राग बिना अब सूना है हिंदी का दरबार
Dec 11, 2011 | Pratirodh Bureauराग दरबारी का तानसेन चला गया. शांत हो गए श्रीलाल शुक्ल और इसी के साथ हिंदी साहित्य ने उत्तर प्रदेश के गांवों का सजीव चित्रण करने वाला द विंची खो दिया.
राग दरबारी जैसी कालजयी रचना के महान लेखक, श्रीलाल शुक्ल ने शुक्रवार को आंतिम सांस ली. पिछले कई महीनों से तकलीफ और आयु की चुनौतियों से जूझ रहे थे.
उनका देहांत लखनऊ के एक अस्पताल में हुआ. 86 वर्षीय श्रीलाल शुक्ल उत्तर प्रदेश प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. इसके बाद उनकी पदोन्नति करके आईएएस बना दिया गया था.
पर अवध की जिस मिट्टी में वो जन्में, और जिसकी कहानी अपनी कलम से वो कहते रहे, वो हिंदी भाषी समाज उन्हें अपने एक बेलाग, बारीक, पैना, सटीक, समग्रता लिए हुए लेखन करने वाले साहित्यकार के तौर पर जानता है.
निश्चय ही श्रीलाल शुक्ल का जाना हिंदी साहित्य के लिए एक अपूर्णीय क्षति है. पर आयु और अवस्था को कौन टाल सकता है. 86 पार कर रहे श्रीलाल जी को फेफड़ों में इन्फैक्शन और सांस लेने में तकलीफ की शिकायतों के बाद लगातार उपचार के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया जहाँ 28 अक्टूबर को उनका निधन हो गया.
राग दरबारी, सूनी घाटी का सूरज, मकान, सीमाएं टूटती हैं, अंगद का पांव, आदमी का ज़हर, विश्रामपुर का संत, पहला पड़ाव, अज्ञातवास जैसी दो दर्जन से ज़्यादा कृतियां श्रीलाल शुक्ल ने हिंदी साहित्य को दीं.
श्रीलाल जी का पहला उपन्यास, सूनी घाटी का सूरज छपा सबसे वर्ष 1957 में पर ज़्यादा चर्चित और प्रसिद्ध हुआ राग दगबारी जो आया 1968 में. इस दौरान श्रीलाल शुक्ल का काम मान्यता और सम्मान की सीढ़ियां चढ़ता रहा. वर्ष 1969 में ही उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया. पद्म भूषण भी मिला. यश भारती से भी सम्मानित हुए.
हालांकि ज्ञानपीठ या तो अज्ञानतावश या लापरवाही (इससे इतर क्या समझा जाए… जानबूझकर, साजिश या राजनीति कहूं तो शायद बहुत बुरा लगेगा) के चलते उनके काम को मान्यता और सम्मान न दे सका. दिया भी तो चार दशक बीतने के बाद. हिंदी के प्रसिद्ध समालोचक नामवर सिंह इसके लिए ज्ञानपीठ को खरी-खोटी सुना रहे हैं.
लखनऊ के पास मोहनलालगंज के अतरौली में 31 दिसंबर, 1925 को जन्में श्रीलाल शुक्ल विचारधारात्मक तो कभी पात्रों के प्रभाव और चयन के लिए थोड़ी आलोचना भी सुनते रहे पर अपने बेलाग बेबाक व्यक्तित्व से उन्होंने सभी को प्रभावित किया.
उनकी अंतिम कृति राम विराग है और इसी के बाद से श्रीलाल जी एक पूर्ण विराम लगाकर चले गए. समय की सीमाओं को तोड़कर.
उनके जन्म की तारीख को देखो तो उनके उपन्यास, \\\’सीमाएं टूटती हैं\\\’ ध्यान आता है. 31 दिसंबर को जन्मे और कुछ ही घंटों में एक पूरे वर्ष की सीमा तोड़कर नए वर्ष में प्रवेश कर गए थे वो. अब लगता है, यह शीर्षक जीवन के सत्य को भी तो परिभाषित करता है. सीमाएं टूटती हैं. साहित्य नहीं टूटता. श्रीलाल शुक्ल अपनी कृतियों के रूप में सदा जीवित रहेंगे.