कॉरपोरेट हमले और सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ एकजुट हुए लेखक, संस्‍कृतिकर्मी और पत्रकार

नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व में पिछले साल केंद्र की सत्‍ता में आयी एनडीए सरकार को साल भर पूरा होते-होते साहित्यिक-सांस्‍कृतिक क्षेत्र भी अब उसके विरोध में एकजुट होने लगा है। बीते रविवार इसकी एक ऐतिहासिक बानगी दिल्‍ली में देखने को मिली जब दस हिंदीभाषी राज्‍यों से आए लेखकों, संस्‍कृतिकर्मियों, कवियों और पत्रकारों ने एक स्‍वर में कॉरपोरेटीकरण व सांप्रदायिक फासीवाद की राजनीति के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की और अपने-अपने इलाकों में भाजपा-आरएसएस द्वारा फैलायी जा रही अपसंस्‍कृति के खिलाफ मुहिम चलाने का संकल्‍प लिया। यहां स्थित इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट में ”16 मई के बाद की बदली परिस्थिति और सांस्‍कृतिक चुनौतियां” विषय से तीन सत्रों की एक राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी का आयोजन किया गया जिसके मुख्‍य अतिथि बंबई से आए मकबूल फिल्‍मकार सागर सरहदी थे।

पहले सत्र की शुरुआत करते हुए स्‍त्री अधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्‍णन ने हिंदू परिवार के मिथक पर सवाल उठाया और यह बताने की कोशिश की कि कैसे श्रम कानूनों के संदर्भ में औद्योगिक कार्यस्‍थलों पर भी मौजूदा सरकार इस ढांचे को लागू करना चाह रही है। तमिलनाडु के कपड़ा उद्योग के उदाहरण से उन्‍होंने समझाया कि कैसे कार्यस्‍थलों पर हिंदू परिवार के पितृसत्‍तात्‍मक ढांचे को ‘परिवार’ के नाम पर लागू किया जा रहा है। मोदी सरकार द्वारा आंबेडकर के नाम पर किए जा रहे सामाजिक समरसता यज्ञ को घर वापसी का दूसरा संस्‍करण करार देते हुए उन्‍होंने हिंदू परिवार के मिथक को तोड़ने की जरूरत पर बल दिया। लेखकों-संस्‍कृतिकर्मियों के लिए मिथकों को तोड़ने की ज़रूरत का महत्‍व दक्षिण एशियाई स्‍तर पर समझाते हुए वरिष्‍ठ पत्रकार सुभाष गाताड़े ने साफ शब्‍दों में कहा कि इस धारणा को अब तोड़ना होगा कि हमारा समाज बहुत सहिष्‍णु है, बल्कि वास्‍तव में यह समाज बहुत हिंसक है। गाताड़े ने सांप्रदायिकता की बहस में महाराष्‍ट्र की विशेष स्थिति और 1848 में फुले के नेतृत्‍व में हुई क्रांति को समझने की अपील की। झारखण्‍ड से आए उपन्‍यासकार रणेन्‍द्र ने इस बात पर अफ़सोस जताया कि प्रगतिशील जमातों ने संस्‍कृति के मिथकीय आयाम को छोड़ दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि दक्षिणपंथियों ने बड़ी आसानी से संस्‍कृति को धर्म में घुसा दिया और संस्‍कृति के पूरे मायने को ही वि‍कृत कर डाला। इसी संदर्भ में कवि नीलाभ ‘अश्‍क’ ने सांस्‍कृतिक हस्‍तक्षेप या संस्‍कृति में हस्‍तक्षेप का सवाल उठाते हुए बेर्तोल्‍ट ब्रेख्‍त की ‘सच कहने की पांच दिक्‍कतों’ का उल्‍लेख किया। रेयाज़-उल-हक़ ने भी ब्रेख्‍त की इस कविता का दूसरे सत्र में पाठ किया।

माओवादी होने के आरोप में दो साल जेल में रह चुकी संस्‍कृतिकर्मी सीमा आज़ाद ने सांस्‍कृतिक हमले के मनोवैज्ञानिक पक्ष को उठाया और ‘सेंचुरी ऑफ दि सेल्‍फ’ नामक फिल्‍म के हवाले से बताया कि कैसे राज्‍यसत्‍ता हमारे दिमागों पर कब्‍ज़ा करती है। उन्‍होंने सांस्‍कृतिक एकाधिकार के खतरे का भी जिक्र किया। इस हमले को कुछ ताज़ा घटनाओं और खबरों के माध्‍यम से समझाने का काम पत्रकार अरविंद शेष ने किया, तो राजनीतिक कार्यकर्ता अर्जुन प्रसाद सिंह ने आज के दौर में सांस्‍कृतिक सेना का गठन करने की जरूरत को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में समझाया। अर्जुन प्रसाद ने कहा कि सबसे पहले मजदूर वर्ग के भीतर सांस्‍कृतिक स्‍तर पर काम किए जाने की ज़रूरत है। फिर दूसरा स्‍तर किसानों का है, छात्रों और मध्‍यवर्ग का है। इसके बाद जरूरी हो तो छोटे देसी कारोबारियों के बीच भी काम किया जा सकता है।

मध्‍य प्रदेश से आए कहानीकार सत्‍यनारायण पटेल, लखनऊ से आए कवि कौशल किशोर और इलाहाबाद से आयीं कवियत्री संध्‍या नवोदिता ने प्रगतिशील जमातों के भीतर सांस्‍कृतिक एकता की समस्‍याओं और सांस्‍कृतिक चुनौतियों पर अपनी बात रखी। इस संदर्भ में शिक्षक अपूर्वानंद ने नरेंद्र मोदी की कामयाबी के पीछे उनकी सरल भाषा का हवाला देते हुए लेखकों से भाषा की जटिलता व पेचीदगी को बचाए रखने का आह्वान किया और मित्रता का दायरा बढ़ाने की बात कही। उन्‍होंने कहा कि जनता के पास जाने और संघर्ष की दुहाई देने के क्रम में कवि कहीं सरलीकरण में न फंस जाए, इसका ध्‍यान रखने की ज़रूरत है। कवि असद ज़ैदी ने पहले सत्र के समापन पर अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में भाषा और सरलीकरण के सवाल को प्राध्‍यापकीय चिंता ठहराते हुए कहा कि हमारे भीतर अतिसाहित्यिकता समा गयी है क्‍योंकि मामला सिर्फ अभिव्‍यक्ति या शैली का नहीं है, बल्कि एक लेखक के नागरिक होने का भी है। महाराष्‍ट्र में भगवा गिरोहों द्वारा की गयी नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्‍या का संदर्भ देते हुए उन्‍होंने एक ‘हत्‍यारे’ के हाथों लेखक भालचंद नेमाड़े के ज्ञानपीठ पुरस्‍कार लेने पर अफसोस जताया और कहा कि नेमाड़े ने ”सत्‍ता के सामने सच कहने” (स्‍पीकिंग ट्रुथ टु पावर) का एक मौका गंवा दिया। असद ज़ैदी ने इस अभियान को कविता के दायरे से बाहर निकालकर समूचे संस्‍कृतिकर्म तक विस्‍तारित करने और इसे एक नया नाम देने का प्रस्‍ताव रखा।

कार्यक्रम का आधार वक्‍तव्‍य पढ़ते हुए अभियान के राष्‍ट्रीय संयोजक कवि रंजीत वर्मा ने सत्र के आरंभ में ज्ञानपीठ पुरस्‍कारों के संदर्भ में सवाल उठाया, ”पिछले दिनों हिंदी के वयोवृद्ध आलोचक नामवर सिंह को ज्ञानपीठ सम्मान समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हंसते-बतियाते पाया गया। किस बात पर वे हंस रहे थे? क्या उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि आपके आने के बाद देश की एक बड़ी आबादी असहज हो गई है, किसान बड़ी संख्या में आत्महत्याएं करने लगे हैं और आप हैं कि ऐसे नाजुक समय में उन्हें ढांढस बंधाने की जगह उनकी जमीन छीनने में लगे हैं? उन्हें कहना चाहिए था कि लोगों को सच बोलने से रोका जा रहा है और फिर भी जो बोलने का हिम्मत दिखा रहे हैं आपके लोग उनकी हत्याएं तक कर दे रहे हैं? इसके बावजूद आपकी चुप्पी क्यों नहीं टूट रही है जबकि आप सबसे ज्यादा बोलने वाले प्रधानमंत्री माने जाते हैं?” वयोवृद्ध राजनीतिक कार्यर्ता शिवमंगल सिद्धांतकर ने योग और आइटी जैसे दो विरोधी सिरों को मिलाने का हवाला देते हुए मोदी को आड़े लिया और सरकार की श्रम नीतियों पर सवाल उठाए।

कार्यक्रम का दूसरा सत्र अलग-अलग हिंदीभाषी राज्‍यों की ज़मीनी स्थिति और हस्‍तक्षेप की संभावनाओं पर था। इसमें उत्‍तर प्रदेश से कौशल किशोर, उत्‍तराखंड से पंकज, बिहार और पश्चिम बंगाल से अर्जुन प्रसाद सिंह व मृत्‍युंजय प्रभाकर, झारखंड से रणेन्‍द्र, मध्‍य प्रदेश से सत्‍यनारायण पटेल, छत्‍तीसगढ़ से सियाराम शर्मा, राजस्‍थान से संदीप मील, महाराष्‍ट्र से एडवोकेट बबिता केशरवानी और दिल्‍ली से अभिषेक श्रीवास्‍तव ने प्रतिनिधित्‍व किया। संदीप मील कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे, उनका वक्‍तव्‍य अभिषेक श्रीवास्‍तव ने पढ़कर सुनाया। अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में आनंद स्‍वरूप वर्मा ने अफ्रीका के देशों में संस्‍कृतिकर्म और लेखन के राजनीतिक महत्‍व के उदाहरण गिनाते हुए बताया कि कैसे दुनिया भर में लेखकों और संस्‍कृतिकर्मियों ने फासीवाद के खिलाफ कुर्बानियां दी हैं, लेकिन हिंदी में याद करने पर भी एक ऐसा लेखक नहीं दिखायी देता जिसका नाम लिया जा सके। चीनी लेखक लू शुन की एक कहानी के हवाले से उन्‍होंने हिंदी के लेखकों की तुलना उस कलाकार से की जो ड्रैगन की तस्‍वीरें तो बहुत अच्‍छी बनाता था, लेकिन उसके दरवाज़े पर जब ड्रैगन मिलने आया तो उसे देखकर वह बेहोश हो गया। अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में कवि मंगलेश डबराल ने प्रतिवाद किया कि फिलहाल देश में कोई क्रांति की स्थिति ही नहीं है, इसलिए यह कहने का कोई मतलब नहीं बनता कि निर्णायक स्थिति में लेखक क्‍या करेगा और क्‍या नहीं।

तीसरे सत्र में देश भर से आए करीब दो दर्जन कवियों का कविता पाठ और गीत हुए जिसका संचालन पाणिनि आनंद ने किया। अंग्रेजी के वरिष्‍ठ पत्रकार जावेद नक़वी, जिन्‍हें पहले सत्र में वक्‍तव्‍य रखना था, उन्‍होंने इस सत्र में दो कविताएं पढ़ीं। पंकज श्रीवास्‍तव, आदियोग, बलवंत यादव, उषा-राजेश और रिवॉल्‍यूशनरी कल्‍चरल फ्रंट के गीतों से सजे इस सत्र का समापन मंगलेश डबराल के कविता पाठ से हुआ। जेएनयू से आए कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ अपने परिचित अंदाज़ में एक कविता पढ़ी, तो अन्‍य कवियों में कौशल किशोर, संध्‍या नवोदिता, सीमा आज़ाद (यूपी), उन्‍मुक्‍त (छत्‍तीसगढ़), निखिल आनंद गिरि, सपना चमडि़या (दिल्‍ली), देवेंद्र रिणवा (इंदौर), महादेव टोप्‍पो (झारखण्‍ड) और विनोद शंकर (बनारस) शामिल रहे।

ध्‍यान रहे कि पिछले साल 16 मई को लोकसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद दिल्‍ली में ”कविता: 16 मई के बाद” नाम से एक प्रक्रिया शुरू हुई थी जिसके अंतर्गत देश भर में बीते आठ महीनों के दौरान नौ जगहों पर प्रतिरोध का काव्‍य पाठ हो चुका है। दिल्‍ली से चलकर लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, पटना, रांची, चंडीगढ़ और झारखण्‍ड के गांवों में पहुंची इस कविता-यात्रा ने कई ऐसे कवियों को साथ लाने में कामयाबी हासिल की है जो अपनी रचनाओं के माध्‍यम से नए निज़ाम को चुनौती दे रहे हैं। इसी कड़ी में जनादेश का एक साल पूरा होने पर यह आयोजन किया गया था। शुरुआती दो सत्रों की अध्‍यक्षता वरिष्‍ठ पत्रकार आनंद स्‍वरूप वर्मा, कवि मंगलेश डबराल और असद ज़ैदी ने की और संचालन क्रमश: अभिषेक श्रीवास्‍तव व रंजीत वर्मा ने किया। अध्‍यक्ष मंडल में कहानीकार पंकज बिष्‍ट का भी नाम था, लेकिन वे नहीं आ सके। कविता सत्र की अध्‍यक्षता कवि वीरेन डंगवाल को करनी थी जिनके नहीं आ पाने के कारण यह जिम्‍मेदारी कवि नीलाभ ‘अश्‍क’ ने आंशिक रूप से निभायी।

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