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देश का प्रधानमंत्री क्या होता है?

Sep 10, 2014 | Anjani Kumar

कुमार विश्वाोस और शशि थरूर जैसे लोग और उनकी ही जैसी पत्रकारिता में भिड़े हुए बहुत सारे महानुभावों के लिए मोदी एक पार्टी के नेतृत्व में चुने गए प्रधानमंत्री नहीं बल्कि ‘देश के प्रधानमंत्री हैं’. यह निहित स्वार्थों को पवित्र बना देने की कला है जिसमें कॉर्पोरेट घरानों से लेकर भाजपा के मोहल्ला कार्यालयों तक सब शामिल हो गए हैं.

सत्ता के खेल में जनता का हाल क्या हो सकता है, इसे हम अपनी समसामयिक राजनीति में देख सकते हैं. लगातार दंगे और दंगों का माहौल बनाकर सत्ता में आने का रास्ता भाजपा और आरएसएस की छुपी हुई रणनीति नहीं रह गई है. अमित शाह खुलेआम बोल रहे हैं कि इस हालात को बनाए रखकर ही उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बन सकती है. दिल्ली में किसी भी तरह से सरकार बना लेने की नीति में विधायकों की खरीद-फरोख्त का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. अब कुमार विश्वास ने ”मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं” कहकर इस खरीद-फरोख्त को एक पुख्ता अंजाम तक ले जाने का रास्ता खोल दिया है.

बहरहाल, मुझे ”मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं” जैसे जुमलों पर ज्यादा चिंता हो रही है. ऐसी ही बात मोदी के प्रधानमंत्री बनने के चंद दिनों बाद शशि थरूर ने कही थी. वहां भी निजी स्वार्थ था. लेकिन इस बात को उछालने में यह आशय निहित होता है कि वे निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर ‘देश’ की बात कर रहे हैं और राजनीतिक छलबंदियों से ऊपर उठकर त्याग की भावना से काम करने को तैयार हैं. इस तरह की बातों का एक माहौल भी है. यह लोगों के बीच एक ‘आम धारणा’ यानी कॉमन-सेंस की तरह काम कर रहा है. कुमार विश्वाोस और शशि थरूर जैसे लोग और उनकी ही जैसी पत्रकारिता में भिड़े हुए बहुत सारे महानुभावों के लिए मोदी एक पार्टी के नेतृत्व में चुने गए प्रधानमंत्री नहीं बल्कि ‘देश के प्रधानमंत्री हैं’. यह निहित स्वार्थों को पवित्र बना देने की कला है जिसमें कॉर्पोरेट घरानों से लेकर भाजपा के मोहल्ला कार्यालयों तक सब शामिल हो गए हैं. इस एजेंडे में देश और देश के लोग, राजनीतिक सिद्धांत और इस देश पर लागू राजनीतिक व्यवस्था को एक किनारे फेंक दिया गया है. संवैधानिक उसूलों का कोई मतलब नहीं रह गया है. संसद, कैबिनेट, पार्टी, आयोग और संस्थान, हित समूह, गैर-पार्टी संस्थान आदि सब कुछ ‘देश के प्रधानमंत्री’ की भेंट चढ़ गए हैं.

भारत जिस लोकतंत्र की व्यवस्था को लेकर चल रहा है उसके तहत संसद में बहुमत साबित करने वाली पार्टी के नेतृत्व में ही प्रधानमंत्री बनता है. इन पार्टियों को बाकायदा मान्यता दी जाती है और प्रधानमंत्री इसी बहुमत वाली पार्टी के तहत काम करता है. संसद में इन पार्टियों के नेतृत्व चुने जाते हैं. विपक्ष का भी एक नेता चुना जाता है. यह प्रधानमंत्री अपनी पार्टी की नीति को संसद में देय कार्यकाल तक कैबिनेट और उसके माध्यम से विविध संस्थानों के माध्यम से चलाता है. इसमें विरोध, अंतर्विरोध, उठापटक आदि निहित है. यह एक पार्टी बनाम अनेक पार्टी की व्यवस्था है जिसके आधार पर देश के लोकतंत्र को महान लोकतंत्र का दर्जा दिया गया. यह अलग बात है कि इस देश में यह व्यवस्था ‘महान एकता’ के नीचे दबकर रही और एक ही पार्टी की तानाशाही का सिलसिला सिर चढ़कर बोलता रहा. इस तानाशाही या फासीवाद को ‘देश’ के नाम पर पवित्र साबित करने का काम अतीत में भी हो चुका है लेकिन अब जो हो रहा है वह पहले से कहीं अधिक खतरनाक है.

बहुत सारे पत्रकार जो मोदी के नेतृत्व में चले चुनाव अभियान के दौरान विरोध का झंडा उठाए हुए थे, अब मोदी को ‘देश का प्रधानमंत्री’ के तौर पर स्वीकार करने की स्थिति में चले गए हैं, मानो यह नियति हो. यह स्वीकार्यता किसी राजनीतिक समझदारी का परिणाम हो ऐसा नहीं दिखता क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह ‘नियति’ है ही नहीं. यह या तो कॉमन-सेंस के चलते हैं या पांच साल तक के लिए रास्ता निकालने का स्वार्थ. भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था के तहत ही संसद में ‘अस्वीकार्यता’ किसी भी प्रधानमंत्री या उसके नेतृत्व की सरकार, यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के न्या’याधीश और राष्ट्रपति तक को उसके पद से हटा देने के लिए लगातार काम करती है. यह ‘अस्वीकार्यता’ ही है जिसके कारण संसद में आने के बाद प्रधानमंत्री को एक बार फिर अपना बहुमत हासिल कर के दिखाना पड़ता है. मोदी जैसे ‘चुने गए’ प्रधानमंत्री को स्वीकार कर लेने का और कोई भी कारण हो सकता है लेकिन कम से कम इस देश में चल रही ‘लोकतांत्रिक पद्धति’ के तहत स्वीकार कर लेना न तो अनिवार्य है और न ही मजबूरी, बल्कि इसे अस्वीकार करना और इस अस्वीकार को लगातार आगे ले जाना ही मोदी जैसे प्रधानमंत्री के कारनामों से बचा पाने में कारगर होगा.

असहमति का सिलसिला जिस दिन रुक जाएगा, उस दिन इस लोकतंत्र के भीतर पल रहा फासीवाद भयावह चेहरे के साथ सामने आएगा. तब देश का प्रधानमंत्री और देश की पार्टी एक दूसरे के पर्याय हो चुके रहेंगे और विरोध, विपक्ष, अस्वीकार्य आदि देशद्रोह का पर्याय हो जाएंगे. चिदम्बरम और मनमोहन सिंह ने इसका सिलसिला शुरू कर दिया था और तब उनका विरोध भी उसी स्तर पर था. मोदी ने उसी परम्परा को और भी बड़े पैमाने पर शुरू किया है, तो विरोध भी उसी स्तर का होना चाहिए. कम से कम ‘मोदी जी’ कहना बंद होना चाहिए और असहमति का स्वर अपने पूरे तर्क के साथ दर्ज होना चाहिए. मोदी सरकार भाजपा नेतृत्व की सरकार है और यह भारत सरकार का पर्याय नहीं है. यह मसला राजनीतिक उसूल का है. इस उसूल को बार-बार दोहराये जाने का है.

(लेखक पत्रकार और संस्कृतिकर्मी हैं. साभार- जनपथ डॉट कॉम)

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