”आपातकाल की चालीसवीं बरसी पर रिहाई मंच ने दिया धरना… जलाकर मारे गए शाहजहांपुर के पत्रकार जगेंद्र सिंह को इंसाफ दिलाने और प्रदेश में दलितों, महिलाओं, आरटीआइ कार्यकर्ताओं व पत्रकारों पर हो रहे हमले के खिलाफ शासन को सौंपा 17 सूत्रीय ज्ञापन।”
समाजवादी माफिया की चरागाह बन चुके उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 25 जून की शाम आपातकाल की चालीसवीं बरसी पर आयोजित एक अदद धरने की ख़बर अगर दिल्ली में बैठकर लिखी जाती तो उपर्युक्त तीन पंक्तियों से ज्यादा उसका महत्व नहीं होता। यह बात अलग है कि खुद लखनऊ के बड़े अखबारों ने, एकाध को छोड़कर, इस ख़बर को तीन पंक्तियों के लायक भी नहीं समझा। ऐसा नहीं है कि उन्हें आपातकाल का इलहाम नहीं। ऐसा नहीं है कि इन अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों को अपनी बिरादरी पर अचानक तेज़ हुए हमलों की फि़क्र नहीं। ऐसा भी नहीं है कि 26 जून, 2015 को लखनऊ से प्रकाशित अख़बारों में आपातकाल का जि़क्र सिरे से गायब है। ख़बरें हैं, बेशक हैं, कहीं-कहीं आधे पन्ने तक मय तस्वीर खबरें हैं। फ़र्क बस इतना है कि उन खबरों को पढ़कर एक सामान्य पाठक यह अंदाज़ा भले लगा ले कि आपातकाल का ख़तरा आज वास्तविक है, लेकिन उसे यह नहीं समझ में आ सकता कि ख़तरा किससे है। इस बार आपातकाल के स्मरण की सबसे बड़ी विडंबना यही है।
लखनऊ से एक दिन पहले दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में 24 जून को ”मज़लिंग मीडिया” नाम से आपातकाल की चालीसवीं बरसी पर एक आयोजन रखा गया था जिसमें बिलकुल यही बात दूसरे तरीके से राजदीप सरदेसाई ने कही थी- कि चालीस बरस पहले हमें पता था कि हमारा दुश्मन कौन है, यानी इंदिरा गांधी, लेकिन आज दुश्मन अदृश्य है। अगर राजदीप सरदेसाई जैसे बड़े संपादक को नहीं पता है कि आज आपातकाल का ख़तरा किससे है, तो यह बात सोचने लायक है। आप जनता को फिर इस बौद्धिक मोतियाबिंद का दोष किस मुंह से देंगे? संभव है कि ऐसा कहने के पीछे राजदीप सरदेसाई की अपनी प्रच्छन्न राजनीति और कोई हित सतह के नीचे कहीं काम कर रहा हो। इस बात को ज़रा ढंग से हालांकि रखा जाए, तो हम बेशक इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि चालीस साल पहले जनता को अपने दुश्मन का पता था, लेकिन आज की तारीख़ में उसे यह जानने ही नहीं दिया जा रहा कि उसका दुश्मन कौन है। राजदीप की कही बात को इस तरीके से रखने पर हमें एक परिप्रेक्ष्य मिलता है। दिलचस्प है कि इस परिप्रेक्ष्य में खुद संदेशवाहक कठघरे में खड़ा हो जाता है।
पर्याप्त बढ़ चुके घने पेड़ों से घिरे जीपीओ पार्क में गांधी की प्रतिमा अपनी जगह कायम थी। उसके सामने पार्क में कुछ बुजुर्ग लोग दरी बिछाकर बैठे थे। कुछ और लोग गांधी की नाक के नीचे फ्लेक्स का एक विशाल काला बैनर तानने में जुटे थे जिस पर सफेद अक्षरों में लिखा था, ”25 जून, काला दिवस, आपातकाल लोकतंत्र सेनानी समिति, (उ.प्र.)” और बैनर के सबसे ऊपर ”लोकतंत्र, सदाचार, सर्वधर्म समभाव” के नारों के साथ बायीं तरफ एक अदद पंजीयन संख्या दर्ज थी। गांधीजी की छाती तक बैनर को तान दिया गया था, फिर भी एक संदेह था कि यह ”अपना वाला कार्यक्रम” नहीं हो सकता क्योंकि बैनर पर रिहाई मंच का नाम आयोजक में नहीं है। तभी अचानक तारिक भाई टकरा गए जिन्होंने बताया कि सारे साथी थोड़ी देर में आ रहे हैं। उन्हें भी नहीं पता था कि वहां किसका बैनर तन रहा था। थोड़ी देर में दिल्ली से आए पत्रकार प्रशांत टंडन दिख गए और फिर जानने वाले एक-एक कर के आते गए।
रिहाई मंच ने गांधीजी की बायीं तरफ वाला हिस्सा अपने धरने के लिए चुना। उसका बैनर सीधे जीपीओ की सड़क की ओर मुखातिब था। धरने में तकरीबन सौ से ज्यादा लोग शामिल रहे हरोंगे। अपेक्षा से कम संख्या होने की एक बड़ी वजह रमज़ान का महीना था जिस दौरान ”दीन” से जुड़े काम नहीं किए जाते, बावजूद इसके लोग आए और बैठे रहे। सबने एक-एक कर के भाषण दिया और प्रदेश की सरकार के अघोषित आपातकाल को लताड़ते हुए जगेंद्र सिंह के हत्यारों को पकड़ कर सज़ा देने की मांग उठायी। साढ़े पांच बजे के आसपास एक समय ऐसा आया जब गांधीजी के मुखामुख बैठे बुजुर्गों की आवाज़ें उनके माइक से निकलकर गांधीजी के वाम अवस्थित रिहाई मंच के धरने से टकराने लगीं। थोड़ी देर हमें अपने पीछे से भी कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। पता चला कि गांधीजी के दाहिनी ओर की सीढि़यों पर एक और धरना शुरू हो चुका था जिसके नीले बैनर पर लाल और पीले अक्षरों में लिखा था, ”आल प्रेस एण्ड राईटर्स एसोसिऐशन द्वारा पत्रकारों पर हुए हमलें के विरोध में निंदा प्रदर्शन”। बैनर के ऊपर दायें कोने में रजिस्ट्रेशन संख्या लिखी थी और उसके ठीक पीछे गांधीजी की लाठी वाला हिस्सा दिख रहा था। कोई बीसेक युवा बैनर के नीचे बैठे थे और दाढ़ी वाले एक बुजुर्ग शख्स उन्हें संबोधित कर रहे थे। मैंने जैसे ही तस्वीर खींचनी चाही, भाषण रुक गया और युवकों ने नारा लगाना शुरू कर दिया। तस्वीर खींचने के बाद भाषण दोबारा शुरू हो गया।
पार्क में लगी बेंचों पर बैठे हुए काफी लोग गांधीजी के सामने, दाएं और बाएं चल रहे धरनों को निराकार भाव से देख रहे थे। बस, गांधी के पीछे कोई नहीं था। थोड़ी देर बाद पुलिस के साथ एसडीएम आए और उन्होंने तीनों धरनों के आयोजकों से ज्ञापन लिया। आपातकाल के लोकतंत्र सेनानियों ने अपने ज्ञापन में अपने लिए पेंशन समेत कुछ सुविधाओं की मांग की। नीले बैनर वाले पत्रकारों ने जगेंद्र सिंह हत्याकांड की सीबीआइ से जांच और उसके दोषी मंत्री को बरखास्त करने की मांग की। रिहाई मंच की मांगसूची काफी लंबी थी: इसमें हाशिमपुरा पर जांच आयोगों की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से लेकर किसानों को छह गुना मुआवजा दिए जाने की मांग, 30 हज़ार करोड़ के बिजली घोटाले पर एक श्वेत पत्र जारी करने से लेकर कनहर परियोजना के विस्थापितों के पुनर्वास की मांग, महिलाओं, दलितों, पत्रकारों, आरटीआइ कार्यकर्ताओं और किसानों पर हुए जुल्म के कम से कम पचास मामलों में इंसाफ की मांग, और ज़ाहिर तौर पर पत्रकार जगेंद्र की हत्या के आरोपी मंत्री राममूर्ति वर्मा की तत्काल गिरफ्तारी और बरखास्तगी की मांग प्रमुखता से शामिल थी।
आइए, देखते हैं कि अगले दिन क्या हुआ। जनसंदेश टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा और उर्दू के इंकलाब को छोड़ दें, तो हिंदुस्तान और कैनबिज टाइम्स ने रिहाई मंच के धरने की खबर के प्रकाशन को एक कॉलम के लायक भी नहीं समझा। अंग्रेज़ी के अख़बारों से यह ख़बर नदारद थी। दैनिक जागरण ने भी इसे नहीं छापा। सबसे व्यापक और बड़ी कवरेज काला दिवस मनाने वाले आपातकाल के लोकतंत्र सेनानियों की रही, जिन्हें 26 जून को भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय में आयुष मंत्री श्रीपाद नाइक ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की उपस्थिति में सम्मानित किया। लोकतंत्र सेनानी कल्याण परिषद के अध्यक्ष व समाजवादी पार्टी के विधायक रविदास मेहरोत्रा ने लखनऊ के गांधी भवन प्रेक्षागृह में आयोजित एक सम्मेलन में समाजवादी पार्टी की ओर से काला दिवस मनाने वालों को सम्मानित किया। जहां तक ”आल इण्डिया प्रेस एंड राईटर्स एसोसिऐशन” का सवाल है, उसके बैनर पर तो ”हमलें” में ही नुक्ता लगा हुआ था। स्थानीय लोग बताते हैं कि हज़रतगंज के सुंदरीकरण में करोड़ों रुपये कमाने वाले कुछ बड़े पत्रकार इस एनजीओ के साथ संबद्ध हैं, जैसा कि इसके फेसबुक पेज पर जगेंद्र मामले में आयोजित एक धरने की तस्वीरों में देखा जा सकता है जिसमें एनडीटीवी के कमाल खान और प्रांशु मिश्र आदि मौजूद हैं। सबसे दिलचस्प बात इस एनजीओ को चलाने वाले पत्रकार सर्वजीत सिंह सूर्यवंशी का वेबसाइट पर दिया उनका परिचय है जिसका पहला वाक्य है: ”11 जनवरी 1979 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मे जन्म लेने वाले श्री सर्वजीत सिंह बाल्यकाल से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।” यह पूछे जाने पर कि ये पत्रकार अपना धरना अलग से क्यों कर रहे हैं, सब साथ क्यों नहीं हैं, धरना स्थल पर मौजूद एक पुराने लखनऊ निवासी ने कहा था, ”ये पत्रकार नहीं हैं, दलाल हैं।”
बहरहाल, कुछ विलक्षण प्रतिभाएं 26 जून यानी शुक्रवार को लखनऊ के यूपी प्रेस क्लब में जुटी थीं। मौका था ”आपातकाल की याद” का, जिसे इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स ने आयोजित किया था और जिसमें प्रदेश के राज्यपाल नाम नाइक ने आपातकाल के दौरान अपने भूमिगत संघर्ष पर चर्चा की, जिस पर शहर के पत्रकारों ने ठंडी आहें भरीं।
अभी और कार्यक्रम होंगे, धरने होंगे, स्मरण होंगे, सम्मान समारोह होंगे। लालकृष्ण आडवाणी के अप्रत्याशित व नाटकीय बयान से आपातकाल का जो संदर्भ इस देश में शुरू हुआ है, वह इतनी जल्दी थमने वाला नहीं है। अपना-अपना आपातकाल का जश्न जारी है। समाजवादी पार्टी से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक हर कोई आपातकाल को याद कर रहा है। दिल्ली के जंतर-मंतर पर कवि आपातकाल की याद में कविताएं पढ़ रहा है। रिहाई मंच जैसे कुछेक संगठन जो इस अघोषित आपातकाल के एक-एक बर्बर उदाहरण गिनवा रहे हैं और इंसाफ मांग रहे हैं, उन्हें कोई नहीं सुन रहा। आपातकाल के स्मरण के शोर में यह बात सिरे से गायब कर दी गयी है कि अघोषित आपातकाल का भी कोई दोषी हो सकता है।
चालीसवें साल में आपातकाल को याद कर के हर कोई अपने पाप धुलने में लगा हुआ है। पुरानी कमीज़ की धुलाई में उसकी जेब से एकाध मुड़े-तुड़े नोट औचक निकल आएं तो भला किसे अखरता है? उधर, रिहाई मंच के कुछ नामालूम से जुनूनी नौजवान हैं जो अघोषित इमरजेंसी के उदाहरणों को इकट्ठा करने के लिए और जनता को जागरूक करने के लिए अगले महीने से गांवों की ओर निकलने वाले हैं। मुजफ्फरनगर और शामली में दो दिन बाद एक मुसलमान और एक दलित युवक को बजरंग दल के गुंडों ने पीटा तब अकेले रिहाई मंच था जिसने तुरंत सड़क का रुख़ किया। अगले महीने वे ”इंसाफ मुहिम” नाम का एक अभियान शुरू कर रहे हैं, क्योंकि गांधी ने कहा था कि यह देश गांवों में बसता है। वे किसानों की बात करेंगे, दलितों की बात करेंगे, महिलाओं पर जुल्म की बात करेंगे। वे कैदखानों में बंद बेगुनाह मुसलमानों की आवाज़ उठाएंगे। वे वह सब कुछ करेंगे जो हमें भरोसा दिला सके कि आपातकाल था नहीं, है और रहेगा। उनकी आवाज़ बार-बार अनसुनी की जाएगी है क्योंकि उनसे अनजाने में सिर्फ एक गलती हो गयी है: वे गांधीजी की बायीं तरफ अपना बैनर बांधे खड़े हैं!
When the newly elected New York mayor Zohran Mamdani was recently mocked for eating with his hands, it exposed the…
From 10 November, representatives from more than 100 countries are expected to gather in Belém, Brazil, as the Amazon city…
Zohran Mamdani, the 34-year-old New York State Assembly member and democratic socialist, was elected New York City’s mayor on Nov.…
For fans and followers of women’s cricket, November 2 – the day the ICC World Cup finals were held in…
Caste-based reservation is back on India’s political landscape. Some national political parties are clamouring for quotas for students seeking entry…
In an election rally in Bihar's Aurangabad on November 4, Congress leader Rahul Gandhi launched a blistering assault on Prime…
This website uses cookies.