करीब तीन हफ्ते पहले की बात है जब दिल्ली की चुनावी सरगर्मी के बीच एक स्टोरी के सिलसिले में हम कम्युनिस्ट पार्टियों के सुनसान दफ्तरों के चक्कर लगा रहे थे। मतदान से ठीक एक दिन पहले 36, कैनिंग लेन में जाना हुआ जहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की किसान सभा का दफ्तर है। सत्तर बरस पार कर चुके किसान सभा के नेता सुनीत चोपड़ा से वहां मुलाकात तय थी। उनका आशावाद इतना जबरदस्त था कि कम्युनिस्ट पार्टियों की बदहाली से जुड़ी किसी भी बात पर वे कान देने को तैयार नहीं थे। जब उन्होंने गिनवाया कि अखिल भारतीय कृषि मजदूर यूनियन के देश भर में करीब 56 लाख सदस्य हैं और बीते दो वर्षों में यह संख्या तेज़ी से बढ़ी है, तो सहज विश्वास नहीं हुआ। फिर उन्होंने एक बात कही, ”हम सब मुख्यधारा के परसेप्शन ट्रैप में फंसे हुए हैं।”
यह बात कितना सच थी, इसका अहसास 24 फरवरी को लाल झण्डों से पूरी तरह पटे हुए संसद मार्ग पर हुआ जब चोपड़ा ने हज़ारों किसानों के सैलाब को मंच से गदरी बाबाओं के मुहावरे में ललकारा, ”सुरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत / पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कबहूं न छाड़े खेत।” और इतना कहते ही इंकलाब जिंदाबाद के नारों से लुटियन की दिल्ली गूंज उठी। यह एक ऐतिहासिक दिन था। ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि मेरे जाने में शायद पहली बार ज़मीन और किसान के मसले पर तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक के तमाम जनांदोलन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, माकपा, लिबरेशन सभी एक मंच पर समान अधिकार से मौजूद थे। और उस मंच पर वे अन्ना हज़ारे भी थे जो लगातार इस बात की रट लगाए थे कि वे राजनीतिक दलों के साथ मंच साझा नहीं करेंगे।
दिलचस्प यह था कि जंतर-मंतर पर जेडीयू के दफ्तर के सामने जहां अन्ना का मंच अलग से बना था, वहां दबी जुबान में युवा क्रान्ति नाम का संगठन चलाने वाले राकेश रफ़ीक नाम के एक शख्स को गालियां पड़ रही थीं कि उसने साजिश कर के अन्ना को कम्युनिस्टों के साथ बैठा दिया। इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प यह था कि ऐसा कहने वाले पुराने कांग्रेसी और संघी दोनों थे जो अन्ना के मंच का अनिवार्य हिस्सा थे। इससे भी कहीं ज्यादा दिलचस्प बात यह थी कि संसद मार्ग के मंच पर भी राकेश रफ़ीक की मौजूदगी को लेकर औरों के मन में कुछ शंकाएं थीं। सबसे मज़ेदार घटना यह रही कि जनता के स्वयंभू पत्रकार रवीश कुमार ने एक दिन पहले जिस एकता परिषद और उसके नेता पीवी राजगोपाल पर केंद्रित अपनी रिपोर्ट एनडीटीवी पर दिखायी थी, उसकी ट्रेन से आई जनता संसद मार्ग पर इंतज़ार करती रह गई लेकिन राजगोपाल वहां देर शाम तक नहीं पहुंचे और ट्रैफिक खोल दिया गया।
दिल्ली में 24 फरवरी 2015 का दिन बहुत नाटकीय रहा। मीडिया में जो दिखाया गया, वह सड़क पर नहीं था। जो सड़क पर था, उसे कैमरे कैद नहीं कर पा रहे थे। इसकी दो वजहें थीं, जैसा मुझे समझ में आया। जैसा कि मीडिया में प्रचारित था कि यह आंदोलन अन्ना का है और जंतर-मंतर से चलाया जा रहा है, उसी हिसाब से दिन में बारह बजे के आसपास जब मैं जंतर-मंतर पहुंचा तो वहां अपने मंच पर अन्ना मौजूद नहीं थे। फिल्मी गीत बजाए जा रहे थे और एक बड़ा सा नगाड़ा रह-रह कर पीटा जा रहा था। करीब दो सौ लोग रहे होंगे और चैनलों की सारी ओबी वैन व क्रेन वाले कैमरे वहां मुस्तैद थे।
साथ में यमुना शुद्धीकरण अभियान, गौरक्षा अभियान, आयुर्वेदिक दवाओं के परचे आदि अन्ना के मंच के साथ गुत्थमगुत्था थे। मैंने कई लोगों से पूछा कि अन्ना कहां हैं। ज्यादातर लोगों ने यही बताया कि अन्ना आने वाले हैं। सिर्फ एक पुलिसवाले ने बताया कि अन्ना तो संसद मार्ग के मंच पर बैठे हैं। चूंकि संसद मार्ग तकरीबन पूरी तरह भरा हुआ था इसलिए क्रेन वाले कैमरे वहां नहीं जा सकते थे। मजबूरन, रिपोर्टरों को वहां कंधे वाले कैमरे लेकर पहुंचना पड़ा। बावजूद इसके, किसी ने भी यह बताने की ज़हमत नहीं उठाई कि अन्ना का मंच खाली है और अन्ना राजनीतिक दलों के साथ मंच साझा कर रहे हैं, जो कि उनका अपना मंच नहीं है।
दूसरी वजह गृह मंत्रालय के एक सूत्र से पता चली। उन्होंने बताया कि चैनलों को साफ तौर पर कहा गया था कि आंदोलन में उन्हीं चेहरों को दिखाना है जो ”निगोशिएबल” हों। निगोशिएबल का मतलब जिनसे सौदा किया जा सके। आंदोलन के जिन चेहरों को हम टीवी पर देख रहे हैं, उनमें राजगोपाल सबसे ज्यादा सौदेबाज़ चेहरे के रूप में अपने अतीत की हरकतों से साबित होते रहे हैं। तीन साल पहले यही राजगोपाल कुछ आदिवासियों को लेकर दिल्ली निकले थे और आगरा में इन्होंने जयराम रमेश से सौदा कर के उन्हें गले लगा लिया था। इन्हीं राजगोपाल की पदयात्रा में 12 लोग गर्मी से मारे गए थे जिसकी खबर दि हिंदू के अलावा कहीं नहीं आई थी। ज़ाहिर है, रवीश कुमार ब्रांड की ”रिपोर्टिंग” में जनवाद की आखिरी हद पीवी राजगोपाल तक ही जा सकती थी। चूंकि राजगोपाल से बड़ा चेहरा अन्ना हैं, इसलिए सारे मामले को अन्ना के आंदोलन के नाम से प्रचारित किया गया क्योंकि गृह मंत्रालय के मुताबिक ऐसा करने से आंदोलन की कामयाबी का सारा श्रेय भी अन्ना को ही जाएगा और इस तरह आंदोलन की रूपरेखा और योजना बनाने वाले सैकड़ों जनांदोलन, जन संगठन व कम्युनिस्ट पार्टिंया सिरे से साफ हो जाएंगी।
अरविंद के पीछे-पीछे योगेंद्र यादव और सोमनाथ भारती भी आए। अरविंद के आने तक कम्युनिस्ट पार्टियों के अधिकतर नेता मंच से उतर चुके थे। सुनने में आया कि राकेश रफ़ीक मंच को अपने तरीके से मैनेज करने की कोशिश में थे और वे नहीं चाहते थे कि अरविंद मंच पर आएं। यह बात इससे पुष्ट होती है कि जब सारे नेता सीधे मंच पर पहुंच जा रहे थे, अरविंद को मंच के नीचे दरी पर कुछ देर के लिए बैठना पड़ा। उसके बाद भी दो बार वे मंच पर चढ़ने की कोशिश में नाकाम रहे लेकिन फिर ऊपर से उन्हें खींच लिया गया। अन्ना से अरविंद ने आंखें नहीं मिलाईं लेकिन वाइको से जमकर गले मिले। अरविंद जितनी देर बैठे रहे, अन्ना की तरफ़ उन्होंने नहीं देखा जबकि अन्ना लगातार मूर्ति की तरह सामने देखकर मुस्कराते ही रहे।
दूसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री के बतौर किसी प्रदर्शन में पहली बार अरविंद का भाषण हुआ। उन्होंने बीजेपी सरकार को उद्योगपतियों का प्रॉपर्टी डीलर ठहराया और दिल्ली चुनाव में दिए सबक की याद दिलाते हुए एक बार खांसे। फिर उन्होंने कहा कि दिल्ली में ज़मीन का मसला केंद्र की जिम्मेदारी है, दिल्ली सरकार की नहीं। ऐसा कह कर वे दो बार खांसे। फिर उन्होंने कहा कि अगर आप जनता के लिए काम करते हैं तो जनता खुशी-खुशी अपनी ज़मीन आपको देगी लेकिन अगर आपने जनता पर बुलडोज़र चलवाया तो वह आप पर बुलडोज़र चला देगी, जैसा हमने दिल्ली में देखा। इसके बाद अरविंद चार बार खांसे। अंत में उन्होंने अन्ना को अपना गुरु और पिता समान बताते हुए उनसे अगले दिन सचिवालय में आकर उसे ‘शुद्ध’ करने का आग्रह किया जिस पर जनता ने तालियां बजाकर जोरदार प्रतिक्रिया दी।
चूंकि जंतर-मंतर और संसद मार्ग के मंच को बीच में से एक गली जोड़ती है, लिहाजा लोगों का एक मंच से दूसरे तक अहर्निश आना-जाना लगा हुआ था। शाम के साढ़े तीन बज चुके थे और कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की मानें तो अन्ना के उस विशाल मंच पर ”बेवड़े” विराजमान थे जहां ”शुद्ध आचार, शुद्ध विचार” का नारा बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था। दरअसल, संसद मार्ग के मंच से मेधा ने खबर दी कि राजगोपाल की रैली को रास्ते में रोक लिया गया है और अगर पंद्रह मिनट में उन्हें नहीं छोड़ा गया तो मंचस्थ सारे नेता उन्हें लेने पैदल ही जाएंगे। फिर शायद सारे नेता मंच से इसी वजह से उतर भी गए। कुछ देर बाद मेधा फिर आईं और उन्होंने बताया कि वे उधर जाने ही वाले थे कि खबर आई है कि उन्हें छोड़ दिया गया है। इन दो घोषणाओं के बीच जंतर-मंतर वाले मंच के सामने कांग्रेस सेवा दल और जेडीयू के कुछ कार्यकर्ता एकत्रित होकर मंच पर बोल रहे एक युवक को गाली दे रहे थे। मैंने जानना चाहा तो एक युवक ने बताया, ”अन्ना के मंच पर सारे ग्रेटर नोएडा के बेवड़े बैठे हैं”। थोड़ी देर में फिर से फिल्मी गीत बजने शुरू हो गए।
उधर टक्कर में संसद मार्ग वाले मंच पर कमान संभाली अरविंद गौड़ की अस्मिता टीम ने, लेकिन वे जितनी तेजी से बिना सुर के चीखते जाते, भीड़ उतनी ही कम होती जाती थी। साढ़े चार बजे के आसपास यह समझ में आ चुका था कि संसद मार्ग वाली रैली को जबरन अस्मिता के बहाने खींचा जा रहा है जबकि अन्ना समेत सारे नेता कहीं गायब हो चुके थे। अन्ना अपने मंच पर भी नहीं थे।
पांच बजे के बाद संसद मार्ग को खोला जाना था। आरएएफ वाले लोगों को हटाने लगे। कई जगह कुछ औरतें और पुरुष गोला बनाकर बैठे थे और वे समझ नहीं पा रहे थे कि कहां जाना है। ये टीकमगढ़ और डिंडोरी से आए लोग थे। सारे एकता परिषद के थे और उन्हें कहा गया था कि उनका नेता राजगोपाल संसद मार्ग पर ही आएगा। ये लोग ट्रेन से दिल्ली आए थे। कुल दो हज़ार के आसपास रहे होंगे। इन्हें निर्देश देने वाला कोई नहीं था। इस बीच दो लड़के इन्हें घेर कर फोटो खींचने में जुटे थे। पता चला कि एकता परिषद की औरतों के हाथ में उन लड़कों ने अन्ना हज़ारे को समर्थन करता हुआ जेएवाइएस का पोस्टर जबरन पकड़ा दिया था और वे खुशी-खुशी फोटो खिंचवा रही थीं।
एकता परिषद की औरतें और आदमी ट्रैफिक खुलने के कारण इधर-उधर बिखर गए, लेकिन जंतर-मंतर पर उनके नेता राजगोपाल अब तक नहीं पहुंचे थे। मंच से घोषणा हो रही थी कि अन्नाजी राजगोपाल को लेने गए हैं। छह बजे के आसपास कांग्रेस सेवा दल के कुछ पुराने चेहरे और संघ के कुछ परिचित युवा नज़र आए। उन्होंने बताया कि वे राजगोपाल के साथ पैदल चलकर पलवल से आए हैं। इनमें कांग्रेस की ”गांव, गांधी, गरीब यात्रा” के संयोजक विनोद सिंह भी थे। उन्होंने बताया कि राजगोपाल आ चुके हैं। मंच पर हालांकि कोई नहीं था। बस फिल्मी गीत बज रहे थे।
इस दृष्टान्त के पीछे की दो बातें पाठकों को बतायी जानी जरूरी हैं। सबसे पहली बात यह कि केंद्र में नई सरकार बनने के बाद जमीन केंद्रित आंदोलन और आंदोलनों व संगठनों की एकता की पहल की बात सबसे पहले ओडिशा के ढिनकिया गांव में अक्टूबर 2014 में हुए दो दिवसीय एक सम्मेलन में उठायी गई थी जिसका मैं गवाह था। इस सम्मेलन में देश के डेढ़ सौ से ज्यादा जनसंगठनों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था और ज़मीन के सवाल पर केंद्रित आंदोलनों को एकजुट करने का संकल्प पारित हुआ था। यह 24 फरवरी 2015 की पृष्ठभूमि है। इसके बाद जब जमीन लूटने वाला अध्यादेश आया, तो जनसंगठनों और कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर सिलसिलेवार बैठकें कीं जिसका ठिकाना दिल्ली का भाकपा मुख्यालय अजय भवन रहा। यह अपने आप में दिलचस्प बात थी कि जब दिल्ली के चुनाव परिणाम आ रहे थे, तब अजय भवन में जनांदोलन 24 फरवरी के प्रदर्शन की तैयारी कर रहे थे। इसी वजह से ढिनकिया में हुए सम्मेलन का जो दूसरा संस्करण झारखण्ड के मधुपुर में 23 से 25 फरवरी के बीच होना था, उसे रद्द किया गया।
इस पूरी प्रक्रिया में अचानक तीन लोगों का प्रवेश अन्ना हज़ारे को पैराशूट से आंदोलन में उतारने का सबब बना। उनमें एक थे पीवी राजगोपाल (जिन्होंने आदिवासियों की यात्रा से विश्वासघात करते हुए तीन साल पहले जयराम रमेश से सौदा कर लिया था), दूसरे थे राकेश रफ़ीक (जो ‘युवा भारत’ संगठन को तोड़कर ‘युवा क्रान्ति’ बनाने के लिए कुख्यात हैं) और तीसरे थे अल्पज्ञात सुनील फौजी, जो ग्रेटर नोएडा के किसान नेता हैं। बताते हैं कि सुनील फौजी के कपिल सिब्बल से करीबी ताल्लुकात हैं और यही वजह है कि अन्ना के मंच पर कांग्रेसियों की अच्छी-खासी भरमार थी। इन तीन लोगों ने अन्ना हज़ारे को कथित तौर पर आंदोलन में लाने का प्रस्ताव रखा, जिसे मेधा पाटकर के नेतृत्व ने काफी सतर्कता से बरता और पूरी कोशिश की गई कि किसी भी तरह आंदोलन को ”सैबोटाज” न होने दिया जा सके। संसद मार्ग के मंच पर अन्ना की खामोश उपस्थिति बाकी सारी कहानी बयां कर देती है।
ज़ाहिर है, मीडिया में न तो वाम दलों को आना था, न मेधा पाटकर को और न ही लाल झंडे से पटे संसद मार्ग को। सारी लड़ाई अन्ना बनाम मोदी की बना दी गई है, तो ऐसा सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ है। अगर किसानों को कुछ राहत मिलती है, तो ज़ाहिर है उसका श्रेय अन्ना और राजगोपाल ले जाएंगे। अगर नहीं, तो भी चेहरा इन दोनों का ही चमकेगा। कुल मिलाकर देखें तो सुनीत चोपड़ा की कही बात कि ”हम सब मुख्यधारा के परसेप्शन ट्रैप में फंसे हुए हैं”, बिलकुल सच साबित हो रही है। संतोष सिर्फ एक बात का है कि इन तमाम साजिशों को नाकाम करने के लिए आज सड़क पर हज़़ारों किसान उतर चुके हैं जो अपनी ज़मीनें बचाने के लिए ”पुर्जा-पुर्जा कट मरने” को तैयार हैं। इन्हें इंतज़ार है 23 मार्च की भगत सिंह शहादत दिवस का, जब एक साथ इस देश के हज़ारों लोग भूमि लूट अध्यादेश के खिलाफ़ शहीद होने का सामूहिक संकल्प लेंगे। ज़ाहिर है, मीडिया तब भी सौदेबाज़ों को ही दिखाएगा। इसमें पत्रकार से लप्रेककार बने रवीश कुमार की कोई गलती नहीं है। सौदेबाज़ी के दौर में प्रेम कथा हो चाहे आंदोलन कथा, वह लघु होने को ही अभिशप्त है।
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