वॉल स्ट्रीट की घेरेबंदी पर खामोश क्यों?
Sep 27, 2011 | Pratirodh Bureauअमरीका में वॉल स्ट्रीट पर हज़ारों का जमावड़ा है. सबकुछ बंद… घेरेबंदी. मजदूरों, कामगारों, बेरोज़गारों, युवाओं और विद्यार्थियों की टोलियां अपने साजो-सामान के साथ वहाँ घेरेबंदी करके बैठी हैं.
पर सरकार खामोश है. मीडिया खामोश है. ज़िम्मेदारी की, नैतिकता की, सभ्य होने की, विकसित होने की, न्यायप्रिय होने की और मानवाधिकारों की दुहाई देने वालों की आंखें बंद हैं. मुख्यधारा का अंतरराष्ट्रीय मीडिया इस घेरेबंदी के सामने खड़ा है और आंखों पर पट्टी बांध रखी है.
टाइगर वुड्स की प्रेमिकाओँ और पेरिस हिल्टन के कुत्ते का पीछा करती रहने वाली मीडिया, उन्हें प्राइम टाइम में प्रसारित करने वाला भारतीय मीडिया जगत, सब के सब खामोश.
पुलिस इन प्रदर्शनकारियों के प्रति बर्बरता से पेश आ रही है. इनके साथ कड़ाई से निपटने का क्रम जारी है. वॉल स्ट्रीट की ओर बढ़ रहे 80 लोगों को हिरासत में भी ले लिया गया है.
तो भला ऐसा क्या हो रहा है वॉल स्ट्रीट पर. क्यों आए हैं ये लोग. क्या कहना चाहते हैं. क्या मांग है इनकी. किसके खिलाफ खड़े हैं ये… जनमाध्यम इस बारे में बात नहीं करना चाहते.
ये वो लोग हैं जो अमरीका की आज की पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं. जो अमरीका के वर्तमान की पीढ़ी हैं. जो स्कूलों में पढ़ें हैं, कॉलेजों से प्रशिक्षण लेकर ज़िंदगी की आसानियों की खातिर रोज़गार खोज रहे हैं और काम उनसे कोसों दूर है.
ये उन युवाओं की पीढ़ी है जो एक बार अपनी किताबों, डिग्रियों की ओर देखते हैं और फिर दूर तक नौकरियों का नामो-निशा खोजने की हसरत से नज़रें उठाते हैं और मिलता है सिर्फ अंधेरा, नाउम्मीदी और धोखा.
ये श्रमिक वर्ग या नए मध्यवर्ग के वे विद्यार्थी हैं जिन्होंने अमरीका के लिए खड़े होने की तैयारी की है और जिन्हें अमरीका की सरकार खड़ा नहीं होने दे रही है.
इसी महीने के मध्य में ऐसे सैकड़ों लाचार, नाउम्मीद और शोषित हो रहे लोगों ने तय किया कि वॉल स्ट्रीट को घेरा जाए और वहाँ कब्ज़ा करके सरकार को उनकी बातें सुनने के लिए विवश किया जाए.
वॉल स्ट्रीट की यह लड़ाई एक सप्ताह बाद केवल वॉल स्ट्रीट तक सिमटी नहीं रह गई है. दायरा तेज़ी से फैल रहा है और अमरीका के कई बड़े शहरों में सरकार को आइना दिखाने के लिए हज़ारों लोगों ने सड़कों पर उतरना और घेरेबंदी का क्रम शुरू कर दिया है.
वर्ष 2008 में जब आर्थिक मंदी ने अमरीका और यूरोप को अपनी चपेट में लिया था तो बड़े-बड़े वादे किए गए थे कि देश को फिर से आर्थिक मंदी की मार से रूबरू होने की नौबत नहीं आने देंगे.
कहा गया था कि सुधारों के लिए नीतियों के स्तर से लेकर अनुपालन तक कई अहम फैसले लिए जाएंगे जिससे कि एक मज़बूत अर्थव्यवस्था और इस ज़रिए आर्थिक-सामाजिक रूप से अधिक सुरक्षित अमरीका को खड़ा करने का काम किया जाएगा.
पर 2008 में जो सबसे अहम सवाल थे, उन्हें दरकिनार कर सरकार लीपापोती और कॉर्पोरेट माफियाओं के ख़ैर-ओ-करार में ही मशगूल रही. नतीजा यह है कि अमरीका रोज़गार पैदा करना तो दूर, बचे हुए रोज़गारों की गिरती संख्या को भी नियंत्रित नहीं कर पा रहा है. काम का संकट और रोज़गारों की अनुपलब्धता इतना बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है पर सरकार इस ओर न तो कोई दृढ़ इच्छाशक्ति दिखा पा रही है और न ही किसी बदलाव के लिए तैयार दिखाई देती है.
मंदी से देश को निकालने की कोशिशों के लिए जो भी प्रयास आदेशों या पैकेजों के तौर पर सामने आए हैं उनका लाभ मोटे अफसरों को और कॉर्पोरेट मालिकों को ज़्यादा हुआ है, आमजन को कम.
इसका असर अमरीका में दिखने लगा है. पीप रिस रहा है और ओबामा इसे छिपा पाने की स्थिति में नहीं दिखते. बिना किसी बड़ी राजनीतिक तैयारी के अमरीका के कुछ वर्गों के लोग निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं और सरकार से सवाल कर रहे हैं.
सवालों के पीछे की भाषा एक नहीं है, सवालों का मसौदा एक नहीं है. राजनीतिक पहलू एक नहीं है. विचारधारा और राजनीतिक विकल्प एक नहीं है पर एक चीज़ स्पष्ट है कि लोग सरकार से जवाबदेही और पारदर्शिता मांग रहे हैं. लोग सरकार से पूछना चाहते हैं कि उसकी वैधता क्या है. वे क्यों एक ऐसी सरकार पर विश्वास करें जो लोगों को केवल सपने बेंच रही है और उनकी तकलीफों को कम करने के बजाय और बढ़ाती जा रही है.
यह सवाल यूरोप के कई देशों में सिर उठाता दिख रहा है. स्पेन और ग्रीस इसके उदाहरण हैं. यही विद्रोह अब अमरीका की सड़कों पर है. और एक सवाल जो सारी बातों के मूल में है, वो यह है कि आपके पूंजीवाद को हम क्या समझें… छल, झूठ और साजिश?
तीन दशकों के एक छलावे को सपनों की परी कथा की तरह दुनियाभर में बेंचने का काम होता रहा पर अब इसके सपनों को तोड़कर जागने का दौर खुद अमरीका में शुरू हो चुका है. अमरीका, जो इन झूठे सपनों की काकी है. जिसने भोर की हर गुंजाइशों को सिर्फ लिहाफ से ढककर उन्हें रात करार देते रहने का काम किया है.
वॉल स्ट्रीट से लेकर अमरीका के बाकी हिस्सों में शुरू हुआ लोगों का यह संघर्ष अपने तरह की एक अहम लड़ाई की शुरुआत है. जिसकी वजह 30 बरसों का पूंजीवादी षडयंत्र है और जिस संघर्ष की नींव सितंबर, 2008 में पड़ गई थी.
अमरीका के इन लोगों का संघर्ष अगर उन सारे सवालों पर अमरीकी सरकार और नियंताओं को घेर पाती है और वे फैसले लेने के लिए विवश कर पाती है जो आम लोगों के और दुनिया के हित में तो हैं पर उन्हें जानबूझकर 2008 की मंदी के बाद भी दरकिनार रखा गया है, तो यकीन मानिए, यह एक बहुत अहम जीत होगी और इसका लाभ दुनियाभर में दिखाई दे सकता है.