पान सिंह तोमर के जीवन पर बनी फ़िल्म एक लंबे अरसे बाद हिंदी में अच्छी बयार जैसी है. फिल्म की सबसे अच्छी चीज़ उसकी मेहनत है. कई चरित्र जीवित और असली लगते हैं. छोटे-छोटे किरदारों में एक अच्छा और सधा हुआ काम है पान सिंह तोमर. ऐसा विषय जिसमें घुसने से पहले उसे बाज़ार में बिकने लायक बनाने की चुनौती भी है और शेखर कपूर की बैंडिट क्वीन जैसे मील के पत्थर भी उसके रास्ते में खड़े हैं.
पर पान सिंह तोमर के बहाने एक सवाल फिर से खड़ा तो हुआ ही है. सवाल, कि क्या पान सिंह तोमर की सच्चाई आज एक बीता अध्याय हो चुकी है. सवाल कि क्या पान सिंह तोमर जैसे चरित्रों से यह देश अटा नहीं पड़ा है. क्या इनके लिए सुध लेने वाला कोई भी नहीं है. कितना आसान होता है इन सवालों के सामने खड़े होना, अपना सिर खुजाना और फिर आगे चल देना… यह सोचकर कि बेकार ज़्यादा दिमाग खर्चने पर अपना ही नुकसान होना है. तकलीफ और गुस्सा तब खौलकर आंखों में उतरने को आता है जब दिखता है कि ओलंपिक एसोसिएशन के किसी अधिकारी के लिए नाश्ता तो लग्ज़री टैक्सी में आता है और पुरस्कृत खिलाड़ी ऑटो से घर लौटते हैं. हम ऐसे खेल संघों से घिरे हैं जहाँ खिलाड़ी की खुराक को कोई हाथ पकड़कर रोक देता है. उसे आधे पेट पूरी दौड़ के लिए मजबूर करता है और बदले में कुछ पीतल और मोटे कागज़ पर छपे प्रमाण पत्रों के कुछ और हासिल नहीं होता.
पर यह फ़िल्म अपने जैसे कथानकों वाली फ़िल्मों के साथ खड़ी होकर एक और पहलू खोलकर सामने रख देती है. बात केवल पान सिंह तोमर की नहीं है. पान सिंह की कहानी क्या केवल इसलिए कही जाए कि उसने पदक जीते थे. वो एक फौजी था और एक खिलाड़ी भी. क्या राष्ट्रीय बोध, राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय धरोहर, राष्ट्रीय गौरव जैसे शब्द केवल पदक पाने वाले इस चंबल के नौजवान की ज़िंदगी से ही जुड़े हैं. क्यों और कबतक हम इस खोखले राष्ट्रीय अभिमान को माथे पर रखकर पान सिंह जैसों की ज़िंदगी पर आंसू बहाएं. इस सवाल को इस तरह से क्यों न देखें कि पान सिंह तोमर होना या न होना हमारे बहाए जा रहे आंसुओं का आधार नहीं होना चाहिए. राष्ट्रीय अभिमान अगर दिल में इतना ही लबरेज भरा हुआ है तो इसे हर एक व्यक्ति के साथ हो रहे अन्याय और अपमान पर छलकना चाहिए. चाहे वो पान सिंह तोमर हो या न हो.
पर हम ऐसा नहीं करते. इसलिए फूलन की मौत पर हम कहते हैं कि डकैत थी, मारी गई. जो गोली चलाता है वो गोली से ही मारा जाता है. ददुआ हो, वीरप्पन हो, कोई भी हो. मारा जाएगा. पर पान सिंह तो विशेष था. उसे नहीं मारा जाना चाहिए था. कितनी दर्दनाक है उसकी कहानी. अरे ददुआ और फूलन की कहानी का दर्द क्या पान सिंह के दर्द से कम है. क्या बेहमई में हुई घटना राष्ट्रीय गौरव को तार-तार नहीं कर देती. क्या व्यवस्था खुद नौजवान हाथों को बेरोज़गारी, उपेक्षा, हिकारत की रस्सी में बांधकर पेट पर लातें नहीं मारती. क्या व्यवस्था का भ्रष्टाचार, बेहयाई और भेदभाव हमें उन हथकंडों को अपनाने के लिए मजबूर नहीं करता जिसमें बागी होना स्वेच्छा नहीं, विवशता होती है. क्या असामाजिक तत्व बन जाने से पहले अधिकतर नाम उस रेस में कूदने को मजबूर नहीं कर दिए जाते जिसमें बंदूक लेकर भागना ही नियम है और यह रेस खत्म तब होती है जब गोली छाती चीरकर आगे निकल जाती है.
फूलन और पान सिंह एक ही भौगोलिक दंगल के बागी थे. दोनों के कारण अलग अलग थे पर दोनों के कारणों की साझा नींव अन्याय है. शोषण है, उपेक्षा है, अत्याचार है और व्यवस्था में सबकुछ व्यवस्थित होने का ढोंग है. इसीलिए फूलन भी बंदूक उठाती है, ददुआ भी और पान सिंह भी. आप और हम चंद नामों को ही जानते हैं. ऐसे कितने ही नाम एन्काउंटरों की फाइलों में हैं, सीखचों के पीछे हैं या गाहे-बगाहे अपनी हरक़तों से पहचाने जा रहे हैं.
पान सिंह तोमर की कहानी जिस एक सच का बयान है, वो यह है कि पान सिंह तोमर होना या न होना आपके लिए चाहे जितना भी मायने रखे, व्यवस्था के लिए कोई मायने नहीं रखता. आप पान सिंह तोमर हो, ध्यानचंद हो, वीरता चक्र प्राप्त सैनिक हों, कॉलेज के गोल्ड मेडेलिस्ट हों, फूलन हों, वीरप्पन हों, कथाकार हों, ईमानदार अधिकारी हों, इस देश के नागरिक हों…. आप सबके लिए व्यवस्था एक ही चक्की रखती है और सबको एक ही तरह के पाटों के बीच पीसती है. गेंहू पिस रहा है. साथ में घुन भी, चना भी, जौ भी, चपड़ी भी… और भी. व्यवस्था सबको सान-सेंककर खाना जानती है. वाट एवर इट टेक्स.