एक लेखक की खुदकुशी और सन्नाटा

छत्‍तीसगढ़ का बस्‍तर और वहां का माओवाद हमारी सामूहिक स्‍मृति का हिस्‍सा बनना कब से शुरू हुआ? दर्ज खबरों के मुताबिक छत्‍तीसगढ़ में पहली कथित माओवादी हिंसा 2006 में एर्राबोर की एक घटना से जुड़ी है. उससे पहले 2005 की जनवरी में सीपीआई (माओवादी) और आंध्र प्रदेश सरकार के बीच वार्ता टूटी थी जिसके बाद केवल आंध्र में हिंसा की सिलसिलेवार घटनाएं हुई थीं.

उसके साल भर पहले 2004 में एमसीसी और पीडब्‍लूजी के विलय से सीपीआई (माओवादी) अस्तित्‍व में आई थी. ठीक उसी वक्‍त एक शख्‍स दो महीने बस्‍तर के जंगलों में गुज़ार कर वापस आया था और उसकी यात्रा वृत्‍तान्‍त की किताब छप चुकी थी. यह हमारी सामूहिक स्‍मृति में बस्‍तर के माओवाद का पर्याय बनने से काफी पहले की बात है.

पहले पंजाबी, फिर अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशित ‘जंगलनामा’ नाम की यह मशहूर पुस्‍तक तब आई थी जब न तो ”बंदूकधारी गांधीवादियों” के साथ जंगल छान चुकी बुकर पुरस्‍कार विजेता अरुंधती रॉय का माओवाद से रिश्ता जुड़ा था और न ही अंग्रेज़ी पत्रकारिता के उन वीरबालकों का, जिन्‍होंने बाद में बस्‍तर की कहानियां बेच-बेच कर सेलिब्रिटी दरजा हासिल कर लिया.

बीते 28 अप्रैल की सुबह ‘जंगलनामा’ के लेखक ‘सतनाम’ की लाश पटियाला के उनके आवास पर लटकी पाई गई. केवल 63 साल की अवस्‍था में एक लेखक ने खुदकुशी कर ली. हफ्ता भर होने को आ रहा है, दिल्‍ली में बैठे बस्‍तर के तमाम हमदर्दों को यह खबर या तो नहीं है, या फिर उनके लिए यह महज एक खबर है.

वे ‘सतनाम’ के नाम से ही लिखते थे. आम पाठक समेत तमाम वामपंथी कार्यकर्ता भी उनकी किताब को ‘सतनाम वाला जंगलनामा’ के नाम से ही जानते थे. इसीलिए 28 अप्रैल की शाम जब इंकलाबी मज़दूर केंद्र के कार्यकर्ता नागेंद्र के पास एसएमएस आया कि गुरमीत ने खुदकुशी कर ली है, तो वे थोड़ा ठिठके. नागेंद्र कहते हैं, ”मुझे पहले तो समझ में ही नहीं आया कि गुरमीत कौन है.” बाद में साथियों की फेसबुक पोस्‍ट से उन्‍हें पता चला कि ये जंगलनामा वाले सतनाम ही हैं.

एक मई को बवाना से सटे दिल्‍ली के शाहाबाद डेयरी की झुग्गियों में इंकलाबी मजदूर केंद्र ने अपने कार्यक्रम के बीच दो मिनट का मौन रखकर सतनाम को श्रद्धांजलि दी. सतनाम की पहचान की सही जगह ऐसी झुग्गियां ही हैं. क्‍या औरतें, क्‍या बच्‍चे और क्‍या मज़दूर, एफ-ब्‍लॉक के उस पार्क में एक मई की ढलती सांझ सभी एक ऐसे शख्‍स के लिए दो मिनट मौन थे जिसे वे शायद जानते तक न थे.

गुरमीत उर्फ सतनाम ने मजदूरों के बीच से ही अपना राजनीतिक कर्म शुरू किया था और काफी बाद में वे किसानों के आंदोलन से जाकर जुड़ गए. भारत के गैर-संसदीय वाम संगठनों में शायद ही कोई ऐसा हो जो उन्‍हें पहचानता न रहा हो. बस्‍तर सतनाम के लिए कोई अजूबा नहीं था. वहां जाना उनके लिए ”कॉन्फ्लिक्ट ज़ोन रिपोर्टिंग” का हिस्‍सा नहीं था. वहां के बारे में लिखना उनके लिए सेलिब्रिटी बनने या प्रोफाइल बनाने का ज़रिया नहीं था.

जब फिल्‍मकार संजय काक को अपनी पिछली फिल्‍म ”रेड एन्‍ट ड्रीम” में बस्‍तर और पंजाब के संघर्षों को आपस में जोड़ने की चुनौती दरपेश आई, तो उन्‍हें गुरमीत से बेहतर लिंक नहीं मिला. फिल्‍म में गुरमीत ने अवतार सिंह ‘पाश’ की कविताओं का बहुत सहृदय पाठ किया है. उनकी मौत की खबर के बाद 28 अप्रैल को ही फिल्‍म के यू-ट्यूब चैनल पर उनके अंशों को जोड़कर एक वीडियो श्रद्धांजलि स्‍वरूप पोस्‍ट किया गया था.

पंजाब में लेखकों के बयान आए हैं, सारे अखबारों में इस मौत की कवरेज भी हुई है लेकिन बाकी जगह सन्‍नाटा है. आखिर 63 साल का एक पुराना मजदूर-किसान आंदोलनकारी व वाम दायरे से बाहर तक चर्चित एक लेखक खुदकुशी क्‍यों करेगा? क्‍या सतनाम के पास कुछ कहने को नहीं बचा था, कि उन्‍होंने एक सुसाइड नोट तक नहीं छोड़ा?

इसे निजी जीवन की किसी त्रासदी से जोड़कर देखना भ्रामक होगा क्‍योंकि सन् नब्‍बे से पहले ही वैवाहिक संबंध टूटने के बाद सतनाम कहीं ज्‍यादा सक्रिय हुए थे और 2010 तक अपने दिल्‍ली प्रवास के दौरान वे तकरीबन हर रोज़ ही कार्यक्रमों, गोष्ठियों व प्रदर्शनों का परिचित चेहरा रहे. अपनी वृद्ध मां की बीमारी के चलते उन्‍हें 2010 में दिल्‍ली छोड़कर जाना पड़ा.

सतनाम की एक विवाहित बेटी है. खुदकुशी से तीन दिन पहले अपने दामाद से फोन पर उनकी बात हुई थी. खुदकुशी से एक दिन पहले शाम साढ़े सात बजे तक वे साथियों के बीच थे. उनका घर पंजाब की मशहूर पत्रिका ‘सुलगते पिंड’ का दफ्तर जैसा था जहां सारी बैठकें होती थीं.

सतनाम के साथ लंबे समय तक काम कर चुके पुराने वामपंथी कार्यकर्ता अर्जुन प्रसाद सिंह इस घटना को नक्‍सलबाड़ी के नेता कानू सान्‍याल की आत्‍महत्‍या के कारणों से जोड़कर देखते हैं, अलबत्‍ता सतनाम के पास जीने को अभी बहुत उम्र पड़ी थी. उनके मुताबिक मोटे तौर पर यह राजनीतिक मोहभंग से उपजी खुदकुशी है.

वे कहते हैं, ”वो तीन साल से आइसोलेशन में थे. लंबे समय से डिप्रेशन में भी थे.” कुछ दिन पहले 21 साल के एक राजनीतिक कार्यकर्ता नवमीत ने लुधियाना में खुदकुशी कर ली थी. उसकी मौत पर कई सवाल उठे थे, लेकिन ”सांगठनिक अनुशासन” और ”वामपंथी नैतिकता” के कारण सरोकारी लोगों के बीच भी खुलकर बात नहीं हो पाई कि आखिर एक नौजवान को खुदकुशी करने की जरूरत क्‍यों पड़ गई?

आज, जब एक लेखक मरा है, एक बुजुर्गवार ने खुदकुशी की है, हम तक सबसे पहले बस्‍तर को पहुंचाने वाले शख्‍स ने मौत के रूप में एक बार फिर गुमनामी को चुना है, तो सब चुप हैं. कोई बस्‍तर की अपनी किताब पर पुरस्‍कार लेकर चुप है, कोई बस्‍तर के नाम पर विदेशी अनुदान लेकर चुप है, कोई बस्‍तर की किताब को सीढ़ी बनाकर विदेश में बस चुका है.

बस्‍तर ने पिछले दस साल में अंग्रे़ज़ीदां मध्‍यवर्गीय लेखकों और बुद्धिजीवियों को प्रचार और दुकानदारी के नाम पर बहुत कुछ दिया है. यह बस्‍तर से निकली पहली मौत है. क्‍या थोड़ी देर के लिए ही सही, राजनीति को किनारे रखकर इस मौत पर आत्‍मीयता के साथ बात करने को हम तैयार हैं?

(साभार- कैच न्यूज़, हिंदी)

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