मानेसर में संघर्षरत मजदूरों को समर्पित कविता
Jul 23, 2012 | Panini Anand(मानेसर की ताज़ा घटना को जिस तरह से देखा और दिखाया जा रहा है उसमें उन तमाम पहलुओं की अनदेखी हो रही है जो इसके कारक हैं. साथ ही जिस तरह से मजदूरों को आतंकित करने का और उनको खोज निकालने का सियासी जाल बिछाया गया है, वो किसी भी तरह से लोकतांत्रिक और स्वस्थ नहीं ठहराया जा सकता है. जाँच का हर पहलू केवल और केवल मजदूरों, कामगारों को दोषी मानकर ही अपनी रणनीति तय कर रहा है. मजदूरों के इस संघर्ष और जटिल स्थिति को समर्पित एक कविता…)
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मानेसर
आसमान से,
पानी नहीं बरसा.
भीगा है सिर
खून कनपटियों से टपक रहा है
सायरन चीर रहा है कानों को
पुलिसवाला बिना देखे
धुन रहा है, रुई की तरह
आग किसने लगाई है- पूछ रहा है समीर
जिसकी शादी तय हो चुकी है
और वो ट्रेनिंग पर है.
आग किसी को नहीं पहचानती है
और न किसी एक की बपौती होती है
पहले होती थी
जब ठकुराइन के घर आग मांगने आती थी नाउन
अपना चूल्हा जलाने के लिए
बदले में बुझाने पड़ते थे शरीर
ठकुराइन के नाखून काटने पड़ते थे
पर अब आग शहर चली आई है
और शहर में बाज़ार ने आग बिखेर रखी है
इस बिखरी आग पर चल रहे हैं लोग,
नंगे पांव
जवान आंखों पर लगा दिए गए हैं काले चश्मे
पीठ पर पड़ रहे हैं कोड़े
गांव में यह दोषमुक्ति थी, शहर में अनुशासन है
जिसके पास कोड़ा है, उसी का प्रशासन है
हाड़-मांस की मशीने, डिग्रियों पर हिसाब लिख रही हैं
और मदारी खेल दिखाकर पैसे बना रहा है
दीवाना कोई भी हो सकता है
कंपनी का मालिक भी, मजदूर भी
दूसरे की छाती पर नाचने वाली दीवनगी
बहुत दिन तक नहीं साध पाती धुंधरू
और पैरों तले रौंद दिया जाता है शोषण
बढ़ते क़दम पार कर लेते हैं लक्ष्मण रेखा
इस खेल में न कोई रावण है, न सीता है
जो लड़ा है, खड़ा है, वही जीता है.
महानगरों में जीत एक धंधा है
और जिनके पास हारने को कुछ नहीं हैं,
उनके हाथ में झंडा है
धंधा, झंडे को खरीदना चाहता है
और झंडा, धंधे को सुधारना
इस अंतर्विरोध में बिक जाते हैं नेता
गांव वाले खाप बन जाते हैं
परदेसी दुश्मन दिखने लगता है
इसी दुश्मन की कमाई से मोटा होकर
सरपंच, सीएम बोलने लगा है जापानी, अमरीकी भाषा
क्योंकि जहाँ जापान है, अमरीका है,
वहां उत्पादन है
जहाँ उत्पादन है, वहां पैसा है,
जहाँ पैसा है, वहाँ परदेसी है
जहां परदेसी है, वहां खोली है, भाड़े के कमरे हैं
बेरसराय में भी, नजफ़गढ़ में भी
मानेसर में भी.
खोली का किराया,
बाज़ार के इन भेड़ियों का हिस्सा है
उत्पादन के कर्मकांड का
यह भी एक घिनौना किस्सा है.
कंपनियों के आगे
टिकाकर घुटने, लोट रही है सरकार
खोजे जा रहे हैं मजदूर
जो न खोलियों में हैं, न चाय की दुकानों पर
न दवाखानों पर, अस्पतालों में भी नहीं.
कॉम्बिंग ऑपरेशन चल रहा है
साथ में राष्ट्रपति भवन के गार्ड,
कर रहे हैं रिहर्सल
भागा हुआ है मजदूर,
पीछे हैं खोजी कुत्ते, अफ़सर
सत्ता हाइकू लिख रही है-
यस सर,
ओके सर,
मानेसर
पाणिनि आनंद
22 जुलाई, 2012
नई दिल्ली