JNU: हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने के प्रस्ताव के विरोध में NEFIS दिया VC को ज्ञापन

Jun 28, 2019 | PRATIRODH BUREAU

नई शिक्षा नीति के तहत हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव के विरोध में नॉर्थ-ईस्ट फोरम फॉर इंटरनेशनल सॉलिडेरिटी (एनईएफआईएस) के कार्यकर्ताओं ने जेएनयू के कुलपति को एक ज्ञापन सौंपा कर इसे तत्काल रद्द करने की मांग की है. ध्यान दें कि, 28 जून को होने वाली अकादमिक परिषद की आगामी बैठक में जेएनयू प्रशासन को हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने के लिए एक एजेंडा प्रस्तावित करना है.

जेएनयू प्रशासन का प्रयास यह स्पष्ट करता है कि भारत में बोली जाने वाली अन्य या भारत के संविधान की 8 वीं अनुसूची द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की तुलना में हिंदी को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.इसलिए वर्तमान प्रस्ताव हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में लागू करने की कोशिश है, जिससे हिंदी भाषी समुदाय को विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले जिनकी भाषा न तो जेएनयू में पढ़ाई जाती है और न ही छात्रों के लिए उन्हें पेश करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं में हिंदी राष्ट्रवाद फैलाया जा सके.

बिना इस बात पर गौर किये कि पूर्वोत्तर और भारत के अन्य हिस्सों के छात्रों को कैसे प्रभावित करेगा 2013 में दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा भी हिंदी/आधुनिक भारतीय भाषाओं को अनिवार्य करने का प्रयास किया गया था.तब केवल एनईएफआईएस के विरोध के बाद उसे वापस लिया गया था.

यह निराशाजनक स्थिति भारत सरकार की ओर से लंबे समय से चली आ रही सीमांत/अल्पसंख्यक समूहों और समुदायों की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और प्रतिष्ठा संरक्षित करने की दिशा में पूर्वाग्रह और उपेक्षा का परिणाम है.

तथ्य यह है कि इतने सारे समुदायों/सीमांत समूहों की भाषाओं को उचित मान्यता कोई आकस्मिक घटना नहीं है. बल्कि यह एक अभिमानी राज्य के ढीठ रवैये का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम है जो एक घमंडी विजेता को सीमांत समूहों/समुदायों की भाषा -संस्कृति पर एक भाषा विशेष थोपने का विकल्प प्रदान करता है. यह दुखद है कि अब विश्वविद्यालय ने भी सांस्कृतिक चवन्नीवाद को बढ़ावा देने में राज्य का अनुसरण करने लगा है.

एनईएफआईएस का मानना ​​है कि विश्वविद्यालयों को आदर्श रूप से प्रगतिशील विचारों का केंद्र होना चाहिए और समाज में पक्षपातपूर्ण घटनाओं को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए.लेकिन दुर्भाग्य से जेएनयू इस उम्मीद पर खरा नहीं उतर पा रहा है. वर्तमान मामले में विशेष रूप से ऐसा है क्योंकि छात्रों पर बहुसंख्यक/प्रमुख समुदाय की भाषाओं को थोपने से विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का न केवल वर्तमान बल्कि यह निर्णय छात्रों को भविष्य में भी प्रभावित करेगा. और इसका असर केवल दिल्ली या उत्तर-भारत से ही नहीं बल्कि देश के सभी हिस्सों के छात्रों पर पड़ेगा.

एनईएफआईएस ने  वीसी को दिए अपने ज्ञापन में कहा है कि इस गंभीर मुद्दे पर गंभीर और विस्तृत बहस के बाद ही समाज के व्यापक वर्गों के साथ विचार-विमर्श किया जाए और हाशिए पर पड़े समूहों एवं समुदायों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया जाए. यह भी मांग की गई है कि हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव को अकादमिक परिषद की बैठक के एजेंडे से तुरंत हटा दिया जाना चाहिए .