Skip to content
Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Primary Menu Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

Hindi News, हिंदी समाचार, Samachar, Breaking News, Latest Khabar – Pratirodh

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us
  • Arts And Aesthetics

भला, बुरा, भटका और उल्लेखनीयः सिनेमा वर्ष 2011

Jan 5, 2012 | गजेंद्र सिंह भाटी

बीते साल आह्लादित किया ‘चिल्लर पार्टी’, ‘बोल’, ‘आई एम’, ‘स्टैनली का डिब्बा’ और ‘आई एम कलाम’ ने. ये सब वर्ष की सबसे अधिक स्वस्थ, सार्थक और कसी हुई फिल्में थीं. कहूं तो बेपरवाहियों की बाकी बची खेंप के बीच इन पांच ने लाज रखी. और सबसे मूल्यवान दर्शकों, देश के बच्चों के लिए स्वास्थ्यवर्धक मनोरंजन रचा. ‘चिल्लर पार्टी’ मुंबई की चंदन नगर कॉलोनी के उन छह-सात प्यारे बच्चों की कहानी थी, जो अपने गरीब मजलूम दोस्त फटका और भीड़ू (कुत्ता) के लिए एक लोकल नेता से भिड़ जाते हैं, ऐसे वक्त में जब बच्चों के मां-बाप भी उनका साथ नहीं देते. बाल कलाकार नमन जैन जांघिया की भूमिका में साल के शायद सबसे लाडले एंटरटेनर बन गए. नीतेश तिवारी और विकास बहल अपने निर्देशन में उम्मीदों से अधिक खरे उतरे.

 
‘बोल’ पाकिस्तानी फिल्मकार शोएब मंसूर की ‘खुदा के लिए’ के बाद अगली पेशकश थी. फिल्म की कहानी, पटकथा और निर्देशन में कोई मौजूदा फिल्ममेकिंग एक्सपेरिमेंट्स की हड़बड़ी न थी, और फिल्म बाकायदा कमाल सम्मोहक थी. बेधड़क सामाजिक मुद्दों को हरेक पल उठाती हुई. कहानी बेटे की चाह में आधा दर्जन बेटियों को जन्म देने वाले दकियानूसी धार्मिक विचारों वाले हकीम साहब (पाक कलाकार मंजर सेहबई की जबर्दस्त अदाकारी) और फांसी की सजा पाई उनकी बागी बेटी जैनब की. उसका सवाल बड़ा है, जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो?
 
ओनीर की ‘आई एम’ संदेश देने के लिए बनने वाले सिनेमा की शीर्ष फिल्म थी, पर अपने पूरी तरह रोचक होने के साथ. बाल शोषण, गे राइट्स, स्पर्म डोनेशन और कश्मीरी पंडितों के मुद्दों की चार छोटी-छोटी कहानियां कहती हुई. संभवतः दर्शकों द्वारा सबसे कमतर आंकी गई वर्ष की मजबूत फिल्म. ‘तारे जमीं पर’ की संकल्पना करने वाले अमोल गुप्ते की ‘स्टैनली का डिब्बा’ बनाई. और क्या बनाई. सहानुभूति भरे अतीत वाले अनोखे बच्चे स्टैनली से उसके स्कूल का खड़ूस शिक्षक रोज स्वादिष्ट खाने का डिब्बा लाने की अपेक्षा करता है, और न ला पाने पर उसे स्कूल न आने को कहता है. कष्टों से भीगा लेकिन अनोखी ऊष्मा से भरा स्टैनली एक दिन अपना डिब्बा लाता है और उस दिन खड़ूस को शर्मिंदा होना पड़ता है. चरित्र निर्माण के दिनों में बच्चों को बचपन के महत्वपूर्ण सबक और ढेर सारा चरित्र दे जाती है ये फिल्म.
 
सामाजिक मुद्दों पर अनेक डॉक्युमेंट्री फिल्में बना चुके नील माधव पांडा ने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘आई एम कलाम’ भी बच्चों के नाम की, जो बड़ों को भी पसंद आई. बीकानेर के पास किसी हाइवे पर बने ढाबे में काम करता है छोटू, जो पढ़ना-लिखना चाहता है और भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम सा बनना चाहता है. राह में मुश्किलें हैं लेकिन उसकी ईमानदारी और चाह उसके साथ है. ये एक नन्ही-मुन्नी प्यारी सी फिल्म थी.
 
इन आह्लादकारी फिल्मों के बाद दूसरी पंक्ति में वो फिल्में रहीं जो कमर्शियल होने की लक्ष्मण रेखा में रहते हुए और संदेश या मनोरंजन के पहलू पर कुछ कसर लिए बनी थीं. इनमें सबसे अधिक विविध विषयों और बहसों को खुद में समेटे सम्मोहित किया ‘शोर इन द सिटी’ ने. ब्रिटेन से आए राज निदिमोरु और कृष्णा डी.के. के निर्देशन में दुर्लभ नजरिया था. एक लड़के का क्रिकेट टीम में चुना जाना बहुत जरूरी है, नहीं तो उसकी गर्लफ्रेंड का ब्याह घरवाले कहीं और कर देंगे. विदेश से मुंबई आए एक भारतीय ने छोटा सा बिजनेस शुरू किया है और स्थानीय ‘सिक्योरिटी प्रोवाइड करने वाले’ बेशर्म गुर्गे उसे सता रहे हैं. अपने बेरोजगार सपनों वाले जरा औसत लफंगे दोस्तों मंडूक और रमेश के बीच प्रताप में अद्भुत ईमानदारी और इंसानियत है. इसके बाद ‘रॉकस्टार’ पटकथा लेखन और फिल्म के किरदारों की मौलिकता के मामले में जोरदार थी. मसलन, खटाना की भूमिका में कुमुद मिश्रा. इम्तियाज अली की ये फिल्म वैसे तो “प्यार में टूटे दिल से ही संगीत निकलता है” वाली फिलॉसफी के लिहाज से करंट मारती सी थी, पर फिल्म का दूसरा हिस्सा बेहद एब्सट्रैक्ट था. “उस दिन परिंदों का एक झुंड यहां से हमेशा के लिए उड़ गया. कभी नहीं लौटा. मैं उन परिंदों को ढूंढ रहा हूं. किसी ने देखा है उन्हें?” ये फिल्म का अकेला महानगरी विकास में मरी इंसानियत के बहुमूल्य विषय की तरफ इशारा करता डायलॉग था, फिल्म में बाकी सब कुछ मुद्दों का रोमैंटिसाइज्ड वर्जन था. ‘धोबी घाट’ अलहदा सी थी. पर उसमें सभी बातें और मुद्दे वैसे ही थे कि किसी आरामदायक माहौल में माथे पर शिकन लिए सिगार पीते हुए कोई ‘हाइली रेकमैंडेड’ नॉवेल पढ़ा जाए. और, रोमांच हो आता रहे. नागेश कुकुनूर की ‘मोड़’ ईमानदार इरादों वाली बेहद स्वच्छ और सादी फिल्म थी. फिल्में बनाने के तमाम स्वार्थी उद्देश्यों के प्रदूषण से बहुत दूर. दूध और घीये की खीर सी निर्मल. ऐसी फिल्में बननी बड़ी जरूरी हैं.
 
‘चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस’ (आम आदमी और उसे परेशान करता बाबुओं का भ्रष्टाचार) और ‘पप्पू कांट डांस साला’ (कस्बाई और महानगरी संस्कारों के बीच राह सुझाती और शांति करार करवाती) तकनीकी तौर पर जरा कमजोर थीं, पर अर्थहीन नहीं थीं. इनके विषयों का चयन, इनकी बड़ी खासियत थी. रोहित शेट्टी की हर फिल्म का सूत्रवाक्य “समाज के आखिरी इंसान का सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन करना” होता है. इसी चक्कर में कई मनोरंजक मगर फूहड़ ‘गोलमालें’ भी बनीं. खैर, उनकी ‘सिंघम’ साउथ की फिल्मों के रीमेक रूट पर चली थी, और इसके दर्शकों का दायरा भी व्यापक था. इसे अधिकतर ने पसंद किया. भ्रष्टाचार और पुलिस सुधारों पर भी इसने हल्के-फुल्के नाटकीय तरीके से बात की, हालांकि अंत फिल्मी सा ही हुआ, और विलेन बने प्रकाश राज को उस तरह खत्म किया जाना भी न्यायोचित ठहराया गया. 
 
मिलन लुथरिया ने सिल्क स्मिता की जिंदगी पर बायोग्राफिकल पिक्चर बनाई. नाम रहा ‘द डर्टी पिक्चर’. कंटेंट व्यस्कों वाला था, इसलिए परिवारी और बाल दर्शक तो थियेटर की राह से सीधे हट गए. बचे युवा, तो उन्हें विद्या बालन के बेझिझक हो अंग दिखाने ने लुभाया और रही-सही कसर रजत अरोड़ा के ताली-सीटी बजाऊ डायलॉग्स ने पूरी कर दी. अर्थपूर्ण बात बस फिल्म ने यही कही कि “कपड़े उतारने वाली औरतों पर शर्म के पत्थर मारते, लेकिन उतारते भी तो तुम्हीं हो, तो तुम्हें पत्थर कौन मारे?”. यानी समाज के तथाकथित मर्यादावान मर्दों से एक चरित्रहीन औरत सवाल-जवाब कर रही है. जायज सवाल. ‘द डर्टी पिक्चर’ की तरह दो और फिल्में बायोग्राफिकल थीं. राजकुमार गुप्ता की निर्देशित ‘नो वन किल्ड जेसिका’ (जेसिका लाल हत्याकांड) और राम गोपाल वर्मा की ‘नॉट अ लव स्टोरी’ (नीरज ग्रोवर मर्डर केस). पहली ठीक-ठाक थी और दूसरी में तकनीकी खासियत थी इसका कैनन के 5डी एसएलआर कैमरों से शूट होना. ये भारतीय फिल्म निर्माण के आकांक्षी विद्यार्थियों या फिल्मकारों के लिए हजारों रास्ते खोलने वाला प्रयोग रहा. बिजॉय नांबियार की ‘शैतान’ चटख, नैराश्य भरी, बहुत कुछ कहते हुए भी कुछ न कहती और बागी किस्म की थी, जो जेहन में सही मायनों में उतर नहीं पाई. वहीं ‘प्यार का पंचनामा’ गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाले युवा प्यार में निर्देशक लव रंजन की अपनी ही व्यक्तिगत सी टिप्पणी थी, जो बहुतों को सही लगी. पर फिल्म “बन गया कुत्ता” गाने जैसे कई अवांछित तत्वों के सहारे नजरों में चढ़ी. आनंद एल. राय की ‘तनु वेड्स मनु’ हिंदी फिल्मों में हीरोइन की शर्म-ओ-हया वाली छवि से उलट वाली हीरोइन लाई, जहां तनुजा त्रिवेदी दारू पीती हैं, धूम्रपान करती हैं, गालियां निकालती हैं और जब चाहे घर से भाग जाती हैं. जो कुछ मायनों में ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ की बीड़ी-दारू पीती डिंपल और ‘रॉकस्टार’ की शराब पीती-जंगली जवानी देखती हीर कौल भी करती हैं. पर, तीनों नायिकाओं के ये रूप फैंसी चमक से ज्यादा न थे. कहानियां कहीं जाती रहीं, और शुरू में नायिकाओं के ऐसा करने के संदर्भ कहीं पड़े रहे. ‘तनु वेड्स मनु’ औसत मनोरंजन थी. अगर विषय आधारित फिल्मों की बात करें तो ‘खाप’, ‘गांधी टु हिटलर’ और ‘आरक्षण’ क्रमशः ऑनर किलिंग, हिंसा-अहिंसा की विचारधारा और आरक्षण के गंभीर मुद्दों पर बनना चाह रही थी, पर बहुत बुरी बनीं, इतनी बुरी की खारिज हो गईं.
 
वर्ष 2011 के सिनेमा में जो बिल्कुल गायब रहा, वो था निम्न-मध्यमवर्गीय तबका, समाज का आखिरी आदमी और उसकी चिंताएं-दुश्वारियां. ये सब फिल्मों में रत्तीभर भी नहीं थे, कहीं भूले-भटके थे भी तो हाथ-जोड़े किसी हीरो के आने का इंतजार कर रहे थे, खुद हीरो न थे. बीते साल तकरीबन सभी कहानियां महानगरी, अंग्रेजी बोलने वाले और टिकट-पॉपकॉर्न-पेप्सी खरीद सकने की हैसियत रखने वाले इंडियन के इंद्रिय सुख के लिहाज से कही गईं. जो लोग भारतीय फिल्में बनाने और समाज के आखिरी इंसान को मनोरंजन देने का दावा कर रहे थे, उनकी फिल्मों की लोकेशन, उनके नायक, उनके किरदार और उनकी कहानी थोथे थे. उन्होंने फिल्में भारत के भीतर की ओर देखते हुए नहीं बनाई, उनकी नजरें मुंबई और देश से बाहर लगी रहीं. सबसे ज्यादा कमर्शियल फिल्म बनाने वालों की बात से शुरू करते हैं. निर्देशक रजनीश ठाकुर ‘लूट’ के लिए पटाया, थाइलैंड गए. सारी शूटिंग और कथा वहीं के इर्द-गिर्द थी. ऐसा ही डेविड धवन की ‘रासकल्स’ के साथ था. उनकी कहानी जबर्दस्ती बैंकॉक शिफ्ट होती लगती है. इंद्र कुमार की ‘डबल धमाल’ मॉरिशस में बनती है तो सलमान खान की करोड़ों कमाने वाली फिल्म ‘रेडी’ को अनीस बज्मी श्रीलंका में शूट करते हैं. ‘थैंक यू’ में भी अनीस की कहानी भारत के भीतर नहीं रहती. अभिनय देव की अभिषेक कपूर वाली बुरी बनी फिल्म ‘गेम’ ग्रीस के एक आलीशान द्वीप में सिमटी है. अजय चंडोक की फिल्म ‘चतुर सिंह टू स्टार’ में संजय दत्त इंडियन पिंक पैंथर बनते हैं और कहानी भारत से बाहर ले जाई जाती है. इन सबके साथ खास बात ये रही कि कमजोर पटकथा, सस्ते संवादों और द्विअर्थी बातों के पीछे इनका दावा कुछ यूं होता है कि ये भारत की कस्बाई ऑडियंस के सबसे करीब हैं. हकीकत ये है कि अपने निर्वाह में ये बिल्कुल विदेशी लगती हैं. ऊपर से वर्ष की सबसे बुरी फिल्में भी ये ही हैं. 
 
‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ में रईस और हाईब्रो दोस्त फॉरेन टूर पर जिंदगी खोजने निकलते हैं. जोया अख्तर की ये फिल्म मजेदार सुकून देती है, पर भारतीय संदर्भों में फिल्म फिरंगी ही रहती है. क्योंकि फिल्म जाने-अनजाने असर ये छोड़ती है कि जिनके पास पैसे हैं वो फिल्म देख ऐसे ही एडवेंचरों पर निकलें, नहीं तो कस्बों से महानगरों में आएं, रईस बनें और जिंदगी की इस तथाकथित सफल होने की टर्म को साकार करें.
 
जो फिल्में कस्बाई थीं, उनमें एक थी राकेश ओमप्रकाश मेहरा के निर्माण में बनी और उनके सहायक रहे मृगदीप सिंह लांबा के निर्देशन वाली ‘तीन थे भाई’. हालांकि फिल्म पंजाब और कश्मीर में बेहद आम से किरदारों के बीच टहलती है, जो कि अच्छी बात रही, पर तकनीकी तौर पर फिल्म दमदार नहीं बनी. और हां, इसके किरदार भी मध्यमवर्गीय थे, निम्न-मध्यमवर्गीय नहीं. सत्यजीत भट्कल की ‘जॉकोमॉन’ की कहानी शुरू में छोटे कस्बे की जरूर है पर फिल्म का हीरो, अनाथ बच्चा कुणाल भारतीय होते हुए भी हैरी पॉटर जैसा है, और फिल्म के बाकी किरदार भी हैरी पॉटर सीरिज के कुछ किरदारों से लगते हैं. 
 
हमेशा कॉमन मैन बनने वाले विनय पाठक की कई फिल्में इस साल आईं. उनसे जब मैंने पूछा कि कभी फिल्मों में निम्न-मध्यमवर्गीय या आखिरी आर्थिक तबके का आदमी भी बनेंगे? तो वह कुछ नाराज से हो बोले कि कोई ऑफर करे तो देखूंगा. दीपा साही की ‘तेरे मेरे फेरे’ में उनका रोल एक औसत हिमाचली आदमी (जय धूमल) का था, पर फिल्म तकनीकी तौर पर रुचिकर नहीं थी, तो खारिज हो गई. ‘ऊट पटांग’ (रामविलास) में वही मुंबई महानगर में फंसा एक औसत किरदार. ‘चलो दिल्ली’ रोचक फिल्म थी. इसमें विनय दिल्ली के मनु गुप्ता बने थे. मनु भी निम्न-मध्यमवर्गीय नहीं था, पर एक ठेठ देसी और चटख सोच उसमें थी. ‘भेजा फ्राई-2’ में वह फिर से आम आदमी होने का दावा करते भारत भूषण का बुरा कैरिकेचर बने रहे.
 
एक मोटा बदलाव भी इस साल हुआ, जिसने हिंदी फिल्म उद्योग को घोर कमर्शियल होने की घातक दुर्घटना की ओर धकेल दिया है. फिल्में तो पहले ही समाज के परिपेक्ष्य से कम और “कितना बिजनेस करेगी” के पूंजीवादी तर्क से बनने लगी थीं, पर अब हर फिल्म लेखक, समीक्षक, आलोचक और पत्रकार फिल्म के बिजनेस के आगे मुंह बंद कर लेगा. बोलेगा भी तो उसकी भाषा में गलत पैमाने वाले शब्द प्रवेश कर चुके होंगे. जैसा ‘बॉडीगार्ड’, ‘रेडी’ और ‘रा.वन’ के दौरान हुआ. बदलाव यह था कि इसी साल हम फिल्मों के बिजनेस करने के न्यूनतम पायदान को 100 करोड़ निर्धारित करने की खुमारी में आए. ‘बॉडीगार्ड’ (229 करोड़), ‘रेडी’ (179 करोड़), ‘रा.वन’ (240 करोड़), ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ (152 करोड़), ‘सिंघम’ (139 करोड़) और ‘रॉकस्टार’ (104 करोड़) के साथ. (बॉक्स ऑफिस इंडिया डॉटकॉम के आंकड़े)
 
इसी बदलाव में सम्मिलित दूसरा नुकसान भरा ट्रेंड रहा साल की सबसे बुरी फिल्मों में से होने के बावजूद ‘बॉडीगार्ड’, ‘रा.वन’ और ‘रेडी’ का लोगों को थियेटर तक खींचना. इन फिल्मों के कारोबार के बोझिल आंकड़े देख “फिल्म लोगों को पसंद आई” का थोथा लेबल दे दिया गया. जबकि वजह कुछ और थीं. पहली ये कि जिन शाहरुखों और सलमानों के पीछे पहले कलम और माइक थामे लोग दौड़ते थे, वही स्टार्स साल भर अखबारों के दफ्तर-दफ्तर, एफ.एम. चैनलों के स्टेशन, रिएलिटी शोज और टीवी सीरियल्स की कड़ियों में अपनी कॉरपोरेट मार्केटिंग स्ट्रैटजी के तहत जाते दिखे. वो चंडीगढ़, लुधियाना, नोएडा, कानपुर, इंदौर, पटना, जयपुर और अहमदाबाद… हर संभव आर्थिक संभावना वाली जगह घूमे. दूसरी वजह ये कि जिन सिंगल स्क्रीन में पहले दिन में चार शो होते थे, वहीं आज एक मल्टीप्लेक्स में 14 या 16 शो तक होते हैं, और एक बड़े शहर में ऐसे बहुत से मल्टीप्लेक्स होते हैं। यानी अनाप-शनाप शो. तो शुरू के दो-तीन दिन भी दर्शकों को फिल्म का प्रोमो दिखाकर या प्रमोशन के उक्त तरीके अपनाकर थियेटर तक खींच लिया जाए तो 100 करोड़ कहीं नही जाते. और फिर सैटेलाइट राइट्स और दसियों दूसरे राइट्स की कमाई अलग. पैसे कमाने का ये तरीका और प्रमोशन-मार्केटिंग रणनीति पश्चिम के फिल्म उद्योग हॉलीवुड से आ रही है. जब जॉर्ज क्लूनी अपनी लिखी और निर्देशन वाली ‘आइड्स ऑफ मार्च’ को प्रमोट करने डेविड लैटरमैन या फिर लाइव विद रेजिस एंड कैली जैसे शोज पर जाते हैं और उनकी फालतू की बकवास में हंसते-हंसते शामिल होते हैं तो समझ आता है कि हमारे यहां बीते साल ये क्या होने लगा.
 
इन सब बातों का असर हमारी फिल्मों के विषयों, विषय-वस्तु और दिखने के तरीके पर भी पड़ा और पड़ेगा. ‘डॉन-2’, ‘रा.वन’ और अब्बास मुस्तान की आने वाली फिल्म ‘प्लेयर्स’ अगर देखें तो इनमें सांवली (जो दिन-ब-दिन सफेद होती जा रही है) त्वचा वाले कुछ दमकते अभिनेता-अभिनेत्रियां दिखते हैं और बाकी सब कुछ एक हॉलीवुड फिल्म सा होता है. हां, ये जरूर है कि क्वालिटी के मामले में ये फिल्में हिंदी फिल्मों को ही आगे ले जा या बढ़ा रही हैं, पर इसका असर विषय-वस्तु पर भी तो घोर रूप से पड़ रहा है, उसमें भारत का प्रतिनिधित्व भी तो बड़ी बेरहमी से घट रहा है, भारत की कहानियां भी तो नहीं सुनाई जा रही हैं. ‘मौसम’ में पंकज कपूर हमें कुछ 25-30 मिनट असली पंजाब दिखाते हैं, फिर स्विट्जरलैंड और स्कॉटलैंड ले ही जाते हैं.
 
बात अच्छे बदलावों की करें तो उक्त आह्लादकारी फिल्मों के अलावा कुछेक और बिंदु भी रहे. ‘धोबी घाट’ और ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ कुछ यूरोपियन फिल्ममेकिंग के अंदाज में बनी. इनमें रात को चूहे मारता बिहारी मूल का मुन्ना हो या मसाज पार्लर में ग्राहकों को हजार-हजार रुपये में शेक देती रुथ, दोनों ही शॉकिंग थे. पर टेक्नीकली ये फिल्में विकल्प लाईं. फिल्में बनाने वालों के बीच नया व्याकरण लाईं. ‘शैतान’ में जगह-जगह स्लो मोशन में होती एक तेज फिल्म को देखना दुर्लभ था. जब फिल्म के चारों-पांचों युवाओं की पीली बड़ी सी गाड़ी भयंकर गति और म्यूजिक में दौड़ने के बाद एक झटके से दीवार में जा भिड़ती है, तो उस वक्त जो शून्य कानों में बहरापन भरता है, वो देखें। या फिर पृष्ठभूमि में ‘हवा हवाई…’ गाने के साथ स्लो मोशन में एक ईमारत की छत पर दौड़ते ये सब युवा और फिर गाड़ी में कूदते हुए. ये सब बेहतरीन प्रयोग थे. ‘रॉकस्टार’ में भी सांकेतिक पल थे. पानी के टब में जॉर्डन बैठा है और टब के ठीक ऊपर लटका गिटार जल रहा है. ये स्थिर तस्वीर सा सीन हो या स्लो मोशन में अपनी लंबी-काली सी गाड़ी में से बाहर निकलते हुए उसका रेड कारपेट पर उल्टी करना… ये सब फिल्म देखने में आए नई तरह के पल थे, प्रयोगी सिनेमा जैसे. 
 
‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ में बार्सेलोना के कार्लोस केटेलन का छायांकन उम्दा और प्रयोगी था। समंदर के गहरे पानी में ऋतिक रोशन के किरदार अर्जुन का जिंदगी के अमरत्व भरे पलों को महसूस करना या तीनों दोस्तों का एक खुली आसमानी कार में धीमे ठहराव में चलते चले जाना… ये कुछ ऐसे भाव तो जो हूबहू हमने महसूस किए. कुछ ऐसा ही फोटोग्रफी के अलग एंगल वाला गैर-भारतीय नजरिया ‘देल्ही बैली’ और ‘डॉन-2’ में सिनेमेटोग्रफर जेसन वेस्ट ने दिया। ‘रॉकस्टार’ में कुछ बेहद खूबसूरत भावभरे एब्सट्रैक्ट पल अनिल मेहता के कैमरे ने दिए. मसलन, कश्मीर में बर्फीली खाई के मुहाने पर एक घने पेड़ के पास खड़े संगीतमय हीर और जनार्दन का वह पल, जब कैमरा उनसे दूर होता जाता है और दृश्य विहंगम होता जाता है. ‘मौसम’ के प्रोमो में जो महाकाव्यात्मक फ्रेम खिंच रहा था और जो बहुत जगहों पर फिल्म में नजर भी आया, उसके कारीगर थे सिनेमेटोग्रफर बिनोद प्रधान. ‘जाने भी दो यारों’, ‘परिंदा’, ‘नरसिम्हा’, ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’, ‘रंग दे बसंती’ और ‘1942-ए लव स्टोरी’ वाले. 
 
‘रॉकस्टार’ में ही ए.आर.रहमान ने साल का श्रेष्ठ संगीत दिया. ‘कतिया करूं…’, ‘कुन फाया कुन…’, ‘नादां परिंदे…’, ‘साड्डा हक…’, ‘हव्वा हव्वा…’, ‘मेरी बेबसी का बयान है…’, ‘तुम हो पास मेरे…’, ‘तुम को पा ही लिया मैंने यूं…’, ‘फिर से उड़ चला…’, एक-एक गाने ने फिल्म की आत्मा रची. एक-एक गाने ने. इरशाद कामिल की कलम में श्रेष्ठ निकला. ‘द डिक्टॉमी ऑफ फेम…’, और ‘टैंगो फॉर ताज…’ की धुनें भी रहमान की सुराही से सुमधुर निकलीं. इसके बाद ‘शोर इन द सिटी’ में सचिन-जिगर की जोड़ी का संगीत बेहतरीन रहा. ‘सांवरे…’ और ‘सायबो…’ को बार-बार गुनगुनाया जा सकता है. दीर्घजीवी संगीत की श्रेणी में. वहीं ‘कर्मा इज अ बिच…’ फिल्म की शुरुआती धुकधुकी सटीक तरह से शुरू करता है. ऐसी ही एक और बेहतरीन शुरुआती धुकधुकी ‘द डर्टी पिक्चर’ में तमिल गाना ‘रे नक्क मुका नक्क मुका…’ देता है. ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में साल का पहला बहुत अच्छा म्यूजिक एलबम दिया अमित त्रिवेदी ने. ‘एतबार…’, ‘ये पल…’, और ‘दुआ…’ लंबी उम्र वाले गाने हैं. वहीं ‘द द द दिल्ली दिल्ली…’ और ‘आली रे…’ फिल्म और किरदारों की थीम में तात्कालिक तौर पर उपयुक्त थे. ‘मौसम’ में लब फिर से इरशाद कामिल की कलम से निकले थे. ‘पूरे से जरा सा कम है…’, ‘आग लगे उस आग को…’ और ‘तेरा शहर जो पीछे छूट रहा, कुछ अंदर-अंदर टूट रहा…’ कमाल के गीत थे. बड़े उम्दा. संगीत में प्रीतम का लोकरुचिमय हाथ लगा था. ‘तनु वेड्स मनु’ में राजशेखर ने साल के अच्छे गानों में से एक लिखा. ‘ऐ रंगरेज मेरे, ये बात बता रंगरेज मेरे, ये कौन से पाणी में तूने कौन सा रंग घोला है कि दिल बन गया सौदाई, मेरा बसंती चोला है.’ कृष्ना के संगीत वाला दूसरा गाना ‘मन्नू भैय्या का करिहे…’ भी उत्तर के लोकगीतों का कुछ अंश ले आया. ‘शैतान’ का संगीत भी संपूर्ण था. रणजीत बारोट का ‘पितान्या…’ ‘जिंदगी…’ और प्रशांत पिल्लई के संगीत वाला ‘नशा…’, ‘ओ यारा…’ और ‘फरीदा…’ सब ऐसे गाने थे कि कभी भी लगाकर सुने जा सकते हैं. इनमें लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का सुमन श्रीधर का गाया ‘कहते हैं मुझको हवा हवाई…’ सबसे आसानी से जेहन में घुसने वाला गीत था, फिल्म के उस सीन में भी बिल्कुल फिट.
 
ये कुछ चेहरे हैं जो बीते साल में उल्लेखनीय हैं. ‘तनु वेड्स मनु’ के बेमिसाल अतिसाधारण पप्पी (दीपक डोबरियाल). ‘देल्ही बैली’ के सही अंग्रेजी बोल सकने वाले गंभीर मिजाज के गैंगस्टर सोमयाजुलु (विजयराज). ‘नो वन किल्ड जेसिका’ के अच्छे दिल के कुछ बुरे इंस्पेक्टर एन.के. (राजेश शर्मा). फिल्म में रिमांड रूम में मनीष भारद्वाज (मोहम्मद जीशान अयूब) और उनका ये धाकड़ डायलॉग “…सर, सर गुस्सा आ गया था मुझे. हजार रुपये तक देणे के लिए तैयार था मैं, वो फिर भी ड्रिंक्स देणे के लिए मना कर रही थी सर. …फिर. फिर मैंने पिस्टल निकाल ली.” इसी फिल्म से छेड़खानी कर रहे लड़कों को गालियां निकालकर भगाती जेसिका (माइरा). ‘रॉकस्टार’ के असल अंकलजी टाइप कैंटीन वाले खटाना भाई (कुमुद मिश्रा). मां के हाथ की बुनी स्वेटर पहने दिल तुड़वाने के लिए आतुर जनार्दन (रणबीर कपूर), जो कहता है कि “मेरे तो अभी मां-बाप भी जिंदा है.” ‘ये साली जिंदगी’ के मेहता (सौरभ शुक्ला) और उनका ये डायलॉग “…रे घुस गी ना पुराणी दिल्ली अंदर और आ गे ना प्रैण भार.” इसी फिल्म की अपने बच्चे को अकेले पालती गुस्सैल शांति (अदिति राव हैदरी). ‘सात खून माफ’ के सनकी शायर मोहम्मद वसीउल्ला खान उर्फ मुसाफिर (इरफान खान). ‘बोल’ के कट्टर, मजबूर और बेरहम हकीम साहब (मंजर सेहबई). इसी फिल्म के कंजर साका (शफकत चीमा) और मीनाकुमारी सी अदाओं वाली चौंकाती तवायफ मीना (इमान अली). ‘चिल्लर पार्टी’ का हंसाऊ जांगिया (नमन जैन, जो ‘मदर इंडिया’ के छोटे बिरजू मास्टर साजिद खान की याद दिलाते हैं). ‘शोर इन द सिटी’ का हमेशा मूर्खता कर बैठने वाला मंडूक (पित्तोबाश त्रिपाठी, ‘आई एम कलाम’ का लिप्टन भी). ‘मौसम’ में आयत के अब्बू (कमल चोपड़ा). भरी दुपहरी में आयत और फूफी को सामान समेत ऑटो में ले जाता गुलजारी (मनोज पाहवा). हरिंदर को मन ही मन चाहती रज्जो (अदिति शर्मा). ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ में “सब कुछ हो जाएगा” छाप शादी अरेंजर (बृजेंद्र काला). ‘मोड़’ में अरण्या से “मैं तुम्हें ना बोलने की सजा दूंगा” जैसा हिला देने वाला डायलॉग बोलता गंगाराम (निखिल रत्नपारखी). ‘तीन थे भाई’ का पिता समान भाई से डरता दांतों का डॉक्टर हैप्पी गिल (दीपक डोबरियाल). ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’ का भोला सा छोरा बबलू (रणदीप हुड्डा) जो बाद में हालातों में फंसता ये गाता है, ‘मैं एक भंवरा छोटे बागीचे का मैंने ये क्या कर डाला.’ ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स” की वो फोन से चिपकी रहने वाली हम जैसी ही इंसान (पूजा सरूप). इसी फिल्म के हैरतअंगेज से आकांक्षी गैंगस्टर चितियप्पा गौड़ा (गुलशन दैवय्या). अपने-अपने बुरे किरदारों के साथ ‘फोर्स’ में विद्युत जमवाल (विष्णु, एक छरहरा और आपके हल्क जैसे फिल्म के हीरो एसीपी यशवर्धन को नाकों चने चबवाता अपराधी) और ‘मर्डर-2’ में प्रशांत नारायणन (धीरज पांडे, मानसिक रूप से अस्वस्थ कातिल) ने भी काबिल काम किया.
 
इसी के साथ अपनी बातों के अंत पर आता हूं. अपने दर्शकों और फिल्मकारों दोनों को ही जरा ये समझना होगा कि मनोरंजन सीरिंज में भरी एक्सटसी की तरह नसों में घोंपा जाए या डोडा पोस्त की तरह हमाम दस्ते में कूट पानी के साथ फाक लिया जाए, हमें और हमारे समाज दोनों को नशे में ही बनाए रखता है, एक-दूसरे के प्रति स्वार्थी बनाता है, हिंसक बनाता है और मॉडर्न किस्म का पशु बनाता है. वर्ष 2011 में अपनी फिल्मों की एक और प्रवृति मुझे खटकी. यूथ की भाषा या आज की आम बोलचाल की भाषा या बी प्रैक्टिकल के नाम पर हम फिल्म लेखन में स्व-निर्णय की आचार संहिता से बहुत दूर जाते दिखे. सब कुछ कॉमेडी सर्कस का द्विअर्थी और गैर-जिम्मेदारी भरा मंच सा था. ‘डेल्ही बैली’ की पटकथा लॉस एंजेल्स से पढ़े अक्षत वर्मा ने अमेरिकन एडल्ट सेंस ऑफ ह्यूमर वाले अंदाज में लिखी, भारतीय मायनों में फिल्म लेखन की आचार संहिता को लांघते हुए। तभी तो उनके लिए फिल्म के फोटोग्रफर किरदार नितिन का एक अधेड़ वेश्या के वक्ष को दबाकर निकलना या गैंगस्टर सोमयाजुलु की मेज पर हीरों की जगह विष्ठा का फैल जाना गैर-जरूरी नहीं था। लेखनी में शामिल हो रहे ये तौर-तरीके दीर्घकालिक नुकसान करेंगे। ‘रॉकस्टार’ (रणबीर की गुस्से में उभरती मध्यमा), ‘डेल्ही बैली’ (अनगिनत बार फ* बोला जाना और न जाने क्या क्या), ‘नो वन किल्ड जेसिका’ (रानी का तो गां* फटकर हाथ में आ जाती कहना), ‘देसी बॉयज’ (डेविड धवन के बेटे रोहित ने मर्द वेश्या विषय और सस्ते इशारों का कमर्शियल सिनेमा के बहाने खूब इस्तेमाल किया) और ‘प्लेयर्स’ (सोनम कपूर मध्यमा दिखाती हुईं) कुछेक मिसाल हैं। ‘ये साली जिंदगी’ भी इसी सूची में आती, गर उसमें सबकुछ फिल्म के ईमानदार संदर्भ में न होता। इन सब फिल्मों और इस भाषा के पक्ष में तर्क कई होंगे, कोई दोराय नहीं, मगर ये सब न भी होता तो दुनिया खत्म न होती थी. फिल्ममेकिंग में गुणवत्ता और मनोरंजन गायब न होता था. कहीं दर्शकों से कोई कम्युनिकेशन रुकता न था. पर ये दोयम दर्जे की भाषा आई. ठसक के साथ आई. सफर दूर का हो तो दिशा का कोण अक्क्षुण और एकदम सटीक रखकर शुरू करना बहुत जरूरी होता है. जरा सा कोण हमने गलत चुना तो हर अगले कदम के साथ हम अपने लक्ष्य से कुछ फुट, कुछ मीटर, कुछ मील दूर होते जाते हैं और एक दिन वहां पहुंच जाते हैं जहां से फिर वही सफर शुरू करना पड़ता है, इस सोच के साथ कि काश इस बार कोण ठीक बन जाए.

Continue Reading

Previous The great personalities we lost in year 2011
Next नए बरस के मुहाने पर खड़े जनसंघर्षों को समर्पित एक कविता

More Stories

  • Arts And Aesthetics
  • Featured

मैं प्रेम में भरोसा करती हूं. इस पागल दुनिया में इससे अधिक और क्या मायने रखता है?

6 years ago PRATIRODH BUREAU
  • Arts And Aesthetics

युवा मशालों के जल्से में गूंज रहा है यह ऐलान

6 years ago Cheema Sahab
  • Arts And Aesthetics
  • Featured
  • Politics & Society

CAA: Protesters Cheered On By Actors, Artists & Singers

6 years ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • A New World Order Is Here And This Is What It Looks Like
  • 11 Yrs After Fatal Floods, Kashmir Is Hit Again And Remains Unprepared
  • A Beloved ‘Tree Of Life’ Is Vanishing From An Already Scarce Desert
  • Congress Labels PM Modi’s Ode To RSS Chief Bhagwat ‘Over-The-Top’
  • Renewable Energy Promotion Boosts Learning In Remote Island Schools
  • Are Cloudbursts A Scapegoat For Floods?
  • ‘Natural Partners’, Really? Congress Questions PM Modi’s Remark
  • This Hardy Desert Fruit Faces Threats, Putting Women’s Incomes At Risk
  • Lives, Homes And Crops Lost As Punjab Faces The Worst Flood In Decades
  • Nepal Unrest: Warning Signals From Gen-Z To Netas And ‘Nepo Kids’
  • Explained: The Tangle Of Biodiversity Credits
  • The Dark Side Of Bright Lights In India
  • Great Nicobar Project A “Grave Misadventure”: Sonia Gandhi
  • Tiny Himalayan Glacial Lakes Pose Unexpected Flooding Threats
  • Hashtags Hurt, Hashtags Heal Too
  • 11 Years Of Neglect Turning MGNREGA Lifeless: Congress Warns Govt
  • HP Flood Control Plans Could Open Doors To Unregulated Mining
  • Green Credit Rules Tweaked To Favour Canopy Cover, Remove Trade Provision
  • Cong Decries GST Overhaul, Seeks 5-Yr Lifeline For States’ Revenues
  • Behind The Shimmer, The Toxic Story Of Mica And Forever Chemicals

Search

Main Links

  • Home
  • Newswires
  • Politics & Society
  • The New Feudals
  • World View
  • Arts And Aesthetics
  • For The Record
  • About Us

Related Stroy

  • Featured

A New World Order Is Here And This Is What It Looks Like

2 days ago Pratirodh Bureau
  • Featured

11 Yrs After Fatal Floods, Kashmir Is Hit Again And Remains Unprepared

2 days ago Pratirodh Bureau
  • Featured

A Beloved ‘Tree Of Life’ Is Vanishing From An Already Scarce Desert

2 days ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Congress Labels PM Modi’s Ode To RSS Chief Bhagwat ‘Over-The-Top’

3 days ago Pratirodh Bureau
  • Featured

Renewable Energy Promotion Boosts Learning In Remote Island Schools

3 days ago Pratirodh Bureau

Recent Posts

  • A New World Order Is Here And This Is What It Looks Like
  • 11 Yrs After Fatal Floods, Kashmir Is Hit Again And Remains Unprepared
  • A Beloved ‘Tree Of Life’ Is Vanishing From An Already Scarce Desert
  • Congress Labels PM Modi’s Ode To RSS Chief Bhagwat ‘Over-The-Top’
  • Renewable Energy Promotion Boosts Learning In Remote Island Schools
Copyright © All rights reserved. | CoverNews by AF themes.