मीडिया महात्म्यः यहां सनसनी ही सबकुछ है

आतंकवादी गतिविधियों की कवरेज की बहाने मीडिया सनसनी बेचता नजर आ रहा है. इसका ताजा उदाहरण दिल्ली में इजरायली राजनयिक की गाड़ी पर आंतकी हमले की कवरेज के रूप में देख सकते हैं. हमले की सूचना के कुछ ही पलों में टीवी चैनल एक-दूसरे से होड़ ले रहे थे. र्इरान को हमले के केंद्र में बताया जा रहा था. इसके बाद दिल्ली में सुरक्षा को लेकर छोटे-बड़े दर्जनों सवाल उठे. घंटे भर के भीतर ही तमाम प्रमुख चैनलों में एक्सपर्ट के दल आ बैठे. सवालों की लिस्ट बनकर तैयार हो गर्इ. कार्यक्रम प्रस्तोताओं ने विशेषज्ञों के मुंह में सवाल ठूंसने शुरू किए और ऐसे जवाब मिले कि यदि स्टूडियो में मौजूद विशेषज्ञों में से किसी एक विशेषज्ञ को आतंक से निपटने का जिम्मा दे दें तो भारत के किसी कोने-कंदरा में आंतक का नाम नहीं रहेगा. बीच-बीच में कैसे बनी हमले की रणनीति और कौन है आतंकी, जैसे बिंदुओं पर रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती रही.

इन रिपोर्टों को सुनने के बाद आम दर्शक या श्रोता के पास कोर्इ वजह नहीं कि वह इन पर भरोसा न करे. इस दौरान यह सवाल किसी कोने से नहीं उठता कि मैग्नेट-बम को लेकर इतनी पक्की जानकारी इन चैनलों के पास कहां से आ गर्इ? क्या इन्हें पहले पता था कि दिल्ली में मैग्नेट-बम से हमला होने वाला है, इसलिए इन्होंने एडवांस में ही स्टोरी प्लान कर ली थी? मैग्नेट बम कहां और कैसे बन रहे हैं, इनके बनाने और विस्फोट की प्रक्रिया तक का जिक्र रिपोर्टों में था. यह जानकारी कहां से मिली, इसके लिए ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है. इंटरनेटी दुनिया पर किसी भी सर्च-इंजन में जाकर किसी भी तरह के बम का पता लगा लीजिये और उसी को दर्शकों-श्रोताओं को परोस दीजिए. चैनलों के कर्ताधर्ताओं के पास न समय और न ही इच्छाशक्ति है कि वे इस बात का पता लगाए कि जो जानकारी इंटरनेट से मिली है वह कितनी प्रामाणिक और तथ्यपरक है?
चूंकि, खबर बेचने की प्रतिस्पर्धा बेहद तेज और गलाकाट है इसलिए यह बात गौण हो जाती है कि खबर क्यों प्रस्तुत की जा रही है और किसके लिए प्रस्तुत की जा रही है. तब, सनसनी महत्वपूर्ण होती है न कि प्रमाण. आंतकी खबरों की प्रस्तुति में एक और खास बात ध्यान खींचती है-वो ये कि तमाम पत्रकार एक खास बैंड में काम करते रहे हैं. उनके सूचनाएं जुटाने के स्रोत न केवल समान बल्कि साझा होते हैं. ज्यादातर फीड बिना किसी के मेहनत के लिए इधर-उधर से उठा ली गर्इ होती है. एक साझा सहमति के साथ मीडिया अपने लक्षित-समूह को अनियंत्रित, अनियोजित और नासमझी भरी चीजें परोस रहा होता है. इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि स्टूडियो में बैठे विशेषज्ञ इन रिपोर्टों के पक्ष में तर्क गढ़ने की कोशिश करते नजर आते हैं.
इसका दूसरा उदाहरण आजमगढ़ के आंतकी कनेक्शन से समझा जा सकता है. चैनलों ने इसके लिए नया टर्म विकसित किया-आतंकगढ़. क्या कोर्इ भी चैनल यह साबित कर सकता है कि आतंकवादी किसी एक जिले, शहर या खास कस्बे में ही पैदा होते हैं? इस आतंकगढ़ के बहाने एक खास कम्युनिटी और समूह को केंद्र में रखकर समाचार तैयार और प्रस्तुत किए गए. खबर के व्यापारियों को अंदाज़ा भी नहीं होगा कि उन्होंने किस तरह आतंक की प्रस्तुति में एक कम्युनिटी या खास वर्ग को आइसोलेट करने की कोशिश की है.
आंतक की किसी भी बड़ी घटना के बाद पुलिस या सरकारी एजेंसियों की सूचना को अंतिम और प्रामाणिक मानकर प्रस्तुत किया जाता रहा है. इसका बड़ा उदाहरण आंध्रप्रदेश का मक्का मस्जिद मामला है. इस घटना के बाद जिन्हें पकड़ा गया था, टीवी चैनलों ने उन्हें देश के बड़े आतंकवादियों के तौर पर प्रस्तुत किया. लेकिन, सच्चार्इ कुछ और थी. अब, कोर्इ मीडिया समूह या टीवी चैनल इस बात की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है कि उन्होंने जल्दबाजी में गलती की थी, न कोर्इ खेद जता रहा है. अब, सच्चार्इ कोने में मुंह छिपाकर रो रही है और मीडिया नए शिकारों की तलाश कर रहा है.
थोड़ा गौर से देखिये तो एक बात समझ में आएगी कि मीडिया एक-दूसरे को हराने में जुटा है. पहले यह लड़ार्इ प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के बीच थी. अब, इंटरनेट इस लड़ार्इ का मजबूत खिलाड़ी है. लड़ार्इ इतनी आगे बढ़ गर्इ है कि एक चैनल दूसरे चैनल को हराने और पीछे छोड़ने के लिए आमादा है. भले ही इस दौड़ में खबर का दम घुट जाए. घटनाओं के बाद के फोलोअप तो और भी सनसनीखेज बनाए जाते हैं. बीते दिनों की आतंक संबंधी तमाम रिपोर्टों में कुछ खास सूत्रों के हवाले से सूचनाएं दी गर्इ. लेकिन, यह बात यकीनी तौर पर कही जा सकती है कि चैनल की मुखिया या संपादक ने इस बात की तसदीक या तहकीकात की जरूरत नहीं समझी कि संबंधित सूत्र की प्रामाणिकता को परख लिया जाए.
यह बात लगातार साबित हुर्इ है कि आतंकवादी खबरों की प्रस्तुति में मीडिया अतिरेक का शिकार भी है. न किसी के पास वक्त और न ही समझ कि आतंकवादी गतिविधियों की खबरों को छानने के लिए न्यूज-रूम की छलनी को मजबूत किया जाए. मीडिया से जुड़े लोग भी आम आदमी ही है, उन्हें कोर्इ ऐसी अतिरिक्त इंद्री या शक्ति प्राप्त नहीं है जिससे वे यह पता लगा सकें कि वास्तव में किसी घटना के पीछे का मकसद क्या है, इसमें कौन लोग शामिल हैं, लेकिन मीडिया समूह उन्हें बाध्य कर रहे हैं कि घटना होने के तुरंत बाद वे ऐसी जानकारी परोसें जिसे अगले कुछ घंटों तक बजाया जा सके. इस दबाव में अर्थ का अनर्थ होना ही है.
आतंक की कवरेज के मामले में मीडिया कवरेज के हास्यास्पद होने का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अखबार और चैनल कट्टर मुसलिम संगठनों और नक्सल आंदोलन को एक साथ खड़ा कर देते हैं. उन्हें लिट्टे की गतिविधियों और नेपाल के माओवादियों में साम्य दिखने लगता है. उन्हें बर्मा के अतिवादियों और पाकिस्तान के बलोच लड़ाकों को एक साथ दिखाने में कोर्इ परेशानी नहीं होती. वे चीन शिनज्यांग प्रांत के आंतकियों और रूस के चेचनबागियों को हमजोली बता देते हैं. कारण साफ हैं, आतंकी खबरों की प्रस्तुति में भारतीय मीडिया के पास समझ का अभाव होने के साथ-साथ पश्चिमी मीडिया का पिछलग्गू होने की बीमारी भी है. आखिर, कोर्इ वजह तो होगी कि इजरायली राजनयिक की कार पर हमले के मामले में एनडीटीवी, जी-न्यूज, स्टार न्यूज जैसे चैनलों की खबरों का टोन सीएनएन और बीबीसी की प्रतिकृति बना हुआ दिखार्इ दिया. फिलहाल, भारी-भरकम वाक्यों, तीखे शब्दों और नाटकीय प्रस्तुति के साथ आंतक की कवरेज बिकाउ माल बनी रहेगी.

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