कविताः असहिष्णु
Jan 9, 2015 | Panini Anandहम एक ऐसे समय में खड़े हैं जब सहजता का नाम तक असहिष्णु होता जा रहा है. जब प्रगति के घोड़े सबसे तेज़ भागते दिखाए जा रहे हैं, हम आक्रामक और असहिष्णुताओं के प्राचीर बन गए हैं. एक कविता…
और अब
असहिष्णु हो चला हूं मैं
उन सबसे
जिन्होंने मुझे बताया है कि ख़तरे में क्या है
ठेस किसे पहुंची है
हद कौन पार कर रहे हैं
नहीं रास आता है किन्हें किसी और का होना
रंगों, कविताओं, नाटकों और नारों से किसे है कष्ट
पत्थरों, किताबों और प्रतीकों के लिए आहत है कौन
चमड़ी, आंखों, भाषा, पैदाइश से
कपड़ों और खाने की चीज़ों से
पागल हुए जाते हैं कौन
उन सबसे
इस कदर हो रहा हूं प्रताड़ित
कि असहिष्णु हो चला हूं मैं
मेरी असहिष्णुता
अब मेरा मकसद है
मेरा मकसद,
तुम्हारी असहिष्णुताओं के ख़िलाफ़
मेरा अस्तित्व है
मैं हूं, तुम हो
पर तुम्हारे असहिष्णु रहने तक
मेरी असहिष्णुता
ज़िंदा रहेगी.
पाणिनि आनंद
9 जनवरी, 2015