प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 30 अगस्त 2014 को जापान में एक सौदा किया था। सौदा था बनारस को क्योटो बनाने का, या कहें क्योटो जैसा बनाने का। एक बरस बीत रहा है और डा. मोदी के एक्स-रे से जितना बनारस बाहर हो चुका है, उतना ही जापान। फिलहाल उन्हें सिर्फ पाकिस्तान दिखाई दे रहा है। उनकी एक्स-रे मशीन साल भर में बिगड़ गई है। बनारस के लोग बेचैन हैं कि राडार इधर की ओर घूमे।
ऐसे में मुझे अचानक सवा साल पहले उतारी अपनी एक तस्वीर की याद हो आई। बनारस में वरुणा पार अर्दली बाजार और कचहरी के बीच बरसों से पीले रंग का एक मकान बिना हरक़त के मुसलसल खड़ा है जिस पर लिखा है डा. मोदी एक्स-रे। डॉ. के ऊपर चंद्र की जगह एक गंदा सा पोंछा हलन्त की तरह उलटा लटका रहा है। पता नहीं क्यों, इस मकान को जब भी देखता हूं, ऐसा लगता है गोया यह मकान खुद आदिम युग की कोई एक्स-रे मशीन हो और अपने मरीज़ के इंतज़ार में पीली पड़ती जा रही हो।
बनारस का अगर एक्स-रे करना हो तो उसके दो हिस्से बन सकते हैं। एक हिस्सा वरुणा नदी के उस पार का है जहां यह मकान खड़ा है। इसकी ओर शायद किसी की नज़र नहीं जाती। दूसरा हिस्सा वरुणा और अस्सी के बीच का है, जिससे मिलकर बनारस बना है। सारी गतिविधियों का केंद्र यही हिस्सा है। दिलचस्प यह है कि वरुणा नदी का होना बनारस के वजूद के लिए उतना ही अहम है जितना गंगा या अस्सी का, लेकिन इसके बारे में कोई नहीं सोचता। हमने सोचा कि क्यों न इस बार बात वरुणा से शुरू की जाए और फिर गंगा तक पहुंचा जाए। गंगा को नमामि करने वाले बहुत हैं लेकिन नाला बन चुकी वरुणा का कोई हाल पूछने वाला नहीं।
इसीलिए, नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र का मुआयना करने हम 25 अगस्त की रात 12 बजे वरुणा एक्सप्रेस से बनारस पहुंचे हैं। संयोग है कि हर बार की तरह इस बार भी मैं अकेला नहीं हूं। साथ में युवा कवि नित्यानंद गायेन लगातार हमसफ़र हैं। हो सकता है कि उनकी आंखें कुछ अलहदा देख पाएं जिसे वे बयां करना चाहें, लेकिन फिलहाल तो मेरा कैमरा होगा और कुछ शब्द। क्योटो-बनारस संधि की सालगिरह पर जनपथ अपने पाठकों के लिए ला रहा है कुछ किस्तों में बनारस का आंखों देखा हाल।
फिलहाल, कानपुर से बनारस तक आठ घंटे वरुणा एक्सप्रेस की यात्रा में कुछ यादें ताज़ा हुई हैं। वरुणा शायद वह पहली रेलगाड़ी रही होगी जिससे हमने बनारस के बाहर कदम रखा। आज भी यह ट्रेन वैसी ही है जैसी 25 साल पहले थी। बाथरूम की भीनी-भीनी महक और खरोंची गई दीवारों के बीच लकड़ी के पटरों पर बैठने का सुन्नता भरा अहसास। निहालगढ़ और मुसाफिरखाना के खस्ता समोसे। मूंगफली बेचता हुआ सफेद चेहरे और सफेद भौंह वाला भूरा, जो हमारे जवान होते-होते अब बूढ़ा हो चला है। मुझे अफ़सोस है कि भीड़ के चलते उसकी तस्वीर नहीं उतार सका। एक आदमी कैसे 25 साल से एक ही ट्रेन में किन्हीं दो स्टेशन के बीच मूंगफली बेचे जा रहा है, यह मेरी समझ से बाहर है।
लखनऊ से सुलतानपुर के बीच रोज़ नौकरी के लिए भागदौड़ करने वाले कुछ अपरिचित चेहरे। सब के सब सरस सलिल के दीवाने। और हां, दिल्ली में हम लोग पता नहीं क्या-क्या बकते रहते हैं, इधर सरस सलिल का दाम 10 रुपया हो गया है यह मुझे आज ही पता चला। अभी कुछ दिन पहले एक सेमीनार में कोई बड़ा पत्रकार कह रहा था कि दो रुपये की होने के कारण सरस सलिल सबसे ज्यादा बिकती है। दिमाग में तो आया था कि हमारी पैदाइश से लेकर अब तक दो रुपया आगे क्यों नहीं बढ़ पाया, लेकिन मैंने पूछा नहीं। दिल्ली में रह कर हम लोगों को सरस सलिल खरीदने में शर्म जो आती है। अब दस रुपये के हिसाब से वह पत्रकार अपने तर्क कैसे गढ़ेगा, यह सोच रहा हूं।
बहरहाल, इमरान भाई की दोस्ती का तकाज़ा है कि रात साढ़े बारह बजे भी रुकने को कमरा मिल गया उनके होटल में। खाना नहीं खा सके क्योंकि स्टेशन के पीछे वाले रास्ते से होकर आए जहां सिर्फ सन्नाटा था। नित्यानंद सो चुके हैं। नदेसर पर जहां हम ठहरे हैं, सड़क पर धड़धड़ाते ट्रकों की आवाज़ लगातार आ रही है। इन्हीं सड़कों पर सवेरे निकल कर अगले तीन दिन तक मेरी कोशिश होगी कि बनारस की कुछ अलग छवियां आपके सामने रखूं। बनारस क्योटो बना या नहीं, उस दिशा में आगे बढ़ा या नहीं, बनेगा या नहीं – यह तय करना आपके हाथ में है।
शब्बा ख़ैर।
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