझ में आनी चाहिए, फिर चाहे कविता अनुवाद के बाद गद्य ही क्यों न बन जाए. नीचे पूरी कविता का अनुवाद \\\’\\\’जो कहा जाना चाहिए\\\’\\\’ प्रस्तुत है.
जो कहा जाना चाहिए
मैं चुप क्यों रहा, क्यों छुपाता रहा इतने लंबे समय तक
वह खुला राज़
जिसे बरता गया बार-बार जंगी मैदानों में, और
जिसके अंत में जो बचे हम
तो हाशिये से ज्याबदा कुछ भी नहीं थी हैसियत हमारी.
ज़ोर-ज़ोर से चीख कर
उन्होंने खड़ा कर दिया एक उत्सीव सा कुछ
जिसमें दब गई ये बात, कि
यह पहले हमला करने का कथित अधिकार ही है
जो मिटा सकता है ईरानी जनता को-
क्योंकि उनकी सत्ता का दायरा फैला है
एक न्यू क्लियर बम बनने की आशंकाओं के बीच
वे मानते हैं कि ऐसा कुछ ज़रूर हो रहा है.
बावजूद इसके, क्यों रोके रहा खुद को मैं
उस दूसरे देश का नाम लेने से
जहां बरसों से, भले गुपचुप
न्यूक्लियर आकांक्षाओं की तन रही थी मुट्ठी अदृश्य
क्योंकि उस पर किसी का ज़ोर, कोई जांच कारगर नहीं?
इन बातों को छुपाया गया दुनिया भर में
जिसमें शामिल थी मेरी चुप्पी भी-
जब्र तले एक झूठ की मानिंद-
जिसे सज़ा मिलनी ही चाहिए
बल्कि सज़ा मुकर्रर थी, बशर्ते इस चुप्पी को हम तोड़ते.
यहूदी विरोध के फतवे से तो आप वाकि़फ़ होंगे.
अब, चूंकि मेरा देश
जो एक नहीं, कई बार रहा साक्षी खुद अपने अपराधों का-
(और इसमें इसका कोई जोड़ नहीं)
बदले में यदि विशुद्ध व्या़वसायिक नज़रिये से ही
विनम्र होठों से इसे करार देकर प्रायश्चित
इज़रायल को न्यूक्लियर पनडुब्बी भेजने का करता हो एलान
जिसकी खूबी महज़ इतनी है
कि वह दाग सकती है तमाम विनाशक मिसाइलें वहां
जहां एक भी एटम बम का वजूद अब तक नहीं हुआ साबित
लेकिन डर, ऐसा ही मानने पर करता है मजबूर बासबूत
तो कह डालूंगा मैं वो बात
जो अब कही जानी चाहिए.
लेकिन अब तक मैं खामोश क्यों रहा?
इसलिए, क्यों कि मेरी पैदाइश की धरती
जिस पर जमे हैं कभी न मिटने वाले कुछ दाग
रोकती थी मुझे कहने से वो सच
इज़रायल नाम के उस राष्ट्र से, जिससे बिंधा था मैं
और अब भी चाहता ही हूं बिंधे रहना.
फिर आज क्या हो गया ऐसा
कि सूखती दवात और बुढ़ाती कलम से
मैं कह रहा हूं ये बात
कि न्यूक्लियर पावर इज़रायल से
इस नाज़ुक दुनिया के अमन-चैन को खतरा है?
क्योंकि यह कहा ही जाना चाहिए
कल, हो सकता है बहुत देर हो जाए;
और इसलिए भी, कि उसका बोझ लादे हम जर्मन
ना बन जाएं कहीं ऐसे किसी अपराध के भागी
जो न दिखता हो, न ही मुमकिन हो जिसका प्रायश्चित्त
पुराने परिचित बहानों और दलीलों से.
लिहाज़ा, तोड़ दी है अपनी चुप्पी मैंने
क्योंकि थक गया हूं मैं पश्चिम के दोगलेपन से;
इसके अलावा, एक उम्मीद तो है ही
कि मेरी आवाज़ तोड़ सकेगी चुप्पी की तमाम जंज़ीरों को
और आसन्न खतरा बरपाने वालों के लिए होगी एक अपील भी
कि वे हिंसा छोड़, ज़ोर दें इस बात पर
कि इज़रायल की न्यूक्लियर सामर्थ्य और ईरान के ठिकानों पर-
दोनों देशों की सरकारों को मान्य एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी
की रहे निगरानी
स्थायी और अबाधित.
एक यही तरीका है
कि सभी इज़रायली और फलस्तीनी
यहां तक कि, दुनिया के इस हिस्से में फैली सनक के बंदी
तमाम लोग
रह सकें साथ मिल-जुलकर
दुश्मनों के बीच
और ज़ाहिर है, हम भी
जिन्होंने अब खोल दी है अपनी ज़बान.
(अनुवादः अभिषेक श्रीवास्तव, साभार- जनपथ डॉट कॉम)