दो साल गुज़र गए। 20 अगस्त 2013 को पुलिस ने हेम को बल्लारशाह रेलवे स्टेशन से पकड़ा लेकिन गिरफ्तारी वहां से 300 किलोमीटर दूर अहेरी बस स्टैंड से तीन दिन बाद दिखाई गई। उन्हें पुलिस ने ‘माओवादी कूरियर’ घोषित कर के यूएपीए कानून के तहत नागपुर की कुख्यात अंडा सेल में डाल दिया। इन तीन दिनों में हेम को गढ़चिरौली ले जाया गया। उन्हीं के शब्दों में, ”अगले तीन दिनों तक मुझे क्रूर यातनाएं दी गईं। बाजीराव (जिससे शरीर पर चोट अधिकतम लगती है मगर घाव दिखाई नहीं पड़ते) से मारा गया। पांवों के तलवों में डंडों से मारा गया। लात-घूंसों से मारा गया और हाथों से पूरे शरीर को नोंचा गया। तीन दिनों तक बेहोशी की हालत तक पहुंचाने की हद तक हर रोज़ मुझे मारा जाता था। इन तीन दिनों में एक पल के लिए भी मुझे सोने नहीं दिया गया और 23 अगस्त 2013 को अहेरी थाने के लॉकअप में ला पटका गया। इस तरह वास्तविक गिरफ्तारी के लगभग 80 घंटों के बाद अहेरी के मजिस्ट्रेट कोर्ट में पेश किया गया। अब तक मेरे घर में मुझे पकड़ लिए जाने की सूचना नहीं दी गई थी। जब मैंने कोर्ट में मजिस्ट्रेट को यह बात बताई तब पुलिस को कोर्ट से ही मेरे परिचितों को सूचना देनी पड़ी।”
गिरफ्तारी का नाटक और यातनाओं का दौर यहीं खत्म नहीं हुआ। कोर्ट में पुलिस ने मजिस्ट्रेट से हिरासत की मांग की और कुल 24 दिनों तक हेम को पुलिस हिरासत में रखा गया। ”इस दौरान मुझे अहेरी पुलिस थाने के एक बहुत ही गंदे व बदबू भरे लॉकअप में रखा गया, जहां मुझे केवल जिंदा भर रखने के लिए खाना दिया जाता था। पहले 10 दिनों तक मुझे न तो नहाने दिया गया और न ब्रश करने दिया गया। मेरे कपड़े, ब्रश, पैसे, आईकार्ड आदि गिरफ्तारी के समय ही छीने जा चुके थे। 2 सितम्बर की कोर्ट पेशी के दिन मेरे पिताजी और दोस्तों द्वारा दैनिक जरूरत की ऐसी चीजें दी गईं। पुलिस हिरासत के 24 दिनों में भी महाराष्ट्र पुलिस, एसटीएस, आईबी और दिल्ली, उत्तराखंड, यूपी, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश की इंटेलिजेंस एजेंसियां मुझे तीन दिनों तक यंत्रणाएं देती रहीं। पुलिस ने मेरे फेसबुक, जीमेल, रेडिफमेल की आईडी लेकर इनका पासवर्ड भी ट्रैक कर लिया।”
पुलिस द्वारा हेम को कब्जे में लेना, यातना, गिरफ्तारी और फिर यातना-पूछताछ की यह पूरी घटना आप हजारों मामलों में देख सकते हैं। एक ही तरह के दृश्य का यह दुहराव पुलिस, इंटेलिजेंस और सरकारों की नीतियों की उस एकीकृत राजनीति का परिणाम है जहां लोकतंत्र पर देशभक्तों ने कब्जा करने का अभियान ले लिया है और देश को नए-पुराने कॉरपोरेट घरानों ने बंदरबाट करने की रोटी बना दिया है। हेम के ही शब्दों में, ”मुझे उसी बैरक संख्या-8 में रखा गया जहां मेरी तरह ही देशद्रोह और यूएपीए जैसे जनविरोधी कानूनों में गिरफ्तार किए गए महाराष्ट्र की यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र, दलित और आदिवासी नौजवानों को रखा गया था। झूठ मामलों में फंसाए गए आदिवासी नौजवानों की संख्या समय के साथ घटती-बढ़ती रहती है। इनसे घुलने-मिलने पर मुझे इनके साथ किए जा रहे अमानवीय व क्रूर व्यवहार की जानकारी मिली। इनमें से कोई दो, कोई तीन तो कई पांच साल से जेल में बंद हैं। न्यूनतम 6 से लेकर 40 तक फर्जी मामलों में बंद किए गए इन युवाओं को ज़मानत मिलना भी सम्भव नहीं है। कोर्ट में महीनों तक पेशी नहीं होती। कभी एक दो पेशी समय से हो भी जाए तो अगली पेशी कब होगी इसका कुछ नहीं पता रहता। इनमें से अधिकांश युवाओं के केस गढ़चिरौली सेशन कोर्ट में चल रहे हैं। मेरा केस भी इसी कोर्ट में है। यहां प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी की व्यवस्था बंद कर वीडियो कांफ्रेंस से ही पेशी हो जाती है जिसके चलते बंदियों को न तो वकील से बात करने का अवसर मिलता है न ही जज से। केवल अगली तारीख का पता चल पाता है। अकसर तकनीकी खराबी रहने के कारण यह संभावना भी खत्म हो जाती है। वीडियो कांफ्रेंस से निष्पक्ष ट्रायल संभव नहीं है। इसी कारण हाल ही में दो आदिवासियों को सजा भी हो गई।”
इस विवरण को फ्रैंज काफ्का के उपन्यास ‘द ट्रायल’ के साथ मिलाकर पढ़ा जाए तो ‘काफ्कालैंड’ देश की न्याय व्यवस्था के मुकाबले कहीं बेहतर साबित होगा। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि हेम नागपुर जेल के उसी अंडा सेल में है जहां याकूब मेनन को रखा गया था और वहीं से न्यायालय और सरकार ने जिंदगी और मौत का खेल खेलते हुए एकदम अंतिम और चरम क्षण में निकालकर उसे मार देने का कारनामा किया। जहां उम्मीद कम होती है वहां थोड़ी सी उम्मीद भी भयावह बेचैनी पैदा करती है। याकूब मेनन के मामले में जिंदगी की थोड़ी उम्मीद जो न्यायालय में दिखी और राष्ट्रपति की चौखट पर सन्नाटे के बावजूद जो आहट की संभावना थी, जब टूट गई तब चारों तरह सिर्फ मौत ही मौत थी। इस मौत पर जश्न मनाने वाले देशभक्तों की कमी नहीं थी और जो जिंदगी की उम्मीद लगाए बैठे थे, वे न्याय के गणित से शर्मसार थे। हेम अब भी नागपुर जेल के अंडा सेल में हैं। ‘‘अंडा सेल की अत्यंत छोटी-छोटी बैरकें और उनके सामने मात्र 40 मीटर घूमने की जगह ही हमारा संपूर्ण संसार है।’’ इसी ‘संपूर्ण संसार’ में 14 महीने तक जीएन साईबाबा रहे जिन्हें लेकर यह सवाल अब भी बना हुआ है कि ठीक होने के बाद क्या एक बार फिर उसी अंडा सेल में उन्हें जाना है?
हेम की गिरफ्तारी के बाद कैंपस और जंतर-मंतर पर छात्र संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया। बाद में 17 संगठनों ने मिलकर हेम की रिहाई के लिए एक मंच बनाया। पिछले एक साल से हेम की रिहाई के लिए न तो यह मंच सक्रिय है और न ही छात्र संगठन। पिछले दो वर्षों में पहलकदमियां की गईं लेकिन लोगों की भागीदारी कम से कमतर होती गई। जेएनयू जैसी संस्था जहां से जनवाद के पक्ष में मुखर आवाजें लगातार उठती रही हैं, वहीं के एक छात्र की गिरफ्तारी के खिलाफ़ आंदोलन का न खड़ा हो पाना चिंता का विषय है। यह तब और भी चिंतनीय है जब जेएनयू का चुना हुआ छात्रसंघ हेम के पक्ष में खड़ा था और आज तक जेएनयू से छात्रों का एक भी डेलीगेशन हेम से मिलने नहीं जा पाया। हेम जिस कैंपस और समाज को जानते हैं, उससे उनकी उम्मीद सिर्फ अपनी रिहाई तक सीमित नहीं है। उन्हीं के शब्दों में, ”जेल के भीतर से मैं आप सभी से अनुरोध करता हूं कि आप मेरी और विभिन्न जेलों में हजारों की संख्या में बंद आदिवासियों दलित, महिलाओं, गरीब मजदूरों-किसानों, कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए आवाज उठाएं।”
Days of unrest in Nepal have resulted in the ousting of a deeply unpopular government and the deaths of at…
On Sept. 3, 2025, China celebrated the 80th anniversary of its victory over Japan by staging a carefully choreographed event…
Since August 20, Jammu and Kashmir has been lashed by intermittent rainfall. Flash floods and landslides in the Jammu region…
The social, economic and cultural importance of the khejri tree in the Thar desert has earned it the title of…
On Thursday, 11 September, the Congress party launched a sharp critique of Prime Minister Narendra Modi’s recent tribute to Rashtriya…
Solar panels provide reliable power supply to Assam’s island schools where grid power is hard to reach. With the help…
This website uses cookies.