(देश की सरकारें हर वर्ष नीरो का खेल देखती हैं. पल-पल मरते लोकतंत्र में राजपथ पर सत्ता का संभोग दिखता है. 26 जनवरी आने से महीनों पहले इसकी तैयारी शुरू हो जाती है. दिल्ली सहमी-सहमी इस तारीख की ओर घिसटती है और फिर सबकुछ बख्तरबंद पहरे में शुरू हो जाता है. लोकतंत्र में पर्व मनाने का यह आयातित तरीका न जाने कबतक हमारे देश की नसों में दौड़ेगा. वर्ष 2005 में इसी आयोजन के आसपास के दिनों में एक पुलिसवाले से दुत्कार सुनी थीं राजपथ पर. तब जन्मी थी यह कविता. आज 26 जनवरी की पूर्व संध्या पर उन तमाम लोगों के संघर्षों को याद करते हुए इसे प्रकाशित कर रहा हूं जो असली लोकतंत्र लाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.)
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राजपथ
मासूम नन्हे पैर इस सड़क से घबराते हैं
क्योंकि इसके सीने को
टैंक रौंदते चले जाते हैं,
पुलिसिया घोड़े इसपर लीद करते हैं.
यहाँ वतन के महरूमों की टाट बेचकर
एक शामियाना लगाया गया है.
इन शामियानों में उत्सव का स्वाँग है मगर,
खुशी की किलकारी नहीं.
सबकुछ बुलैटप्रूफ़ शीशों की चाहरदिवारियों में घिरा हुआ है.
यहाँ कुछ ‘आतंकवादी’,
आते हैं और जश्न मनाते हैं,
अपनी बर्बर चालों की जीत का.
इनका झंडा बेकफ़न दफ़्न हुए लोगों के,
चीथड़ों से बना है.
घर की बाई की टाँगों के बीच
जबरन घँसे और लरजते,
धसकती दीवारों की तरह पादनेवाले,
मोटे बेडौल साहबों की,
थुलथुले जिस्म और पामेलियन कुत्तों वाली मेम
यहाँ अपने पति के साथ खुश दिखाई देती हैं.
ऊँची जातों और अच्छी पोशाकों वाले
बच्चों के नाचने पर
बेताल ताली बजाते प्रिंसिपल,
और
सरकारी मेहमान की हैसियत से,
झपकियाँ लेते ‘सम्मानित’
यहाँ हर साल आते हैं.
यहाँ देश के सिपाही दुश्मनों की रखवाली करते हैं.
ताकि आज़ाद होने की कवायद में,
ये मारे न जाएँ, लोगों के हाथों.
यहाँ एक कब्रिस्तान है
जहाँ एक मरे हुए देश की कब्र पर,
तमाम सियार हुआँ-हुआँ करते हैं.
देश सोता रहता है.
लोग रोते रहते हैं.
यहाँ आकर मुझे सफ़ेद रंग से नफ़रत हो गई है.
सफ़ेद कार, कुर्ता, कागज़…..
सब के सब मुझे खाने को दौड़ते हैं.
यहाँ के लोग,
लगता है किसी दूसरे ग्रह के हैं.
रेगिस्तानी आँखें, पानीदार ज़ुबान,
लच्छेदार बातें, हाथी जैसे दाँत,
शमशान जैसी तैयारी और भेड़िये जैसी नीयत.
यहाँ एक मशाल में आग जल रही है
और सरकारें उसमें रोटियाँ सेंक रही हैं,
कई दशकों से.
यहाँ का सूरज पारदर्शी और बुझा हुआ है.
ख़ून काला और हड्डियाँ रुई के फ़ाहे जैसी हैं.
यहाँ आसमान डूबा हुआ है
ज़मीन, उजड़ी हुई माँग जैसी है.
नीयत, पेट से ज़्यादा भूखी है,
और घूरती आँखें, बंदूक की गोली से भी तेज़ हैं.
यहाँ लोगों के जिस्म सटे हुए हैं
पर दिलों में दरार है.
रिक्शेवाला,
इसे राजपथ कहता है.
(देश की राजधानी में प्रतिवर्ष 26 जनवरी को होनेवाले सरकारी आयोजनों को समर्पित)