सारंगी के अलबेले सजन… काहे सताए, आजा
Nov 30, 2011 | Panini Anandसारंगी के तारों पर आंसूं की बूंदें हैं. बिना छेड़े ही यह गाना गूंज रहा है- पिया बसंती रे… काहे सताए, आजा. पर आने वाला सदा के लिए जा चुका है. अपनी गूंज को लोगों के बीच खनकता छोड़कर…. उस्ताद सुल्तान ख़ान अलविदा कह गए.
जोधपुर के इस महान कलाकार ने 71 बरस की ज़िंदगी में जितना समय सारंगी को दिया, उतना किसी और को नहीं. सारंगी उनके हाथों में खनक-छनक कर खेली. इस कदर, कि दुनिया सारंगी और उसके उस्ताद के मुरीद हो गए. चाहनेवालों की कोई गिनती नहीं और दीवाने लाखों हुए फिरते हैं.
पर साज और हाथों का सिलसिला एक उम्र का होता है. यह उम्र बीतते ही लय हवाओं में होती है. कानों में होती है. स्मृतियों में होती है. साज और हाथ खाली छूट जाते हैं.
पद्म भूषण से सम्मानित होना उनको याद करने का पैमाना नहीं है. न ही केवल इन प्रचलित गीतों के ज़रिए इस महान फनकार को समझा जा सकता है. साधना के अगाध गहरे सागर में डूबने और उबरने का हुनर जिसे कहते हैं, वो नाम थे उस्ताद सुल्तान खान साहेब.
पिछले एक सप्ताह से उस्ताद लगातार याद आ रहे थे. 13 नवंबर को अजमेर ज़िले में खमायचा वाद्य के सर्वश्रेष्ठ वादक साकर खां साहेब मांगनियार से मुलाक़ात हुई. उनको सुना. साथ में आए थे अनवर खां. अनवर भाई ने बताया कि सीधे मुंबई से आ रहा हूं. उस्ताद जी के साथ एक रिकॉर्डिंग थी. और फिर मैं आगे की बातों में थोड़ा अनमना सा होता चला गया. याद ऐसी आई कि लगा उस्ताद गा रहे हैं… अलबेला सजन आयो रे.
इसके बाद से लगातार तीन मौकों पर दोस्तों के साथ, कुछ वरिष्ठों के बीच उस्ताद के गानों को मिलकर गाया. उनका ज़िक्र चला और हुनरमंदी की दादें दी गईं.
पर बंदिशों के मुहाने पर वक़्त ने एक बेसुरा ठेका झेड़ दिया. नियति के इस बेसुरे अलाप से तार टूट गए और उस्ताद अलविदा कह गए. सारंगी जब-जब कानों में गूंजेगी, तुम बहुत याद आओगे उस्ताद.