हॉकी से सीची ज़मीन पर जब सरकारी और भ्रष्ट होने का आरोप लग रहा था, निजीकरण की काठ के बने रथ पर बैठकर नवउदारवाद के उदय के साथ सचिन नाम के कल्कि अवतार का प्रादुर्भाव हुआ. धुंधराले केश, मुंबइकर का ठप्पा (उन दिनों क्रिकेट के लिए कोई कर टाइटल या मराठी होना आईएएस परीक्षा में स्टीफ़ेनियन होने जैसा था), अच्छा प्रदर्शन और प्रदर्शन का दर्शन कराता टीवी, जिसकी पीठ पर सवार था बाज़ार. कुछ ऐसी पृष्ठभूमि में और तैयारियों, साजिशों के बीच क्रिकेटर सचिन पैदा भए.
मेरे पिताजी अंतर-राज्यीय स्तर तक हॉकी खेले थे. अलहाबाद में बैडमिंटन में भी इन लोगों का रुतबा था. बताते थे कि कैसे किरमिच का सफेद जूता और सफेद शर्ट- हाफ़पैंट में खेल होता था. हम भी किरमिचिए खिलाड़ी ही थे. तब मोटे तल्ले के जूते मैदान तो दूर, शादियों में पहनकर जाने के लिए भी नहीं होते थे. तब भी, जब सुनील शेट्टी, संजू और जैकी दादा एक्शन का जूता पहनकर सिनेमा में नाचते थे. हमारी मां राज्यस्तर की कबड्डी और खो-खो खिलाड़ी थीं. पेले, मैराडोना और ध्यानचंद के किस्से पिताजी से ही सुने. मैराडोना को खेलते देख रोंगटे खड़े हो जाते थे. चप्पल की निशानदेही से तैयार गोल में नंगे पैर फ़ुटबॉल खेलते हुए कई बार अंगूठे के नाखून को लहूलुहान किया. मैं मैराडोना के प्रिंट वाली बंडी पहनकर फ़ुटबॉल खेला करता था. लेकिन धीरे-धीरे मोहल्ले के सारे क्लास के सारे साथी बल्ले खरीदने लगे. ये आरबीएम का बैट है. ये ऑयल वाला है. ये चार सिलाई वाली लेदर बॉल है. ऐसे चीन्हते-पहचानते हम भी क्रिकेट के मैदान में पहुंच गए. एक फटी हुई काली-सफ़ेद षटकोणों वाली फ़ुटबॉल आज भी घर की दुछत्ती में पड़ी है.
जिस दिन (प्रायः रविवार) सुबह छह बजे का मैच होता था, साढ़े चार बजे भोर से ही पांच गायों का गोबर फेंककर, सानी-पानी करके और घर का झाड़ू-पोछा करके, दूध काढ़कर हम बिना नाश्ता किए तो कभी भीगा चना चबाते मैदान में पहुंच जाते थे. ईंटों का स्टंपों से भी उंचा विकेट हमेशा कांपता रहता था लेकिन सीसम के बल्ले के हत्थे पर चढ़े साइकिल के ट्यूब से लेदर की फॉस्ट बॉल खेलते हुए भी हाथ कांपा नहीं. अक्सर मुक़ाबला फ़िरोज़ गांधी कॉलोनी के उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों के सचिनों से होता था. उनके पास ग्लब्स थे, पैड थे, ऊ स्थानविशेष पर जो लगाते हैं, वो भी था. हाथ में कवच, पैर में कवच, सिर और चेहरे पर कवच, मज़बूत जूते और जूस की बोतलें. इन ब्रांडेड लोगों की टीम हम और हमारे साथियों से शायद ही कभी जीती हो. हम, जिनकी टीम में साइकिल पंचर जोड़ने वाले, चौकीदार के बेटे, पीडब्ल्युडी के ड्राइवरों के लड़के, फटियल-मरियल सब थे. चप्पल निकलकर कहीं होती थी पर रन लेने में चूकते नहीं थे. कसम से, लगान देखी थी तो हॉल में ही मन भर रोए थे.
लेकिन यह समझते वक्त लगा कि हम बाज़ार के सजे-रचे खेल में फंसे थे. लगान भी उसी खेल का हिस्सा थी. मैच आता था तो दिनभर पड़ोस के घर में देहलीज के पास तो कभी चारपाई पर कोना खोजकर स्कोर और खेल पर नज़र. क्रिकेट देखते-देखते ही कोक-पेप्सी पहचान गए. फ्रूटी-हॉरलिक्स को देखा. 1996 था शायद. मां से मार पड़नी थी क्योंकि रात काफी हो चुकी थी लेकिन हम जीतने के लिए मार खाने को तैयार थे. कलकत्ते में सेमीफ़ाइनल था. कांबली रो रहा था. अज़हर को गालियां पड़ रही थीं. 42 ओवर पर भारत ने हार स्वीकार कर ली थी. उस मैच में जिसमें पहले बल्लेबाज़ी करने वाली श्रीलंका की टीम के दो विकेट पहली सात गेंदों पर गिर गए थे. ग़लत कह रहा हूं तो क्षमा कीजिएगा. उसी दिन से क्रिकेट और हम नदी के दो किनारे हो गए. बल्ला चूल्हे में जला दिया. बढ़ई से बनवाए तीन स्टंपों में से एक टूट चुका था. एक न जाने कहाँ गया. एक को बछिया बांधने के लिए खुंटा बना दिया. वर्ष 2000 में बीएचयू में जब पूरा हॉस्टल कॉमन रूम में क्रिकेट देखता था, हम ठंडई पीकर ग़ुलाम अली और गिरजा देवी को सुनते थे. तबतक क्रिकेट सुरसा का मुंह हो चुका था. जितना समझो, उससे ज़्यादा खुला और निगलता हुआ. दरअसल यह क्रिकेट नहीं, बाज़ार का मुंह था. और सचिन इसकी ज़बान थे. वानखेड़े में सुना न…. सच्चिन, सच्चिन, सच्चिन. एक दिन में नहीं बना यह कौमी तराना. सचिन भी खा रहे थे, बाज़ार भी खा रहा था. लोग भूखे, प्यासे, दर्द और बेबसी में भी दिनभर क्रिकेट के सहारे ग़म ग़लत कर रहे थे. पद याद आ गया देखिए- मइया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों. थाली का चांद था क्रिकेट.
इसके बाद बहुत कुछ हुआ. कहने से एक किताब बन सकती है. बनाने की फिलहाल तबीयत नहीं. 16 नवंबर, 2013 पर आते हैं. सचिन का भाषण. वानखेड़े से. कुछ लाइनें रुक गईं जेहन के भीतर. भावुक हूं वट आई विल मैनेज. फिर- 24 इयर्स आई प्लेड फॉर इंडिया. फिर- माई फर्स्ट मैनेजर, मार्क- माई करंट मैनेजमेंट टीम- माई मैनेजर विनोद नायडू. मीडिया. 24 साल से मैनेज ही तो कर रहे हो सचिन. वरना देश के लिए खेलते वाले कितने आए और चले गए. कितनों को स्टेडियम की दर्शक दीर्घा तक नसीब नहीं हुई. तुमको मैनेज करना आता है. तुम्हारे पास मैनेजर भी थे. मीडिया भी, मुकेश (अंबानी) भी. प्लेयिंग फॉर इंडिया… वाकई. मुझे तो सदा लगा कि तुम ही तो हो जो केवल खुद के लिए खेलता है. खुद के लिए खेलने में बुराई नहीं. पर इंडिया को मत लपेटो. तुमसे और लता ताई से इसीलिए चिढ़ होती है. इंडिया को डांडिया बनाना बंद करो. संबोधन में मामला करीबियों का था. करीबियों को याद करने के लिए लिस्ट की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन समझ सकता हूं, भावुकता में कुछ चीज़ें छूट सकती थीं. इसलिए लिस्ट लाए, अच्छा किया. कोई बुराई भी नहीं. फिर लिस्ट खुली और परिवार, कोच, डॉक्टर, सौरभ, राहुल. अरे, वो दलित याद नहीं आया जिसके साथ अपने जीवन की सबसे बेहतरीन पारियां खेलीं. वही काला. तुम्हारा तब का दोस्त जब बल्ला टांगों से बड़ा था तुम्हारा. विनोद कांबली. ज़िक्र तक नहीं.
पिछले दिनों एक फ़िल्म देखी थी. फरारी की सवारी. तुम्हारी ही कार की कथा थी. ये बताओ, ये टैक्स की चोरी भी इंडिया के लिए की थी क्या. लता ताई को पुल नहीं मांगता, तुमको टैक्स देना नहीं मांगता. मांगता तो बस भारत रत्न. आई शपथ, लाज न आई तुमको. ई क्रिकेट के महान भगवान, यह नास्तिक (ईश्वर और क्रिकेट के प्रति समान भाव से) तुमसे क्या कह सकता है और तुम क्योंकर सुनोगे लेकिन जो इंसान देश के बच्चों को कभी इतना सा सच भी नहीं बता पाया कि दूध और स्वच्छ जल सेहत का रहस्य हैं, ज़हरीले कोक और पेप्सी नहीं, वो किस हक़ से भारत के लिए खेलने का दावा करता है, भारत रत्न का हकदार हो सकता है. टैक्स की चोरी, विज्ञापनों के लिए लपलपाती जीभ, सौम्यता के खोल में प्रतिभा को शिषंडी बनाकर बाज़ार के लिए रास्ता बनाने वाले योद्धा, अपने लिए क्रिकेट खेलने के अलावा तुमने देश को क्या दिया. देश की छोड़ो, देश विल मैनेज.
कब से राह देखते-देखते आखिरकार थक-हारकर सचिन का अलविदा हो गया. मनमोहन का भी हो ही जाएगा, लगता है. लेकिन इस नवउदारवाद का भी अलविदा हो जाए तो वो तुम्हारी, तुम्हारे दौर की सच्ची विदाई होगी. ऐसा हो पाया तो तुम्हें विदाई का अभिवादन ज़रूर दूंगा सचिन.
(ध्यानचंद भारत के लिए खेले. लेकिन ध्यानचंद का खेल केवल भारत के लिए नहीं था, खेल भावना के लिए था, टीम के लिए था हॉकी के लिए, उसके दर्शकों और प्रशंसकों के लिए था. हॉकी केवल भारत की बपौती नहीं. इसलिए भारत रत्न ध्यानचंद जैसे विश्व विजेता के लिए छोटा सम्मान है.)
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