‘नो ट्रिपल तलाक़’, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

इनदिनों ट्रिपल तलाक़ का मुद्दा छाया हुआ है। इससे पहले बिलकुल छाए में था। ठीक उसी तरह जिस तरह धूप लग जाने और रंग स्याह पड़ जाने का हवाला देकर औरतों को बदलती दुनिया की शिद्दत और तपिश से दूर रखा जाता है।

ट्रिपल तलाक़ देने वाले पुरुषों के लिए ये बेहद सिंपल है। हो भी क्यों नहीं ? जिस समाज में मैहर की औसत रक़म 10000 रुपये से भी कम हो वहां इसका सिंपल होना लाज़मी है। लेकिन तलाक़ के बाद हाशिए पर आई उन औरतों के लिए इस क़ानून को पचा पाना उतना ही कॉम्प्लिकेटेड है। ट्रिपल तलाक़ के धार्मिक कोड को बचाने वाली जमात यानी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे धार्मिक मामला बताती है और इसमें किसी भी तरह के न्यायिक और विधिक हस्तक्षेप को स्वीकार करने के मूड में नहीं दिखती। ये कहकर बोर्ड उन जल्दबाज़, चालबाज़, बदमिज़ाज, सनकी पुरुषों के साथ खड़ी है जिनके लिए दाम्पत्य जीवन में इससे सरल शब्द कुछ नहीं। जो हर छोटी-छोटी बात पर इस जुमले को अपने जीवनसाथी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल के लिए धमकी के तौर पर सबसे मुफ़ीद समझता है। हर मर्ज़ की एक दवा, तलाक़-तलाक़-तलाक़!

लॉ बोर्ड के कोड का गहरा असर न सिर्फ़ पुरुषों पर है बल्कि तलाक़ की चोट खाने वाली उन औरतों पर भी उतना ही असरदार है जो बोर्ड के इस पर्सनल क़ानून को अस्वीकार करने को शरीयत में हस्तक्षेप और गुनाह समझने की भूल कर बैठती हैं। ज़्यादातर मामलों में आप पाएंगे कि तलाक़शुदा औरतें गुज़ारे के लिए किसी कोर्ट-कचहरी, हाकिम-मुलाज़िम का रुख़ नहीं करती हैं। फतवा आया, निकल लो। उनमें से चंद ऐसी हैं जो इस मामले पर रोशनी डालने के लिए इसे छाए से दूर तक लाती हैं। लेकिन उनके पास सपोर्ट नहीं है। ना ही समाज और बिरादरी का और ना ही क़ानून का। यहाँ तक कि ख़ुद पीड़ित समुदाय औरतों का भी समर्थन हासिल नहीं।

बोर्ड कहता है ये पर्सनल है। हम कहते हैं ये पर्सनल होते हुए भी पॉलिटिकल है। हम राजनीतिक लोकतंत्र का हिस्सा हैं। जहां न्यायपालिका है। छोटी-छोटी शिकायतें लेकर हम वहां पहुंचते हैं। इस उम्मीद के साथ कि अगर समाज, समुदाय शक्ति के पक्ष में खड़ा हो भी जाए तो भी हम इसे महज़ तक़दीर की दुहाई देकर बैठे नहीं रहेंगे, इन्साफ़ मांगेंगे। इस व्यवस्था का लाभ कमोबेश हर समुदाय उठाता है, भले ही वो उलेमाओं कि जमात ही क्यों न हो। तो फिर आख़िर औरतें अगर अपने गुज़ारे अपने हक़ के लिए अदालत पर भरोसा करती हैं तो इसमें क्या बुराई है। सही मायने में अगर आपने ख़ुद ये कोशिश की होती तो बात यहाँ तक नहीं पहुंचती। इस देश की न्यायपालिका ने कई मौक़ों पर हिदायत देने की कोशिश की। लेकिन बोर्ड खामोश रहा।

पर्सनल क़ानून में अदालती या फिर संसदीय हस्तक्षेप को बोर्ड बिना सिर-पैर के तर्कों के साथ इसे शरीयत से जोड़ देती है। इससे होता ये है कि सामाजिक सुुधार की चाहत रखने वालों में भी उल्टे बोर्ड के लिए सहानुभूति पैदा हो जाती है और इन्साफ़ की आस, कभी उन औरतों के पास नहीं फटक पाती। अगर तीन तलाक़ का ये क़ायदा बेतुका नहीं होता तो दर्जनों इस्लामिक गणराज्य में इसे अबतक ज़िंदा रखा गया होता। क्या उन मुल्कों में भारत के मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे स्कॉलर की कमी है? या फिर बोर्ड को ये वहम है कि तक़रीबन बीसियों मुल्कों में अचानक से हुई महिला क्रांति के आगे वहां की सत्ता झुक गई और क़ानून ख़त्म कर दिया। पाले रहिए ऐसा वहम।

लॉ कमीशन ने मुस्लिम समुदाय की औरतों से ट्रिपल तलाक़ पर सुझाव नहीं मांगा है बल्कि मुस्लिम पर्सनल बोर्ड से सुझाव मांगा है। बोर्ड ने साफतौर पर सुझाव देने से ही मना कर दिया। हक़ीक़त ये है कि अगर बोर्ड ने मुस्लिम औरतों से भी सुझाव मांगा होता तो वो औरतें स्वतंत्र रूप से इसका जवाब नहीं दे पातीं। ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे औरतों की काबिलियत पर शक है बल्कि ऐसा इसलिए कि इस समाज में ही पढ़ाई-लिखाई का वो स्तर नहीं कि महिलाएं स्वतंत्र रूप से अपने हक़ और अधिकार के सही मायने समझ सकें। उनपर उनके पिता, भाई, पति ने जो थोपा, वही उनकी भी राय बनती चली गई।

थोपने से जुड़ी एक हक़ीक़त बयान करता चलूँ। होता क्या है असल में। हर दो किलोमीटर पर 2 कमरे में चलने वाले विद्यालय में एक लड़की का दाख़िला कराया जाता है। पांचवीं तक पहुँचते-पहुँचते उसने अपने नोटबुक पर “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” लिखना सीख लिया। 8वीं तक पहुँच गई। लड़की को जैसे ही उसे मिलने वाले वज़ीफ़े का पता चला कि मामा रिश्ता लेकर चले आए। माँ-बाप ने शादी तय की। मैहर की रक़म को लेकर चिकचिक शुरू। चाचा ने कहा इस बार चढ़कर रखवाऊंगा। बड़ी बेटी के मामले में धोखा खा चुके हैं। गुज़ारे के नाम पर जो किया पहले वालों ने वो गए-गुज़रे जैसा था। चाचा ने बहुत हिम्मत दिखाई। प्रस्ताव रखा 21 हज़ार। इतने में लड़के वालों को आ गया बुख़ार। 30 हज़ार की मासिक आमदनी वाले लड़का और उसके पिता का ग्राफ अचानक से ग़रीबी रेखा के नीचे चला गया। मामा को आया चाचा पर गुस्सा। समझते हो नहीं यार, क्या रट लगा रखी है 21 हज़ार। मैहर वैहर में कुछ नहीं रखा। बेटी हमारी खुश रहेगी।

शादी हुई, लड़की पहुंची ससुराल। ग़रीबी रेखा वाला वो परिवार अचानक से हो गया कैपिटलिस्ट। सहते-सिहमते एक दिन लड़की जागी, फिर हो गई बाग़ी। ससुराल वालों ने बनाई लड़की के खर्चे की पूरी लिस्ट। उल्टा 21 हज़ार लड़की पर ही उधारी चढ़ाकर उसे भेज दिया गया उसके बाप के घर, वो भी बिना ज़ेवर। लड़की के मामा मूंगफली खा रहे हैं। चाचा मामा को गरिया रहे हैं। समाज बतिया रहा है। माँ लतिया रही है। बाप मौन है। लड़की परेशान है कि उसका आख़िर कौन है। फिर हुआ तलाक़, कहानी हुई ख़त्म पैसा हुआ हज़म।

तो आख़िर ज़्यादातर तलाक़शुदा औरतें कहाँ जाती होंगी? अपने मायके! नहीं, वो दरवाज़ा डोली उठते ही भारत में बंद हो जाता है। तो फिर कहाँ? जवाब है, वहीं जहाँ सालों से रह रही हैं। पति के घर से थोड़ी दूर, उसी मोहल्ले में उनके ही सामने। समुदाय के ही कुछ लोग इंसाफ़ का डंका पीटते हुए उनके रहने का इंतज़ाम करते हैं। किसी परती ज़मीन पर झोपड़ी लग जाती है और उन्हीं मसीहाओं में से कोई दरिया दिल सामने निकल आता है और अपने यहाँ घेरलू कामकाज, चूल्हा-चौका के लिए उन्हें सस्ते में फिट भी कर लेता है। तलाक़शुदा औरतें लाचार समाज के इस व्यवहार को मसीहाई समझती हुई दम तोड़ देती हैं, और डोली का अगला वाक्य कि “अर्थी ससुराल से उठेगी” सम्पूर्ण हो जाता है।

देशभर में तलाक़ को लेकर चल रही मौजूदा बहस से समाज के लोग संकट में होंगे। किधर को जाएँ। बहस ये भी कि मौजूदा सरकार लैंगिक समानता और सामजिक न्याय के बहाने कुछ और थोपने का इरादा तो नहीं रखती। ये बात संदेह से परे नहीं। करना भी चाहिए संदेह। लेकिन बावजूद इसके इस बात पर सोचना भी ज़रूरी है कि अब इसे और न टाला जाए। समाज के लोगों का आगे आना ज़रूरी है। समाज को भी पता है वो उन औरतों के साथ जो कर रहा वो मसीहाई नहीं लाचारी है। चंद इलीट उलेमाओं के बोर्ड के कोड के ख़िलाफ़ जाना कहीं से भी आपकी शरीयत को नुक़सान नहीं पहुंचाने वाला। ज़रा सोचिए कि अगर ये आपकी भविष्य निधि का सवाल होता तो क्या आप एक सिक्के की कटौती भी बर्दाश्त करते। नहीं ना। तो फिर इस पर चुप्पी क्यों। असल में ये आपकी भविष्य निधि में ही कटौती है जिसे आपने पाई-पाई जोड़कर जमा किया था और बहन-बेटियों को पढ़ाया था, उनकी शादी की थी और हर दिन किसी खुशहाल सुबह की दुआएं दी थीं। इससे पहले कि कोई सुबह आपकी अपनी बहन-बेटी उठे और कहे पापा-भैया! “वो इंतज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं”। अभी भी देर नहीं हुई, ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’।

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